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ट्रैंस्जेंडर के टैबू को चुनौती देती फ़िल्म है चंडीगढ़ करे आशिकी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
December 13, 2021
in ओए एंटरटेन्मेंट, रिव्यूज़
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ट्रैंस्जेंडर के टैबू को चुनौती देती फ़िल्म है चंडीगढ़ करे आशिकी
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पंजाबी तड़के से सजी यह फ़िल्म गुदगुदाती है, हंसाती है और इसके साथ-साथ अपने लक्ष्य तक भी ले जाती है. संवाद और मारक हो सकते थे, पर अभिषेक कपूर का निर्देशन और पूरा स्क्रीन प्ले इतना कसा हुआ है कि आप बस बहते जाते हो और महसूस करते जाते हो पात्रों के दुःख-दर्द-ग़ुस्से-झुंझलाहट को. मेरा सुझाव है ज़रूर देखिए इस फ़िल्म को, हालांकि कुछ अन्तरंग दृश्य परिवार के साथ जाने पर आपको असहज कर सकते हैं, पर एक शानदार विषय पर बनी शानदार फ़िल्म इसके चलते न देखें, ऐसी राय नहीं दूंगी.

फ़िल्म: चंडीगढ़ करे आशिकी
निर्देशक: अभिषेक कपूर
कलाकार: आयुष्मान खुराना, वाणी कपूर, अभिषेक बजाज, सावन रुपोवाली
रन टाइम: 120 मिनट

आयुष्मान खुराना का नाम किसी भी फ़िल्म के साथ जुड़ते ही यह तो ख़्याल आ ही जाता है कि यह कोई साधारण-सी लव या क्राइम स्टोरी तो हरगिज़ नहीं हो सकती. यानी ज़रूर कुछ तो ऐसा होगा, जो लीक से हटकर होगा, और यही सोचकर थिएटर की तरफ़ क़दम चल पड़े.
थिएटर में दोपहर के शो में भी अच्छी भीड़ थी. लोगों की आपसी बातचीत से स्पष्ट था कि वे आयुष्मान की फ़िल्म का इंतज़ार कर रहे थे और इस बार आयुष्मान किस नए मुद्दे के साथ आए हैं, बेशक़ इसी का इसका इंतज़ार था उन्हें.
आमिर ख़ान जिस तरह से सामाजिक मुद्दों को अपनी फ़िल्मों में लेकर आते हैं, आयुष्मान एकदम निजी जीवन से जुड़े ऐसे मसलों की बात करते हैं, जिन्हें या तो समाज में टैबू बनाकर पेश किया जाता है या फिर उन्हें सिरे से ही ख़ारिज कर दिया जाता है यानी उनके बारे में बात करना तक ज़रूरी नहीं समझा जाता. चंडीगढ़ करे आशिकी इस फ़िल्म में एक ऐसा ही मुद्दा उठाया गया है, जिसे समाज में टैबू समझा जाता रहा है- ट्रैंस्जेंडर व्यक्ति.

हमेशा से ही समाज में महिला और पुरुष इन्हीं दो लिंगों को प्राकृतिक लिंग माना जाता रहा है. यदि इसके अतिरिक्त कोई और लिंग या लैंगिकता दिखाई देती है तो उसे अप्राकृतिक करार देते हुए किनारे किया जाता है, उसका तिरस्कार किया जाता है. इसके पीछे का बड़ा कारण यही है कि महिला-पुरुष के द्वारा ही संतानोपत्ति होती है और मानव जाति विस्तार पाती है. पर प्रकृति इससे कुछ इतर हमारे सामने लेकर आती है, जहां समलिंगी पुरुष-महिलाएं हैं, ट्रैंस्जेंडर्स है. ट्रैंस्जेंडर यानी स्त्री देह में पुरुष का मन या पुरुष देह में स्त्री का मन…यानी शारीरिक संरचना और मानसिक संरचना एकदम भिन्न होना. इन्हें सामान्य इंसान माना ही नहीं जाता, इसी के चलते इन्हें समाज में कोई अवसर, स्थान प्राप्त नहीं है. लोग इन्हें न केवल अपने से अलग मानते हैं, वरन अपने से अलग रहने को, भीख मांगकर गुज़ारा करने को भी मजबूर किया जाता है, उस नाम विशेष से संबोधित किया जाता है, जिसे सभ्य समाज में गली माना जाता है. “इनकी दुआओं में असर होता है,” कहते हुए हम अपने समाज में व्याप्त असमानता की जड़ों को छिपाने का प्रयास करते रहते हैं.
आजकल चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक़्क़ी कर ली है तो खुली सोचवाले और साधन संपन्न व्यक्ति जीवनभर घुटने की बजाय लिंग परिवर्तन का रास्ता अपनाते हैं, ताकि अपनी प्रकृति के मुताबिक़ जीवन जी सकें, मगर हमारे देश में किसी भी नए विचार को स्वीकार करवाना लोहे के चने चबाने जैसा ही है. मज़े की बात है कि हमारे सनातन धर्म में अर्ध-नारीश्वर की संकल्पना को पूजा जाता है, मगर जब यह रूप वास्तविक रूप में सामने आता है तो हम बौखला उठते हैं.

तो कहानी है एक पंजाबी मुंडे मनु मुंजाल की, जो चंडीगढ़ के टिपिकल पंजाबी परिवार का है. मां की मृत्यु हो चुकी है, पिता पिछले सत्रह साल से अकेलेपन से जूझ रहे हैं और अब जाकर उन्हें एक मुस्लिम महिला के रूप में कोई साथी मिला है. पर लड़के के विवाह से पहले वे आगे क़दम नहीं बढ़ा सकते. घर में दो शादीशुदा बहनें हैं, दादाजी हैं. लड़का यानी मनु मुंजाल पहलवानी करता है, जिम चलाता है और उसे चंडीगढ़ के पहलवान का अवार्ड जीतना है. पर यहां पूरा परिवार उसकी शादी के पीछे पड़ा हुआ है.
ऐसे में मनु के जिम में मानवी नाम की एक लड़की ज़ुम्बा टीचर बनकर आती है, जिसके चलते जिम ख़ूब चलने लगता है. मनु मानवी की तरफ़ आकर्षित हो जाता है, दोनों मिलते हैं, प्यार हो जाता है, शारीरिक संबंध भी बन जाते हैं. मनु मानवी से शादी की बात करता है और मानवी एक रहस्योद्घाटन करती है कि वह ट्रांस थी, लड़के से लड़की बनी है. मनु के क्षोभ और ग़ुस्से की सीमा नहीं रहती. घटनाक्रम ऐसे बनते जाते हैं कि मानवी के ट्रांस होने की बात फ़ेसबुक के ज़रिए शहरभर में फैल जाती है.
मानवी के परिवार में उसके आर्मी से रिटायर हुए पिता हैं, जो उसके साथ हैं. उसकी मां ने मनु से मानव बने उसके इस रूप को स्वीकार नहीं किया है और मजबूरन उसे अम्बाला से चंडीगढ़ आना पड़ा है. सारे विरोधों का और भर्त्सना का बहादुरी से सामना करती मानवी एक सशक्त चरित्र के रूप में अपने आप को स्थापित करती नज़र आती है. वह यह स्थापित करती है कि अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होती है, ख़ासतौर पर उस स्थिति में जब आप स्थापित मान्यताओं को चुनौती देने का दुस्साहस कर रहे हो.
मनु ट्रैंस्जेंडर्स के बारे में सब पढ़ता-जानता-समझता है, यह भी समझ जाता है कि उसे वास्तव में मानवी से प्यार था. फ़िल्म में तो अंत में सब ठीक हो जाता है, पर फ़िल्म सोचने के लिए गहरे सवाल छोड़ जाती है. हमारे देश में सामाजिक पहचान इतनी बड़ी हो जाती है कि उसके लिए कोई परिवार अपनी बेटी/बेटे से रिश्ता तोड़ सकता है. लिंग परिवर्तन इस हद तक ग़लत माना जाता है कि समाज अमानवीयता की हद तक उतर सकता है. एक संवाद में मानवी कहती है, “ हमेशा मैं ही क्यों भागूं? स्कूल से भागूं, कॉलेज से भागूं, अम्बाला से भागूं, रिश्तों से भागूं…आख़िर ऐसा क्या ग़लत किया है मैंने?

सोचिए, जब किसी का साथ न मिले और यदि व्यक्ति में ख़ुद में भी हिम्मत न हो तो उसे सारा जीवन नरक के समान ही घुट-घुटकर बिताना होगा. फ़िल्म देखते हुए मुझे राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित मानवी बंदोपाध्याय की पुस्तक – “पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन” याद आ गई और याद आ गया उनका संघर्ष, जो अपनी पुस्तक में उन्होंने बयां किया है. अपने आप को स्थापित करने के इस संघर्ष में सभी हमेशा अकेले ही रहे हैं, गोया अपने आप को पहचानकर उन्होंने अपराध कर दिया हो.
बहरहाल फ़िल्म की बात करें तो आयुष्मान तो शानदार है ही, मानवी के रूप में वाणी कपूर ने शानदार अभिनय किया है. उसका क़द, शारीरिक बनावट पूरी तरह से उसकी भूमिका पर सही बैठती है. गौरव और गौतम शर्मा भाई मनु के दोस्तों के रूप में ख़ूब जंचे हैं. कंवलजीत छोटी-सी भूमिका में हैं, अच्छे लगे हैं. इस फ़िल्म में आयुष्मान ने चोटीवाला नया लुक लिया है. जो ख़ूब जंचता है. ज़्यादातर फ़िल्म जिम में और इनडोर फ़िल्माई गई है, फिर भी चंडीगढ़ की झील आदि के दृश्य कैमरे में क़ैद किए गए हैं. शुरुआती दो गीत नहीं होते तो बेहतर होता, फिर भी झेले जा सकते हैं.
पंजाबी तड़के से सजी यह फ़िल्म गुदगुदाती है, हंसाती है और इसके साथ लक्ष्य तक ले जाती है. संवाद और मारक हो सकते थे, पर अभिषेक कपूर का निर्देशन और पूरा स्क्रीन प्ले इतना कसा हुआ है कि आप बस बहते जाते हो और महसूस करते जाते हो पात्रों के दुःख-दर्द-ग़ुस्से-झुंझलाहट को…
तो मेरा सुझाव है ज़रूर देखिए इस फ़िल्म को, हालांकि कुछ अन्तरंग दृश्य परिवार के साथ जाने पर आपको असहज कर सकते हैं, पर एक शानदार विषय पर बनी शानदार फ़िल्म इसके चलते न देखें, ऐसी राय नहीं दूंगी.

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