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खोल दो बंद दरवाज़े: जयंती रंगनाथन की कहानी

जयंती रंगनाथन by जयंती रंगनाथन
August 5, 2021
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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खोल दो बंद दरवाज़े: जयंती रंगनाथन की कहानी
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अपने आसपास घट रही कई बातों से व्यथित थी मंदिरा. आख़िर हम किस-किस चीज़ को बाज़ार में तब्दील करेंगे? चीज़ें पहले जैसी क्यों नहीं हैं? लोग बदल क्यों रहे हैं? लेकिन थोड़ी-सी, छोटी-सी कोशिश और उसके बदले हुए नज़रिए ने आख़िर उसके मन को भी बदल दिया और कुछ ख़बरों को भी… आख़िर बदलाव तो दरवाज़े खुले रखने से ही आता है, है ना?

जब से सामने पड़ी ख़ाली ज़मीन पर खुदाई का काम शुरू हुआ, मंदिरा का बड़बड़ाना कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया. बेडरूम की बालकनी घर का वह कोना हुआ करता था, जहां वह दिन का अधिकांश समय गुज़ारा करती थी. अब आलम ये कि दरवाज़ा खोलना भी मुश्क़िल है. हर समय कमरे में धूल-धक्कड़. ऐसा लग रहा था मानो, किसी ने उसका गला ही घोंट कर रख दिया हो. सुबह दस बजे की चाय, नाश्ता, अख़बार पढ़ना और फिर फ़ुरसत से गमलों को पानी देना, कपड़े सुखाना, शाम की चाय और रात को भी कई बार गर्म दूध या कहवा की चुस्कियां लेते हुए सड़क पार गाड़ियों को आते-जाते तकना उसका प्रिय शगल था. पूरे घर में बालकनी उसकी अपनी ज़मीं थी और बालकनी में बिताया वक़्त उसका अपना वक़्त.
अब सब कुछ जैसे ख़त्म. देखते-देखते वहां ईंट-गारे का काम शुरू हो गया. इमारत बनने लगी. जब देखो, मज़दूरों, मशीनों का शोर. मंदिरा को इतनी कोफ़्त इस घर में आने के बाद पहली बार हुई. गमले में रखे पौधे सूख गए. बालकनी पर पड़ी कुर्सी पर धूल की मोटी परत जमने लगी. कपड़े धो कर कहां सुखाएं, ये भी एक किल्लत.

किससे कहे ये सब? पति समीर तो जैसे ही उसका बड़बड़ाना चालू होता है, मुंह बनाकर कमरे से ही बाहर निकल जाते हैं. मंदिरा की बातें उनकी समझ नहीं आतीं,’‘एक बालकनी ही तो नहीं खोल पातीं तुम? पूरा घर तो तुम्हारा है?’’
बेटा आयुष है ग्यारह साल का. उसकी तो दुनिया ही अलग है. पिछले साल तक वह फिर भी स्कूल से आने के बाद मंदिरा से आधा घंटे गपशप कर लिया करता था. राशन-सब्ज़ी वगैरह लाने उसके साथ चल पड़ता था. पर अब कंप्यूटर और दोस्तों को छोड़ कर उसके पास किसी के लिए फ़ुर्सत नहीं. ऊपर से ग़ुस्सा भी जल्दी आने लगा है… या शायद मंदिरा ही कुछ ज्यादा डांटने लगी है उसे.

लेकिन आज शाम को ट्यूशन से वापस आया तो ख़ुद ब ख़ुद किचन में झांक कहने लगा,‘‘मॉम, आपको पता है, सामने क्या बन रहा है? शॉपिंग मॉल!’’
मंदिरा के चेहरे पर कोई भाव ना पा कर उसने कुछ ज़ोर-से कहा,‘‘शॉपिंग मॉल मम्मा. हमारे घर के बिलकुल सामने मॉल. कितना मज़ा आएगा ना?’’
मंदिरा ने घूरकर देखा,‘‘क्या मजा आएगा आयुष? वहीं घुसे रहोगे क्या?’’
आयुष ने उसकी तरफ़ ऐसे देखा, मानो वह कोई अजूबा हो. किसी भी बात पर ख़ुश नहीं होती मां. बस, अपने कंधे उचकाकर वह चलता बना.

शॉपिंग मॉल… मंदिरा जितना सोचती, उतना बौखला जाती. रिहाइशी बिल्डिंग्स के बीचोंबीच मॉल? क्या तुक है? अच्छी-भली ख़ाली ज़मीन थी. कुछ पेड़ थे. बच्चे खेल-खाल लेते थे. अच्छी खुली हवा भी आती थी. पर उसके ग़ुस्सा होने से भला क्या होना था?

समीर टूर पर थे. लौट कर आए तो मंदिरा ने उन्हें मॉल वाली बात बताई. समीर ने जरा उत्साह से कह दिया,‘‘अच्छा! मॉल बन रहा है? चलो सही रहेगा. रौनक रहेगी.’’
‘‘रौनक? गाड़ियों की भीड़ नहीं? इन दिनों ही सड़क पार करना कितना मुश्क़िल होता जा रहा है. अब मॉल के आने के बाद तो पता नहीं क्या होगा?’’

अपनी बॉलकनी के खोने के दुख से ज़्यादा मंदिरा अब मॉल के बनने से द्रवित रहने लगी. बिल्डिंग में रहनेवाली अड़ोस-पड़ोस की महिलाएं ख़ुश थीं, उन्हें लग रहा था कि शॉपिंग मॉल के आने से उनके फ़्लैट की क़ीमत बढ़ जाएगी. बोर हो रहे हैं, बिजली गुल है तो मॉल जा कर घूम आओ.

अजीब किस्म की कुंठा थी उसे. किससे जा कर सवाल करती कि यहां मॉल क्यों? समीर ने एक दिन सलाह दी,‘‘तुम इस मॉल के चक्कर में कुछ ज़्यादा नहीं उलझ रहीं?’’
मंदिरा बुदबुदाई,‘‘क्या करूं, ख़ाली हूं ना. तुम लोगों की तरह बिज़ी होती तो शायद…’’
‘‘किसने रोका है? कर लो ना काम. वैसे भी डॉक्टर भूषण का क्लीनिक अब अस्पताल बन गया है. तुमने सालों तक काम किया है उनके साथ, पता करो.’‘

समीर ने जैसे उसे ताले की चाबी दे दी. कल तक लगता था कि इस उम्र में फिर से नौकरी, सुबह की भागदौड़ उससे नहीं होगा. अब लग रहा है कि नौकरी से कई समस्याएं सुलझ सकती हैं. बालकनी वाली भी. अगले ही दिन वह डॉक्टर भूषण से मिलने गई. दस साल काम किया है उसने. उनका पैथोलॉजी लैब वही संभालती थी. डॉक्टर ने फौरन उसे काम पर रख लिया.

घर और नौकरी संभालना आसान नहीं था, पर मुश्क़िल भी नहीं था. और कुछ सोचने-समझने की फ़ुर्सत ही नहीं थी. सुबह दस बजे निकलती तो शाम आठ बजे घर पहुंचती. आते-जाते बस घर के सामने बन रही इमारत पर नज़र पड़ जाती. इमारत तेज़ी से बन रही थी. मैदान के पास मज़दूरों ने रहने के लिए झोंपड़ियां बना ली थीं. मंदिरा जब रात घर के सामने बस से उतरती तो मज़दूरों को चूल्हे पर खाना बनाता पाती. औरतें मोटी-मोटी रोटियां थापतीं और मर्द सामने खटिया पर लेटे बीड़ी पी रहे होते. बच्चे ख़ाली बर्तनों को खड़खड़ाते हुए इधर-उधर दौड़ते मिलते. बच्चों ने सड़क के कूड़ेदान पर पड़े लावारिस कुत्ते के पिल्ले पाल लिए थे. वे बच्चों के पीछे कूं-कूं करके घूमते. आगे-पीछे दौड़ते हुए सड़क पर भी आ जाते पिल्ले, फिर बच्चे उठाकर उन्हें झोंपड़ी के अंदर ले जाते.

चूल्हे से उठता धुआं, हाथ से रोटियां थापती औरतें, ये सब अंदर तक पिघला देता था मंदिरा को. अब वह धूल-धक्कड़ की बातें कम करती थी. घर लौट कर देर तक चूल्हे की आंच की तपिश में खोई रहती.
समीर और आयुष भी शायद ख़ुश थे कि मंदिरा अब पहले की तरह हर बात पर झगड़ा नहीं करती.

लेकिन एक दूसरी लड़ाई चलने लगी थी मंदिरा के अंदर. अस्पताल में डॉक्टर भूषण ने मरीज़ों को देखने की फ़ीस दोगुनी कर दी थी. मरीज़ों के साथ अब पहले वाला अपनेपन का व्यवहार नहीं होता था. अस्पताल में काम करनेवाले सभी तकनीशियों को हिदायत थी कि जो भी मरीज़ आए, उससे कम से कम चार पैथोलॉजी टेस्ट करवाएं. जिन केसों में अल्ट्रासाउंड और ईसीजी की ज़रूरत नहीं होती, वहां भी करवाने का निर्देश दिया जाता. मंदिरा चकित थी. मरीज़ों से अब प्रोफ़ेशनल व्यवहार होता था. अपॉइंटमेंट लो, फ़ीस दो, कार्ड बनवाओ, फिर इलाज करवाओ. मंदिरा सोचती कि वह इन सब बातों पर ध्यान नहीं देगी. पर अंतत: ध्यान वहीं जाता. डॉक्टर भूषण अब पहले की तरह सबसे बात नहीं करते थे. वे अस्पताल के डीन थे और सिर्फ़ गिने-चुने डॉक्टरों से बात करते. बाक़ी का काम अस्पताल का सीईओ निपटाता. अपना काम करते हुए भी अब उसे लगने लगा कि यहां भी बालकनी का दरवाज़ा बंद हो गया है. ताज़ा हवा आने का कोई रास्ता नहीं, बल्कि यहां तो घुटन और ज़्यादा है.

मंदिरा का मन अस्पताल जाने में कम लगने लगा. लेकिन इस समय नौकरी छोड़ने का कोई विकल्प नहीं था. अस्पताल में अपनी तरफ़ से वह कोशिश करती कि मरीजों को लाइन में ज़्यादा देर तक ना खड़ा रहना पड़े. वह ख़ुद उन्हें अनावश्यक टेस्ट लिख कर ना दे. इतने समय तक उसने क्लीनिक में काम किया था, पर उसे कभी यह नहीं लगा था कि बीमारियों का इलाज इतना दुरूह भी हो सकता है.
रोज़ वह किसी ना किसी ऐसे मरीज़ से मिलती, जिसके पास कहने के लिए एक कहानी होती. तीन दिनों तक लगातार वह महाराष्ट्र की टीचर रोज़ी से मिली, चौथे दिन अपने पास बिठाकर उसे कॉफ़ी पिला दी.

रोज़ी अपने बेटे के इलाज के लिए आई थी. वह तलाक़शुदा थी. छोटी-सी कमाई और ख़र्चे बड़े-बड़े. बेटा जिस बस से स्कूल जा रहा था, उसका एक्सीडेंट हो गया. ड्राइवर इतनी तेज़ी से गाड़ी चला रहा था कि दस साल के लड़के ने स्कूल के सामने उतरने के चक्कर में संतुलन खो दिया और ज़बरदस्त घायल हो गया. मंदिरा भी दिन में एक-दो बार उसके साथ बेटे को देख आती. उसका बायां हाथ पूरी तरह कट गया था. प्लास्टिक सर्जरी होनी थी. पर रोज़ी की शिकायत थी कि अस्पताल में डॉक्टर बहुत समय लगा रहे हैं. आख़िरकार रोज़ी को अपने बेटे की प्लास्टिक सर्जरी करवाए बिना ही अस्पताल छोड़ना पड़ा.

मंदिरा का दिल अब बैठने लगा था. जहां देखो, वहीं बाज़ार. इस बाज़ार में जो ख़रीदार बनना नहीं चाहता, उसके लिए कोई राह ही नहीं.

इस बीच उसे एक दिन डॉक्टर भूषण से मिलने का मौक़ा मिला तो उसने रोज़ी के बेटे के बारे में बात की. डॉक्टर ने उसका चेहरा देखा फिर रुक कर बोले,‘‘मैडम, आपको मैंने शायद कभी बताया नहीं कि ये अस्पताल बनाने के लिए मैंने कितने पापड़ बेले हैं. ऐसे-ऐसे नेताओं के पास जाना पड़ा, जिन्हें शायद मैं कभी अपने घर क्या, दफ़्तर बुलाना भी पसंद नहीं करता. मेरा सपना था, एक अस्पताल खोलना. पर यह भी दूसरों की नज़रों में एक बिज़नेस है. मैं भी मानता हूं कि हमें भी बिज़नेसमैन की तरह सोचना पड़ता है. पर आप जिस बच्चे की बात कर रही हैं, उसे मेरे पास ले कर आइए. मैं कोशिश करूंगा कि कम से कम क़ीमत में उसका इलाज हो जाए.’’

मंदिरा की आंखों की कोर में आंसू की एक बूंद ठहर गई. रोज़ी के लिए वाकई यह बड़ी बात होगी. उस दिन अस्पताल से निकली, तो मन हल्का-हल्का था. अब ग़ुस्सा कम आ रहा था.
घर के बाहर बस स्टॉप से उतरी तो नई बन रही बिल्डिंग के नीचे मज़दूरों को मजमा जमा कर गाते-बजाते देख दिल को तसल्ली-सी पहुंचने लगी. एक मज़दूर ऊंची आवाज़ में बेसुरा गा रहा था और दूसरे ताली बजाते हुए उसका साथ दे रहे थे. साथ में औरतों की हंसी. कितना सहज लग रहा था सबकुछ.

मंदिरा ने सोचा कि बस कुछ दिनों की बात है. फिर ये मज़दूर निकल पड़ेंगे कहीं और अपना डेरा जमाने. घर पहुंची, चाय का पानी चढ़ाया और पता नहीं क्या हुआ, कई दिनों से बॉलकनी का बंद दरवाज़ा खोल दिया. हवा का एक झोंका आया… जैसे कह रहा हो कि इतने दिनों तक कहां थी तुम? हाथ में डस्टर ले कर मंदिरा ने धूल झाड़ी और कुर्सी बॉलकनी में डालकर चाय का कप वहीं ले आई. अब भी मजदूरों की मौजमस्ती की आवाज़ आ रही थी और उनके चूल्हे से उठता धुआं माहौल में अजीब-सी गंध भर रहा था.

आयुष ट्यूशन से लौट कर सीधे उसके पास आया,’‘ओ मम्मा, खाने में क्या है, बड़ी ज़बरदस्त भूख लगी है.’’
मंदिरा उठ कर उसे खाना निकाल कर देने गई. आयुष ने अपने लिए ग्लास में पानी भरते हुए कहा,‘‘पता है मॉम, अपने सामने जो बिल्डिंग बन रही है, वहां मॉल नहीं, एक अस्पताल बन रहा है. अब तो आप ख़ुश हैं ना?’’
मंदिरा मुस्कराई. उसने बालकनी का दरवाज़ा खोल हवा को अंदर आने की इजाज़त दे दी है. इससे ज़्यादा और क्या होगा?

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वरिष्ठ पत्रकार जयंती रंगनाथन ने धर्मयुग, सोनी एंटरटेन्मेंट टेलीविज़न, वनिता और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में काम किया है. पिछले दस वर्षों से वे दैनिक हिंदुस्तान में एग्ज़ेक्यूटिव एडिटर हैं. उनके पांच उपन्यास और तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. देश का पहला फ़ेसबुक उपन्यास भी उनकी संकल्पना थी और यह उनके संपादन में छपा. बच्चों पर लिखी उनकी 100 से अधिक कहानियां रेडियो, टीवी, पत्रिकाओं और ऑडियोबुक के रूप में प्रकाशित-प्रसारित हो चुकी हैं.

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