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Home ओए हीरो

नानी की ज़ुबानी मातृत्व की तीन पीढ़ियों की कहानी: मदर्स डे स्पेशल

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
May 9, 2021
in ओए हीरो, मेरी डायरी
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नानी की ज़ुबानी मातृत्व की तीन पीढ़ियों की कहानी: मदर्स डे स्पेशल
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जैसे-जैसे समय बदलता है हर चीज़ बदलती है. मातृत्व और उसका अनुभव भी समय के साथ थोड़ा-थोड़ा बदल जाता है. इस मदर्स डे पर नीलम शर्मा बता रही हैं कि उन्होंने मातृत्व के इस बदलाव को कैसे अनुभूत किया, जब वे एक बेटी थीं, ख़ुद मां बनीं और अब अपनी बेटी को एक बिटिया की मां बनते देखा. उनकी डायरी के पन्ने पढ़कर आपको भी अनुभव होगा कि पीढ़ी दर पीढ़ी कैसे बदलती गई मां की भूमिका.

‘‘आज सोचने बैठी हूं तो मुझे एहसास हो रहा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी मां और बच्चों के रिश्तों में कितना बदलाव आ गया है. हमारी मां, हमारी नानी से या उनके बारे में ऐसे बात करती थीं कि जैसे वो कोई रिश्तेदार हों. उनके लिए अपनी मौसी, ताई, चाची, बुआ और मां सभी एकसमान थे. जब मैं बड़ी हो रही थी तो मुझे लगता था कि मेरी मां बहुत स्ट्रिक्ट हैं. हर घरेलू काम हमें यह कहते हुए सिखाती थीं कि पराए घर जाओगी तो वहां मेरी बदनामी कराओगी. वे बोलचाल का सलीका और रिश्तों की मर्यादा सब समझाती थीं. खाना बनाना, सिलाई, बुनाई ,कढ़ाई, घर की साफ़-सफ़ाई, नाचना-गाना हमें सब सीखना था, पराए घर के लिए. और हम ये सब करते थे, क्योंकि मुझे लगता था कि वे सही कह रही हैं. हमारी क्या मज़ाल कि हम कॉलेज के किसी लड़के का नाम भी घर पर बोल दें! उनकी शक्की निगाहें तुरंत हमें क्रॉस क्वेश्चन करती थीं. शादी के बाद न तो हम उनसे अपनी कोई समस्या बताते थे और ना ही वे ख़ुद पूछती थीं.

‘‘फिर जब मेरे बच्चे हुए, मैंने हमेशा उन्हें दोस्त की तरह ही माना. आज भी वही रिश्ता है. मेरी बेटी अंकिता, बेटे विशाल और विकास ही मेरे सबसे अच्छे मित्र हैं. लेकिन फिर भी हमारे बीच मर्यादा बनी रहती है. इमोशनल लेवल पर हम एक-दूसरे के बहुत बडे़ सपोर्टर हैं. लेकिन मैं उनकी व्यक्तिगत बातों में कोई दख़ल नहीं देती हूं. जब बच्चे छोटे थे तब भी और आज भी मेरा चेहरा देखकर वे मेरा दुख-दर्द भांप लेते हैं और मेरी मदद करते हैं. मैंने बेटी को भी पुराने संस्कारों के साथ पाला है. हर घरेलू काम और परिवार की ज़िम्मेदारी शौक़ से उठाने की प्रेरणा दी है. मेरे बच्चे जब मुझे अपनी समस्याएं बताते हैं तो मैं उनका समाधान करने की पूरी कोशिश करती हूं.

‘‘अब जब मेरे बच्चों के बच्चे बड़े हो रहे हैं. ख़ासतौर पर मेरी नातिन तो मैं देखती हूं कि बच्चों के पालन-पोषण के तरीक़े में बहुत अंतर हो गया है. अब बच्चों को घरेलू तौर-तरीक़े और काम सिखाने पर कोई ज़्यादा महत्व नहीं दिया जाता है. सिर्फ़ उनकी पढ़ाई, हॉबीज़ और फ़िज़िकल ऐक्टिविटीज़ पर काफ़ी ध्यान दिया जाता है. जो हमारे समय में रिश्ते के भाई-बहन होते थे, वे अब कज़न बन गए हैं और उनका आपस में बहुत कम सम्पर्क रहता है. एकल परिवार होने की वजह से मां का रोल बहुत बढ़ गया है. मां का अपना करियर, बच्चों का करियर और घर-गृहस्थी का सारा काम अब अकेले मां को ही करना पड़ता है. मैंने अनुभव किया है कि ऐसे सांचों में ढलकर बच्चे रिश्तों का प्यार और गरमाहट नहीं समझ पा रहे हैं. रिश्तों का दायरा छोटा और कॉम्पिटिटिव हो गया है. जो चाची, ताई, मौसी, बुआ, मामी सभी बच्चों की मां होती थीं, वो कॉन्सेप्ट अब नहीं रह गया है. बस अब तो अपनी मां ही मां रह गई है. और वो भी मदर्स डे के दिन ही जताया जाता है कि मां आई लव यू. मुझे लगता है कि हमारी पीढ़ी इस बात को बिना कहे ही प्यार का एहसास दिला देती थी.’’

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हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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