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Home ज़ायका

दाल बाटी और चूरमा के खोज की कहानी

कनुप्रिया गुप्ता by कनुप्रिया गुप्ता
March 5, 2021
in ज़ायका, फ़ूड प्लस
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दाल बाटी और चूरमा के खोज की कहानी
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आज हम घूमेंगे राजस्थान की रेत में और मालवा की गलियों में भी, वो भी एकसाथ. क्योंकि हम बात करेंगे ऐसे व्यंजन की जो दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से पसंद किया जाता है. दोनों ही जगह बस, ज़रा से वेरिएशंस के साथ बनाया जाता है और अलग-अलग व्यंजनों के साथ खाया जाता है. लेकिन इसके चाहने वाले मालवा में भी उतने ही हैं, जितने कि राजस्थान में. तो आज हम बात करेंगे दाल बाटी की और दाल बाफले की भी. और इनके साथ चूरमे की बात न की तो बात पूरी होगी कैसे?

दाल बाटी मालवा और राजस्थान का ऐसा भोजन है जिसके चाहने वाले दुनियाभर में हैं और यक़ीन मानिए कि इनका नशा ग़ज़ब का होता है! यूं तो आप दाल बाटी/बाफले की कसमें खाकर भी सो सकते हैं, लेकिन दाल और घी से तर बाटी और साथ में चूरमा खाकर तो गहरी नींद सोना पक्का ही समझिए.

दाल बाटी की बातें हो रही हैं तो एक बड़ा मज़ेदार क़िस्सा सुनाती हूं. मैं कॉलेज में रही होउंगी, जब हमारे यहां एक किरएदार रहने आए, जो साइंटिस्ट थे. थोड़े दिनों बाद वे शादी करने के लिए घर गए और अपनी दुल्हनिया लेकर वापस लौटे. उन्हें जीमने के लिए आमंत्रण दिया गया और घर पर बनाए गए दाल बाफले. अब उन्होंने इससे पहले कभी दाल बाफले खाए नहीं थे तो उन्होंने पूछा कि इसे खाते कैसे हैं? जब उन्हें तरीक़ा बता दिया गया तो भी उन्होंने हाथ से खाने की जगह चम्मच से दाल बाफले खाए. और भर पेट खाए. खाना शायद उन्हें अच्छा ही लगा होगा. अब वो लंच करके जो हमारे घर से गए तो नींद आ गई. रात पड़े उठे होंगे तो ख़ूब पानी पिया और फिर सो गए. अगले दिन जब वो पापा से मिले तो हंसते हुए बोले,‘‘ये तो बम के गोले थे, ऐसी नींद आई कि क्या बताऊं. ऐसा गरिष्ट भोजन… अच्छे-अच्छे लोग सो जाएं इसे खाकर तो.’’ उनकी बात सुनकर हम लोग भी ख़ूब हंसे. क्योंकि बात तो एकदम सही है. हमारे यहां कहा जाता है- बाफले खाकर गन्नाती (नींद के झोंके वाली) नींद नहीं आई तो मतलब पेट भरकर खाया ही नहीं. लोग सिर्फ़ कहते ही नहीं, मानते भी हैं कि सप्ताह में एक दिन दाल बाटी खा ली तो शरीर के आधे विकार ग़ायब हो जाते हैं.

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मालवा में उज्जैन, इंदौर, रतलाम, मंदसौर, मंडलेश्वर और नीमच ज़िलों में दाल बाफले/बाटी खाने का प्रचलन है. जबकि राजस्थान तो पूरा ही है दाल-बाटी वाला. मालवा में जहां इसे चूरमा लड्डू, हरी धनिया-मिर्च की चटनी, कढ़ी और कच्चे प्याज़ के सलाद के साथ परोसा जाता है, वहीं राजस्थान में इसके साथ चूरमा, कढ़ी, सलाद, बेसन के गट्टे की सब्ज़ी परोसा जाता है. आजकल इसके साथ खाए जाने वाले स्टेपल्स बढ़ते जा रहे हैं, पर परंपरागत रूप से दाल बाटी, ढेर सारे घी और चूरमा के साथ खाई जाती थी. बाक़ी प्याज़ का तो ऐसा ही मालवा और राजस्थान के लोगों का खाना पूरा ही नहीं होता कच्चे प्याज़ के बिना, तो आप इसे हर जगह मौजूद ही समझिए.

दाल बाटी का इतिहास
दाल बाटी के इतिहास के लिखित दस्तावेज़ तो नहीं हैं, पर जो कहानियां उपलब्ध हैं, वो उड़ती-उड़ती यही कहती हैं कि मेवाड़ के राजा भप्पा रावल के सिपाही जब युद्ध के लिए जाते तो खाने की बड़ी समस्या होती. एक तो राजस्थान जहां, पानी की कमी और ऊपर से इतने सारे सिपाहियों के लिए ऐसा खाना चाहिए, जो जल्दी बन भी जाए और सब का पेट भी भर जाए. तो सिपाहियों ने एक उपाय निकाला. वे दरदरी पिसे आटे में ऊंटनी का दूध मिलाकर आटा गूंधकर गोले बना लेते थे और तपती रेत में दबा कर युद्ध लड़ने चले जाते थे. शाम तक जब वो वापस लौटते तो गर्म रेत के कारण ये गोले पक जाते थे, जिसे ढेर सारे घी और ऊंटनी के दूध के साथ ये सिपाही खा लेते थे. दाल तो इन बाटियों के साथ बाद में जुड़ी. कुछ लोग इसे राजस्थान में रहने वाली एक आदिवासी प्रजाति की खोज भी बताते हैं.

अब आप पूछेंगे कि ये बाटी और बाफले एक ही हैं या अलग-अलग/ तो जनाब ये दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं. हालांकि दिखने में एक सी ही दिखती हैं, पर स्वाद में भी अंतर है और बनाने के तरीक़े में भी. बाफले के आटे में अजवाइन या सौंफ डाला जाता है, मोयन भी अलग डलता है और फिर बाफलों को सेकने से पहले हल्दी वाले पानी में उबाला जाता है. बाफले मुग़लों के आने के बाद चलन में आए. उनके ख़ानसामों ने ही बाफले बनाने शुरू किए. ये बाटियों से भी नर्म होते हैं. पारंपरिक रूप से बाटी और बाफले दोनों ही कंडों/उपलों को जलाकर उसमें सेके जाते हैं, पर अब बाटी के लिए घरों में तंदूर का प्रयोग भी आमतौर पर होता है.

चूरमा की कहानी
चूरमा की कहानी भी बड़ी मज़ेदार है. ऐसा कहते हैं कि एक बार ग़लती से एक रसोइए से बाटियों पर गन्ने का रस गिर गया और जब लोगों ने उसे खाया तो यह महसूस हुआ कि वो मिठास बड़ी अच्छी लग रही है और ये बाटियां नरम भी हो गई थीं. बस फिर क्या था? महिलाओं ने अपने घरों में भी बाटियों को मसलकर घी, गुड़/गन्ने का रस/शक्कर मिलाना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे चूरमा भी दाल बाटी के साथ खाया जाने लगा.

दाल का क़िस्सा
पारंपरिक रूप से बाटी के साथ पंचमेल दाल खाई जाती है (यानि पांच तरह की दालों को मिलाकर बनाई जाने वाली दाल). पर आजकल तुअर या उड़द की दाल भी बाटी या बाफलों के साथ बनाई जाती है. ये दाल तड़के वाली होती है और घी में खड़ी लाल मिर्च, हींग के साथ बघारी जाती है.

तो आप भी बनाइए, खाइए, खिलाइए दाल बाटी चूरमा और बताइए कि आपको कैसा लगता है इसका स्वाद. और हां, बाटियों के साथ घी खाने में कंजूसी बिल्कुल भी मत करिएगा. दाल बाटी या दाल बाफले से जुड़े अपने क़िस्से हमारे साथ शेयर कीजिएगा इस ईमेल आईडी पर: [email protected]

फ़ोटो: इन्स्टाग्राम

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कनुप्रिया गुप्ता

कनुप्रिया गुप्ता

ऐड्वर्टाइज़िंग में मास्टर्स और बैंकिंग में पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा लेने वाली कनुप्रिया बतौर पीआर मैनेजर, मार्केटिंग और डिजिटल मीडिया (सोशल मीडिया मैनेजमेंट) काम कर चुकी हैं. उन्होंने विज्ञापन एजेंसी में कॉपी राइटिंग भी की है और बैंकिंग सेक्टर में भी काम कर चुकी हैं. उनके कई आर्टिकल्स व कविताएं कई नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं. फ़िलहाल वे एक होमस्कूलर बेटे की मां हैं और पैरेंटिंग पर लिखती हैं. इन दिनों खानपान पर लिखी उनकी फ़ेसबुक पोस्ट्स बहुत पसंद की जा रही हैं. Email: [email protected]

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