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Home ज़रूर पढ़ें

डोनाल्ड ट्रम्प का एग्ज़िट ड्रामा बताता है, अमेरिकी लोकतंत्र कितना मज़बूत है!

प्रमोद कुमार by प्रमोद कुमार
January 14, 2021
in ज़रूर पढ़ें, नज़रिया, सुर्ख़ियों में
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डोनाल्ड ट्रम्प का एग्ज़िट ड्रामा बताता है, अमेरिकी लोकतंत्र कितना मज़बूत है!

चुनाव हारने के बाद ट्रम्प और उनके समर्थकों के बचकाने व्यवहार को को जिस तरह से अमेरिका ने हैंडल किया है, वह दिखाता है अमेरिकी लोकतंत्र लंबे समय तक आबाद रहनेवाला है.

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डोनाल्ड ट्रम्प की छवि एक बड़बोले और सनकी राष्ट्रपति की बनी रही. जहां ट्रम्प की जीत अमेरिका में दक्षिणपंथी ताक़तों के मज़बूत होने की कहानी थी, वहीं राष्ट्रपति की दूसरी पारी न मिल पाना, वहां की मीडिया और जनता की मैच्योरिटी का सबूत. चुनाव हारने के बाद ट्रम्प और उनके समर्थकों के बचकाने व्यवहार को जिस तरह से अमेरिका ने हैंडल किया है, वह दिखाता है अमेरिकी लोकतंत्र लंबे समय तक आबाद रहनेवाला है.

यह दक्षिणपंथी विचारधारा का युग है. दुनिया के लगभग हर हिस्से में कथित राष्ट्रवादी ताक़तें मज़बूत हैं, पर दुनिया बेहाल है. वैसे तो दक्षिणपंथ हमेशा से मौजूद रहा है, पर इसकी मौजूदा लहर तब उफान पर आई, जब पश्चिमी एशिया के कई इस्लामी देशों में सत्ता हस्तांतरण के लिए गृहयुद्ध शुरू हुए. तब वहां की आम जनता अपनी जान बचाते हुए और पश्चिम की तरफ़ निकली यानी यूरोपियन देशों की ओर. कुछ यूरोपी देशों ने इस्लामी देशों के इन शरणार्थियों के लिए अपने दरवाज़े खोले तो ज़्यादातर ने बंद कर लिए. जिन देशों में ये शरणार्थी पहुंचे भी वहां के दक्षिणपंथी संगठनों ने इनका कड़ा विरोध किया. इस विरोध के अपने राजनैतिक कारण तो रहे ही, पर एक महत्वपूर्ण कारण यह था इस्लाम के ऊपर लगा कट्टपंथी विचारधारा और धर्म होने का ठप्पा. यूरोपीय देशों में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा बीच-बीच में किए जानेवाले हमले इस ठप्पे की स्याही को और गाढ़ी करते गए. वहीं यूरोप के और पश्चिम में आबाद आधुनिक दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र अमेरिका भी इस्लामोफ़ोबियो से 2001 के वर्ल्ड ट्रेड हमले के बाद से उबर नहीं पाया था. हालांकि अब भी उसकी सोच लोकतांत्रिक और समावेशी ही थी. यही कारण रहा कि इस देश ने दो बार अफ्रीका से संबंध रखनेवाले एक अश्वेत अमेरिकी को अपना राष्ट्रपति चुना था. लेकिन दुनिया में इस्लाम के डर, चीन की विस्तारवादी व्यापारिक नीति ने अमेरिका को भी प्रभावित कर लिया था, जिसका फ़ायदा डोनाल्ड ट्रम्प जैसे बिज़नेसमैन ने बख़ूबी उठाया और राष्ट्रवाद, अमेरिका फ़र्स्ट जैसे मुद्दों के दम पर हिलेरी क्लिंटन जैसी मज़बूत प्रतिद्वंद्वी को हराया. ट्रम्प की जीत अमेरिकी समाज में घर कर रही संकीर्णतावादी दृष्टिकोण की जीत थी.
जीत के बाद ट्रम्प की छवि एक बड़बोले और सनकी राष्ट्रपति की बनी रही. वह राष्ट्रपति, जो अपनी सुविधानुसार तथ्यों के साथ हेरफेर करने और सार्वजनिक मंचों से झूठ बोलने तक से परहेज नहीं करता था. यहां हम बात कर रहे हैं ट्रम्प की छवि की तो अगर उनकी छवि नकारात्मक बनी तो इसका श्रेय उनके ख़ुद के व्यवहार व क़ाबिलियत के साथ-साथ अमेरिकी मीडिया की निष्पक्षता और पत्रकारिता के मूल्यों पर टिके होने को जाता है. हमने पिछले चार सालों में कई बार अमेरिकी पत्रकारों को राष्ट्रपति ट्रम्प से कठोर व अप्रिय सवाल पूछते देखा. कई बार ट्रम्प झुंझला जाते, जवाब नहीं देते तो कई बार सवाल करनेवाले पत्रकार को ही सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश करते, उसकी निष्ठा पर लांछन लगाते. मीडिया से इन्टरैक्ट करते समय उनकी भाषा में धमकी वाला पुट भी होता. पर यहां तारीफ़ करनी होगी अमेरिका की मेनस्ट्रीम मीडिया की, जिन्होंने अपने देश ही नहीं, दुनिया के सबसे ताक़तवर इंसान के सामने तनकर खड़े होने का हौसला दिखाया.
राष्ट्रपति पद के दूसरे कार्यकाल के लिए हुए चुनाव में ट्रम्प की हार ने इस बात की पुष्टि तो कर ही दी कि अमेरिका के लोग राष्ट्रवाद के खोखले नारों से संतुष्ट नहीं होनेवाले हैं. चुनावों से पहले कोरोना महामारी को जिस बुरी तरह से ट्रम्प प्रशासन ने हैंडल किया था, उससे भी लोग ख़ुश नहीं थे. अर्थव्यवस्था का दरकना, सत्ता में रहे राष्ट्रपति की अक्षमताओं का प्रतीक था, जिसे न तो मीडिया ने लोगों को बताने से गुरेज किया और न ही लोगों ने समझने में. ट्रम्प के जोशीले भाषणों के बावजूद उनकी हार अमेरिकी लोकतंत्र की मैच्योरिटी को बयां करती है. पर अमेरिका का लोकतंत्र मैच्योर ही नहीं, मज़बूत भी है यह पता चलता है ट्रम्प की हार के बाद घटित हुई तमाम घटनाओं को जोड़कर देखने पर. मतगणना के दौरान पिछड़ने पर ट्रम्प ने हार मानने से इनकार ही नहीं किया, बल्कि मतगणना में गडबड़ी का आरोप लगाते हुए अपनी जीत के दावे भी करते रहे. कई न्यूज़ चैनलों ने ट्रम्प के लाइव प्रसारण को यह कहकर रोक दिया कि राष्ट्रपति झूठ बोल रहे हैं. ट्विटर ने अनवैरिफ़ाइड या फ़ेक न्यूज़ को चिन्हित करनेवाली अपनी नई सेवा के तहत राष्ट्रपति ट्रम्प के कई ट्वीट्स के फ़ेक होने की आशंका जताते हुए चिन्हित किया. आगे चलकर ट्विटर ने ट्रम्प के ट्विटर अकाउंट को टेम्प्रेरी और फिर अमेरिकी संसद पर ट्रम्प समर्थकों द्वारा किए गए हमले के बाद पर्मानेंट बैन कर दिया. आप ही सोचिए, जो ट्विटर हमारे देश में भड़काऊ बयान देनेवाले, दंगों के लिए उकसानेवाले छोटे-मोटे नेताओं तक को बैन करने की हिम्मत नहीं कर पाता, एक देश के राष्ट्रपति के अकाउंट को आजीवन सस्पेंड करने का जिगरा रखता है. यह ट्विटर का जिगरा नहीं, वहां के लोकतंत्र, मीडिया की मज़बूती का जीता जागता उदाहरण है.
ट्रम्प द्वारा हार न मानने और राष्ट्रपति पद न छोड़ने की ज़िद ने उनके समर्थकों की उम्मीदों को ज़िंदा रखा, जिसकी परिणीति थी उनका संसद परिसर में घुसना, गोलीबारी करना और तख़्तापलट की नाकाम कोशिश. कैपिटल बिल्डिंग में ट्रम्प समर्थकों के उत्पात को जब तक दुनिया समझ पाती, पूरे देश में उसका विरोध शुरू हो गया. ट्रम्प के ख़िलाफ़ अपने समर्थकों को उकसाने के आरोप में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया. यह प्रस्ताव 197 के मुक़ाबले 232 वोटों से पारित भी हो गया. इसकी बड़ी बात यह रही कि ख़ुद उनकी पार्टी (रिपब्लिक पार्टी) के 10 सांसदों ने इसका समर्थन किया. वे अमेरिकी इतिहास में पहले ऐसे राष्ट्रपति बन चुके हैं, जिनके ख़िलाफ़ दो बार महाभियोग प्रस्ताव पारित हो चुका है.
अब ज़रा सोचिए, अगर लोकतांत्रिक भारत में ऐसी कोई स्थिति बनती तो हमारे ख़बरिया चैनलों का क्या स्टैंड होता? जहां, नेताओं की ग़लतबयानी को झूठ कहना तो दूर, हमारे चैनल उनकी तरफ़दारी करने जुट जाते हैं, झूठी बातों को सही साबित करने के लिए अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं. कई राज्यों में प्रचलित हो चुकी विधायकों की तोड़फोड़ से सरकार बनाने की परंपरा को नेताओं की चाणक्य नीति कहकर महिमामंडित करते हैं. अर्थव्यवस्था हो, मौजूदा किसान आंदोलन या क़ानून व्यवस्था उसकी बदहाली के लिए सरकार से सवाल पूछने के बजाय विपक्ष को कठघरे में खड़ा कर देते हैं. क्या हम अमेरिकी लोकतंत्र जैसे सशक्त हैं? ट्रम्प के आगमन के बाद से ही जिस तरह अमेरिका और उसका लोकतंत्र मज़ाक का केंद्र बना हुआ था, ट्रम्प के प्रस्थान की कहानी के लिखने के साथ-साथ बेहद मैच्योर और मज़बूत दिखाई देने लगा है. काश, हमारी मीडिया भी नेताओं के बचकानेपने को अमेरिकी मीडिया की तरह ही उजागर करती, हम भी हर बीतते साल के साथ मज़बूत लोकतंत्र बनते जाते, बजाए नए, विशाल और भव्य संसद भवन वाले लोकतंत्र के!

प्रमोद कुमार

प्रमोद कुमार

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