इन दिनों देश में हिंदू और मुस्लिम नागरिकों के बीच एक अनकही-सी दीवार खींची जा रही है. जिसका मक़सद केवल वोट पाना है, लेकिन गांधी का यह देश वैमनस्यता की इन कोशिशों को कामयाब नहीं होने देगा. यही अरमान दिल में लेकर ओए अफ़लातून अपनी नई पहल के साथ हाज़िर है, जिसका नाम है- देश का सितारा. जहां हम आपको अपने देश के उन मुस्लिम नागरिकों से मिलवाएंगे, जिन्होंने हिंदुस्तान का नाम रौशन किया और क्या ख़ूब रौशन किया. इसकी तीसरी कड़ी में आप जानिए नौशेरा के शेर ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को.
ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को “नौशेरा का शेर” के नाम से जाना जाता है. वे भारतीय सेना के एक महान सैनिक और वर्ष 1947-48 के भारत-पाक युद्ध के नायक थे. उन्हें मरणोपरांत भारत का दूसरा सर्वोच्च सैन्य सम्मान, महावीर चक्र, प्रदान किया गया.
भारत के विभाजन के समय, मोहम्मद अली जिन्ना ने उन्हें पाकिस्तानी सेना में उच्च पद देने की पेशकश करते हुए पाकिस्तान आर्मी में शामिल होने को कहा था, लेकिन उस्मान ने इस प्रस्ताव को नकार दिया था. उन्होंने भारत के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखते हुए भारतीय सेना में ही रहने का फ़ैसला किया था.
जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि
ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान का जन्म 15 जुलाई 1912 को उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के बीबीपुर गांव में हुआ था. उनके पिता मोहम्मद फारूक खुनामबीर एक पुलिस अधिकारी थे और उनकी माता का नाम जमीउन बीबी था. उनके बारे में बताया जाता है कि महज़ 12 साल की उम्र में उन्होंने एक डूबते बच्चे को बचाने के लिए कुएं में छलांग लगाई थी, जिससे उनकी बहादुरी का पता चलता है.
उस्मान ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी के हरीशचंद्र हाई स्कूल में प्राप्त की थी. उन्होंने 1932 में रॉयल मिलिट्री अकादमी, सैंडहर्स्ट (Royal Military Academy, Sandhurst) में प्रवेश लिया था. वर्ष 1934 में उन्होंने कमीशन प्राप्त किया. उस समय, वह केवल 22 वर्ष के थे और भारतीय सैन्य सेवा में शामिल होने वाले पहले मुस्लिम अधिकारियों में से एक थे. उनकी प्रारंभिक सेवा बलूच रेजिमेंट में थी, जो ब्रिटिश भारतीय सेना की एक प्रतिष्ठित इकाई थी.
सेना में उनका उत्कृष्ट प्रदर्शन
उस्मान ने सैंडहर्स्ट में अपने प्रशिक्षण के दौरान असाधारण प्रदर्शन किया. उनकी नेतृत्व क्षमता, रणनीतिक सोच और अनुशासन के चलते उन्होंने जल्दी ही अपने वरिष्ठ अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया.
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान, मोहम्मद उस्मान ने बर्मा अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनकी वीरता और रणनीतिक कौशल ने उन्हें सेना के पदों पर तेज़ी से तरक़्क़ी दिलाई. अमूमन ब्रिगेडियर के पद पर पहुंचने वाले अधिकारियों की उम्र 40-45 वर्ष तक होती है, लेकिन उस्मान महज़ 35 वर्ष की उम्र में इस पद पर पहुंच गए थे.
वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता और विभाजन के समय, भारतीय सेना में अधिकारियों की कमी थी, क्योंकि कई ब्रिटिश अधिकारी भारत छोड़कर चले गए और कुछ भारतीय अधिकारी पाकिस्तान की सेना में शामिल हो गए. मोहम्मद उस्मान को भी पाकिस्तान की ओर से तरक़्क़ी के साथ पाकिस्तानी सेना में शामिल होने का न्यौता मिला था, लेकिन उन्होंने भारत के साथ रहने का फ़ैसला किया, जो उनके देशभक्ति और निष्ठा का प्रतीक था.
जब कहलाए ‘नौशेरा का शेर’
भारत के विभाजन के बाद, दिसंबर 1947 से फ़रवरी 1948 के बीच पाकिस्तान ने कबायली हमलावरों और अपनी सेना के समर्थन से जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण कर दिया था. नौशेरा और झांगर जैसे क्षेत्रों पर कब्जा करने की उनकी कोशिश थी, जो भारतीय सेना के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण थे. नौशेरा रणनीतिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह श्रीनगर और मीरपुर को जोड़ने वाली सड़कों का केंद्र था.
दिसंबर 1947 में, पाकिस्तानी कबायलियों और सैनिकों ने नौशेरा और झांगर पर बड़े पैमाने पर हमला किया. झांगर, जो मीरपुर और कोटली से आने वाली सड़कों का जंक्शन था, दिसंबर 1947 में पाकिस्तानी सेना के कब्जे में चला गया.
तब ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा को अपनी रक्षा का मुख्य आधार बनाया और इसे किसी भी कीमत पर बचाने का संकल्प लिया. मुख्य लड़ाई हुई 6 फरवरी 1948 को पाकिस्तान ने लगभग 15,000 कबायलियों और सैनिकों के साथ नौशेरा पर हमला किया. इसे पाकिस्तानी सेना ने “ऑपरेशन किप्पर” नाम दिया था. उनका लक्ष्य नौशेरा पर कब्जा करके श्रीनगर की ओर बढ़ना था.
तब ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी 50 पैरा ब्रिगेड के साथ शानदार रणनीति अपनाई. उन्होंने रक्षात्मक और आक्रामक दोनों रणनीतियों का उपयोग किया, जिसमें दुश्मन की आपूर्ति लाइनों को काटना और उनके हमलों को विफल करना शामिल था. उनकी रणनीति में ऊंचे स्थानों (जैसे कोट पहाड़ी) का उपयोग, तोपखाने का सटीक इस्तेमाल और सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए व्यक्तिगत नेतृत्व शामिल था. जिसके करण भारतीय सेना ने पाकिस्तानी हमलावरों को भारी नुकसान पहुंचाया.
पाकिस्तान के लगभग 2,000 हमलावर मारे गए या घायल हुए, जबकि भारतीय पक्ष को केवल 33 सैनिकों की क्षति हुई. इस जीत ने नौशेरा को सुरक्षित कर लिया. नौशेरा की जीत ने श्रीनगर की ओर बढ़ने वाली पाकिस्तानी सेना की योजना को विफल कर दिया और भारतीय सेना की स्थिति को मजबूत किया. इस जीत के बाद ब्रिगेडियर उस्मान को ‘नौशेरा का शेर’ कहा जाने लगा.
वहीं झांगर के नुकसान ने उस्मान को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित किया और उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक वे इसे वापस नहीं लेंगे पलंग पर नहीं सोएंगे. मार्च 1948 में, उनकी रणनीति और नेतृत्व के तहत भारतीय सेना ने झांगर को पुनः कब्जा कर लिया, जिसने उनकी ख्याति को और बढ़ाया.
नौशेरा की लड़ाई ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान की वीरता, रणनीतिक कौशल, और देशभक्ति का प्रतीक है. इस लड़ाई ने न केवल जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना की स्थिति को मजबूत किया, बल्कि उस्मान को एक राष्ट्रीय नायक के रूप में स्थापित किया. उनकी शहादत और नेतृत्व भारतीय सैन्य इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हैं.
पाकिस्तानी सेना उनके नाम से इतना ख़ौफ़ खाती थी कि पाकिस्तान ने उनके सिर पर 50,000 रुपए का ईनाम रखा था. पाकिस्तानी सेना ने उनकी मृत्यु की झूठी खबरें फैलाई थीं, ताकि भारतीय सेना का मनोबल गिराया जा सके.
धर्म का सही अर्थ समझने वाला व्यक्तित्व
उस्मान एक धार्मिक व्यक्ति थे, लेकिन उन्हें धर्म का सही अर्थ भी पता था. उन्होंने कभी भी धर्म को अपनी ड्यूटी के आड़े नहीं आने दिया. एक बार जब पाकिस्तानी सैनिक एक मस्जिद में छिपकर हमला कर रहे थे तो भारतीय सैनिक इबादतगाह होने की वजह से उस जगह गोलाबारी करने से हिचकिचा रहे थे. तब उन्होंने भारतीय सैनिकों को मस्जिद पर गोलीबारी का आदेश दिया. उन्होंने कहा कि हिंसा के लिए इस्तेमाल होने पर कोई स्थान पवित्र नहीं रहता.
वे अविवाहित थे और अपनी तनख्वाह का बड़ा हिस्सा गरीब बच्चों की शिक्षा और भोजन के लिए दान करते थे. उन्होंने कश्मीर में बच्चों की “बाल सेना” बनाकर सैन्य रसद आपूर्ति में सहायता की. वे गांधीवादी सिद्धांतों को मानते थे और क्रिकेट व हॉकी जैसे खेलों में भी निपुण थे.
देश के लिए बलिदान
अपने देश से बेपनाह मोहब्बत करने वाले ब्रिगेडियर उस्मान की मौत भी अपने देश की रक्षा करते हुए ही हुई. वो भी मात्र 35 वर्ष की उम्र में. झांगर में 3 जुलाई 1948 को जब वे एक सैन्य बैठक से लौट रहे थे.तभी पाकिस्तानी सेना ने कुछ गोले दागे, जिनमें से एक गोला उस्मान के पास गिरा और वे गंभीर रूप से घायल हो गए. उन्हें अपनी मृत्यु का आभास हो गया था। तब अपने सैनिकों को उन्होंने अंतिम आदेश दिया, “मैं मर रहा हूं, लेकिन हम जिस क्षेत्र के लिए लड़ रहे हैं, उसे दुश्मन के हाथों में मत पड़ने देना.’’ वे युद्ध क्षेत्र में शहीद होने वाले भारतीय सेना के सबसे वरिष्ठ पदाधिकारी थे.
उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया परिसर में पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ किया गया, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन, और अन्य प्रमुख नेता शामिल हुए.
नौशेरा में उनकी याद में एक स्मारक बनाया गया है. उनकी जन्म शताब्दी (वर्ष 2012) को भारतीय सेना ने झांगर में मनाया. उनकी जीवनी पर “नौशेरा का शेर” नामक एक फ़िल्म बनाई गई. मेजर जनरल वी.के. सिंह की किताब “लीडरशिप इन इंडियन आर्मी” में उनके योगदान का उल्लेख है.
ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान भारत की धर्मनिरपेक्षता और देशभक्ति के प्रतीक थे. उनकी वीरता, नेतृत्व, और बलिदान ने उन्हें भारतीय सैन्य इतिहास में अमर कर दिया. उनकी कहानी न केवल सैनिकों के लिए, बल्कि हर भारतीय के लिए प्रेरणा का स्रोत है. उनकी शहादत ने उन्हें भारतीय सेना के सबसे वरिष्ठ शहीद अधिकारी के रूप में अमर कर दिया.