लोकतंत्र में जन सरोकारों को सत्ता तक पहुंचाने में व्यंग्य का बड़ी अहम् भूमिका होती है. व्यंग्य के ज़रिए सत्ता को आईना दिखाना तब और भी ज़रूरी हो जाता है, जब सत्ता दोगलेपन पर उतारू हो यानी कहे कुछ और, और करे कुछ और ही. सत्ता के इसी चरित्र को अपनी धारदार कलम से उजागर कर रहे हैं अनूप मणि त्रिपाठी.
‘देश अब मज़बूत हाथों में है.’ नेता जी ने कहा.
उनके कहे को टीवी ने दिखाया. अख़बारों ने छापा. प्रवक्ता ने भजा. लोगों ने गाया. लिहाज़ा, मेरे जैसे आम नागरिक को भी यह सोचने पर बाध्य होना पड़ा कि क्या देश अब मज़बूत हाथों में है?
नेता जी जब-तब यह वाक्य कहते ही रहते हैं. उन्होंने अपने वाक्य में ‘अब’ कहा और मैं ‘तब’ के बारे में सोचने लगा. अब तक देश जो था, क्या वह कमज़ोर हाथों में था! हम इतनी असुरक्षा में जी रहे थे और हमें पता ही नहीं था! हम तो यही माने बैठे थे कि जो भी है, जैसा भी है, देश मज़बूत हो ही रहा होगा! नेता जी और उनकी टोली अगर यह न कहती तो हमें इस बात का एहसास ही न होता! देश कमज़ोर हाथों में था और हम मज़बूत होते रहे, ये तो बहुत शर्म की बात रही!
नेता जी जो बात कह रहे हैं, उस पर शक़-ओ-शुब्हा करना राष्ट्रद्रोह होगा! मैं देख रहा हूं कि देश सच में मज़बूत हाथों में है. क्योंकि नेता जी अभी मज़बूत स्थिति में हैं. प्रचंड बहुमत है उनके पास. हालांकि वे और उनकी कैबिनेट इसे ऐतिहासिक कहते हैं. ऐसे में हाथों को मज़बूत होना ही होना था!
देश जो अब मज़बूत हाथों में हैं, ऐसा कहने के पीछे एक दूसरा कारण भी बनता है. अगर पहले देश कमज़ोर हाथों में न होता तो आज देश उनके हाथों में न होता. कमज़ोर हाथों की वजह से ही सत्ता उनके हाथों में आई है. वो तो उनके लिए अच्छा ही हुआ कि देश कमज़ोर हाथों में था! इस बात से आज हम भले भयभीत हो रहे हैं, मगर नेता जी उस समय अवश्य ख़ुश होते होंगे. आज की तरह देश तब मज़बूत हाथों में होता तो वे निश्चित ही अभी तक हाथ मल रहे होते!
देश अब मज़बूत हाथों में हैं. नेता जी ऐसा कह सकते हैं, क्योंकि वे अब विपक्ष में नहीं है. नेता जी अगर सत्ता में न आए होते तो देश उनके हाथ न लगा होता. जबकि वे पहले भी इसी देश में ही थे. विपक्ष में रहकर वे अपने हाथों को मज़बूत नहीं बना सकते थे. मज़बूत हाथों के लिए सत्ता ज़रूरी होती है. मगर दिक़्क़त यह है कि जहां सत्ता हाथों को मज़बूत बनाती है, वहीं दिल को कठोर भी बना देती है! हाथों की मज़बूती के चक्कर में पहले से कठोर दिल काठ का कब बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता!
नि:संदेह नेता जी कर्मशील हैं. वे हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहते हैं. नेता जी का रिकॉर्ड बजता ही रहता है कि देश अब मज़बूत हाथों में हैं. और इस सिलसिले में अकसर वे अपने हाथों को और मज़बूत बनाने की अपील भी ठोक दिया करते हैं. कई बार उनके भाषणों से सत्ता और देश एक होने का भ्रम होने लगता है. इतिहास इस बात की गवाही देता है, जब किसी नेता विशेष को ही देश का पर्याय बना दिया गया. नेता की वफ़ादारी को देश की वफ़ादारी से जोड़ दिया गया. नेता की मुख़ालिफ़त देश से गद्दारी मान ली गई. कहते हैं कि इतिहास ख़ुद को दोहराता है. वो अलग बात है कि इतिहास की पुनरावृत्ति वर्तमान में किसी को दिख जाती है और कोई देख कर भी देखना नहीं चाहता है. जब-जब आवाम ‘सत्ता आती-जाती है, मगर देश बना रहता है’ यह बात भूलती है, तब-तब नेता विशेष का देश का पर्याय बनने का ख़तरा बना रहता है! अगर हम नेता को ही देश मानें (जैसा कि मनवाने की कोशिशें जारी हैं) तब क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि फिर उन्हीं मज़बूत हाथों से (देश के नाम पर ) किसी का भी गला घोंटा जा सकता है?
देश मज़बूत हाथों में है, अच्छी बात है. मगर जिन हाथों में देश हैं, वे हाथ किन हाथों को मज़बूत बना रहे हैं, ये देखना होगा! देश में एक-आध उद्योगपतियों के हाथों को छोड़कर बाक़ी के हाथों का क्या! वे हाथ जोड़ रहे हैं या हाथ फैला रहे हैं! सेठों के हाथों में देश की अकूत संपत्ति डाली जा रही है और अस्सी करोड़ हाथों को महज पांच किलो अनाज! सत्ता में बैठे मज़बूत हाथों की यह कोशिश (साज़िश पढ़ें) है कि देश के असंख्य हाथ महज़ नारों के लिए उठे, न कि इंकलाब के लिए!
मज़बूत हाथों से गुरेज़ नहीं. मगर हाथ मज़बूत होने का आशय क्या है? ऐसा भी तो हो सकता है कि हाथों को मज़बूती बढ़ती जाए और देश कमज़ोर होता जाए! क्या हाथ मज़बूत होने का मतलब यह नहीं कि किसी का पृष्ठ भाग किसी सरकारी कुर्सी में समा जाए बस? क्या लोकतंत्र के मज़बूत होने से देश मज़बूत नहीं होता? क्या केवल मज़बूत सत्ता का हाथ ही देश को संभाल सकता है? क्या लोकतंत्र के मज़बूत हाथ का देश की मजबूती में कोई योगदान नहीं बनता! देश की जगह जब-जब हाथों की मजबूती को ही मात्र धुरी बनाया जाता है तो तबियत घबराती है. लगे हाथों यह भी देखना चाहिए कि वे हाथ कहीं लोकतंत्र से यह तो नहीं कह रहे कि ज़रा खिसको भाई! हमें बैठने दो! माना देश अभी मज़बूत हाथों में है, मगर वे हाथ कब चंगुल में बदल जाएं, क्या पता!
मैं कल्पना करता हूं कि देश को एक गेंद की तरह हाथ पकड़े हुए हैं. देश कह रहा है, ‘अरे भाई पकड़ो, मगर तुम तो जकड़ रहे हो!’ देश के यह कहते ही हाथ की पकड़ और मज़बूत हो जाती है. देश चिल्लाता है. ‘डोंट वरी! डोंट वरी!’ कहकर एक हाथ आश्वासन देता है तो वहीं दूसरा हाथ ‘इट्स टू मच डेमोक्रेसी!’ कहकर कसकर डांट लगा देता है.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट