जीवन में हम ख़ुद न की गई ग़लतियों का बोझ भी ढोते हैं और ख़ुद की गई ग़लतियों का बोझ भी ढोते हैं. इसके अलावा महिलाएं तो उन रवायतों का बोझ भी ढोती हैं, जो महिला-पुरुष की बराबरी के नज़रिए से देखी जाएं तो महिलाओं के प्रति बेहद अन्यायपूर्ण हैं. ऐसे ही सवाल को उठाती और उसके जवाब से मिलवाती कहानी है दीपशिखा.
उसका चेहरा कुछ पहचाना सा लगा था. वो भी मुझे लगातार घूरे जा रहा था, जैसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो. मैंने ध्यान हटाने की कोशिश की. अपने ही झंझावातों से फ़ुरसत कहां थी मुझे. इतने सालों के बाद अपने परिवार के बीच कितनी असहज हो गई थी मैं. जैसे अरसे से अंधेरे में रहने वाले व्यक्ति की आंखें रौशनी में चुंधिया जाती हैं, वैसे ही मेरी चेतना चुंधिया गई थी. मेरी झूठी पहचान से मिला मान-सम्मान मैं बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. तभी अचानक मेरी चेतना पर बिजली का झटका सा लगा. मुझे उसका चेहरा याद आ गया. ये तो एक ग्राहक था…कहीं उसने भी मुझे पहचान लिया तो? नहीं, झूठी पहचान तो चेतना बरदाश्त नहीं कर पा रही थी, फिर सच्ची पहचान? नहीं… मुझे यहां से हट जाना चाहिए. मैं अपनी प्यारी सोना के विवाह को यों बरबाद नहीं कर सकती. अगर मेरी बात खुल गई तो? कौन विश्वास करेगा कि मैं एक दलदल से निकल चुकी हूं? कौन विश्वास करेगा कि सोनू की नैकरी लगने के बाद से मैंने वो मनहूस काम छोड़ दिया है. किस-किस को समझाऊंगी कि कैसे इस दलदल में गिरी मैं! मैं चुपचाप कमरे में आकर लेट गई. कामवाली से कह दिया कि मेरे सिर में बहुत दर्द है. कोई मुझे उठाए नहीं.
मगर झंझावात उठ चुका था. मुझे एक पल भी चैन नहीं था. ये क्या किया मैंने? क्यों आ गई भाई-बहन की ज़िद में यहां? जानती नहीं थी कि सारे रिश्तेदार आएंगे? और भी ढेर सारे लोग… किसी ने मुझे पहचान लिया तो? मेरे भाई-बहन जो मेरी पूजा करते हैं, मेरे असली रूप को जान गए तो? सोनू ने नौकरी लगते ही सबसे पहला काम मुझ पर शादी के लिए दबाव डालना शुरू करने का किया था. सोना की ज़िद भी उनकी सहायक हो गई थी. वो भी मुझसे पहले शादी करना कहां चाहती थी? आखिर तंग आकर मुझे झूठ बोलना पड़ा कि मैं किसी से प्यार करती हूं. और वो अभी शादी के लिए तैयार नहीं है. तब लड़के वालों की ज़िद के कारण सोनू को सोना की शादी के लिए हां करनी पड़ी थी.
तभी सोना आ गई, घबराई सी. दीदी, आपके सिर में दर्द है? बताया क्यों नहीं? चलिए दवाई खाइए. और मुझे जबरदस्ती दवाई खिलाकर मेरे भरपूर मना करने के बाद भी मेरा सिर दबाने बैठ गई और साथ में शुरू कर दीं वही मीठी बातें, जिनसे मैं बचना चाहती थी –“दीदी आपको याद है…” ‘उफ! अब इसे कैसे समझाऊं कि मैं कुछ भी याद नहीं करना चाहती. न मधुर न कटु. मैं तो बस भागना चाहती हूं. अतीत से, वर्तमान से, समाज से, अपने आप से भी…
मेरे सो जाने का नाटक कामयाब रहा. सोना चली गई, पर मेरे मन में अतीत की स्मृतियों के सोए हुए अंधड़ को जगा गई….
एक अलमस्त परिवार! तीन भाई-बहन. सबसे बड़ी मैं, मुझसे छोटे जुड़वां भाई-बहन सोनू और और सोना. मां-पिताजी लाड़ लड़ाते समय जितने हंसोड़ और स्नेही होते थे, पढ़ाते और जीवन के सही नियम समझाते समय उतने ही सख्त और अनुशासन प्रिय. कितने ख़ुश, व्यस्त और मस्त रहा करते थे हम उनकी छत्रछाया में. जितना साधारण रहन सहन उतने ही असाधारण सपने. ये सपने ही हमारी पूंजी थे और इन्हें सच बनाने के लिए की जा रही हमारी मेहनत ही हमारा निवेश. हमारी परीक्षाएं समाप्त हुईं थीं. मैंने इंटर के साथ इंजीनियरिंग की और सोना ने हाईस्कूल के साथ आर्ट्स कॉलेज की प्रवेश परीक्षा दी थी. सोनू ने हाईस्कूल के साथ अपने प्रिय इंटर कॉलेज में प्रवेश और मेडिकल की कोचिंग की. सोना कला की दुनिया में नाम कमाना चाहती थी और सोनू पहली बार में ही मेडिकल की प्रवेश परीक्षा निकालना चाहता था. हार्ट-सर्जन बनना सपना था उसका. वो दिन हमारी ज़िंदगी का अंतिम खूबसूरत दिन था. भरपूर मस्ती करने के बाद हम घर लौट रहे थे. पापा कार ड्राइव कर रहे थे मम्मी आगे बैठी थीं और पीछे वाली सीट पर हमेशा की तरह हमारी बिन मतलब की हंसी बंद ही नहीं हो रही थी कि एक भयानक चीख हमारी खिलखिलाहट को रौंदती चली गई. होश आया तो पाया कि प्रलय की एक घड़ी ने हमारे मम्मी-पापा के साथ हमारा बचपन एक झटके में हमसे छीन लिया है.
रिश्तेदारों का हमारे आंसू पोंछने आने का सिलसिला बड़ी तेजी से कम हुआ. मैं उनके मन की सहानुभूति पर व्यावहारिक सोच का मुलम्मा चढ़ते साफ देख पा रही थी. उनके मन में छिपी ‘कहीं बच्चे हमारे पल्ले न पड़ जाएं’ की चिंता उनकी प्रकट संवेदनाओं में उजागर होने लगी थी. इसीलिए मैं किसी से कुछ कहे सुने बिना इंश्योरेंस आदि के पैसों, बैंक-बैलेंस और ख़र्चों के जोड़-घटाव से जूझी रहती. मैं जानती थी कि मम्मी का पूरा वेतन जमा होता था ताकि उच्च शिक्षा में प्रवेश के समय कॉलेज और हॉस्टल वगैरह का एकमुश्त खर्चा निपट सके. पापा के वेतन से घर चलता था.
वक़्त की रफ़्तार कितनी तेज़ है, ये उस दिन पता चला था. मम्मी-पापा के चालीसवें के दिन. कहते हैं नज़र बदलने से नज़ारे बदल जाते हैं. मगर चालीस दिनों में हमारे नज़ारों ने रिश्तेदारों की नज़र को बदल दिया था. मकान मालिक ने अगले महीने मकान खाली करने का अल्टीमेटम दे दिया था. बुआ, चाचा और मामा ने मिलकर हमारे जो समधान सोचे थे, उन्हें सुनकर ही मन सिहर उठा पर उसे मानने के अलावा और कोई चारा भी न था. आखिर मैंने ही बिलखते भाई-बहनों को सम्हाला, “वैसे भी हमारा रिज़ल्ट आते ही हम तीनों को दूसरे शहरों में हॉस्टल में रहने जाना था. तीन-चार महीने बाद अलग होना ही था..” मगर उनके आँसू पोंछते हुए मेरी अंदर घुटी रुलाई ने बवंडर मचा दिया था.
मुझे मामा के घर शिफ़्ट किया गया था. मामी जॉब करती थीं. जल्द ही उन्होंने बड़े प्यार से मुझे घर के सारे काम समझाकर ये बता दिया था कि मेरे आने से वो कितनी प्रसन्न हुई हैं, कि उन्हें कितनी सहूलियत हो गई है. सोना को बुआ ले गई थीं. सोना बच्चों को बहुत प्यार जो करती थी. उनके बच्चे बहुत छोटे थे और पहले जब वो हमारे घर आतीं या हम उनके घर जाते थे तो सोना सारा समय उन्हें खिलाया करती थी. जल्द ही उसका भी फ़ोन आ गया था कि बुआ बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी उसको सौंपकर ख़ुश और निश्चिंत हो गई हैं.
सोनू की चिंता मुझे सबसे ज़्यादा थी. उसकी ज़िम्मेदारी चाची ने ली थी, जिनका मिज़ाज बहुत गरम था. अपने बच्चों पर उनका हाथ जब न तब उठता रहता था. सोनू पढ़ाई में जितना मेधावी था, उनके बच्चे उतने ही कमज़ोर. सोनू जब भी मिलता, पढ़ाई में उनका मार्गदर्शन करता. वो हमेशा सोनू का उदाहरण देकर अपने बच्चों को कोसती रहतीं. सोनू को पाकर वो बहुत ख़ुश थीं. उन्हें अपने बच्चों के लिए एक फ़ुल टाइम, सारे विषयों का ट्यूटर मिल गया था.
मेरे मन में हमेशा मामी, चाची और फूफाजी के तेरहवीं के दिन बाक़ी रिश्तेदारों से कहे वाक्य घूमते रहते,“बच्चों को पाल तो हम देंगे पर लड़कियों की शादी और लड़के का अगर मेडिकल में हो जाता है तो प्रवेश के ख़र्चे का प्रबंध आप सब मिलकर करना.” आख़िर रिज़ल्ट निकला और जिसका डर था वही हुआ. सब एकत्रित हुए और फ़ैसले लिए गए. टॉप मेरिट में आकर सबसे अच्छा कॉलेज मिलने के बावजूद न कोई मुझे और सोना को हॉस्टल भेजना चाहता था न ही सोनू को कोचिंग पढ़ाना. वो चाहते थे कि मम्मी-पापा का बैंक-बैलेंस हमारी साधारण पढ़ाई की मासिक फ़ीस के लिए काम आता रहे. सभा स्थगित हो गई थी. हम फिर जुदा होने वाले थे मैंने एक नज़र सोना और सोनू के बुझे चेहरों पर डाली और मेरे सुन्न होते दिमाग़ ने भी एक फ़ैसला ले लिया, “मैं तो आगे नहीं पढ़ूंगी, पर सोना और सोनू हॉस्टल जाएंगे और सोनू कोचिंग में प्रवेश भी लेगा. दोनों की मासिक फ़ीस मैं ट्यूशंस पढ़ाकर अदा करूंगी.”
कुछ देर के लिए मेरे स्वर की दृढ़ता से बाक़ी लोगों ही नहीं, ख़ुद मैं भी अवाक रह गई. लेकिन फिर तर्क शुरू हुए, पर कहते हैं न कि ईश्वर कुछ छीनता है तो कुछ देता भी है. कोई ईश्वरीय चमत्कार ही रहा होगा कि मेरी ओजस्विता के सामने सबको झुकना पड़ा. हालांकि सबसे कठिन तो सोना और सोनू को ही मनाना था. वो चाहते थे कि जमा पैसों से हम तीनों प्रवेश ले लें फिर ख़ुद ट्यूशन करके अपना-अपना ख़र्चा निकालें. पर मुझे सारा पैसा ख़र्च कर देना व्यावहारिक नहीं लग रहा था. मैं मेरे लिए जोड़ा गया पैसा दो साल बाद सोनू के मेडिकल में प्रवेश के लिए सुरक्षित रख देना चाहती थी.
ट्यूशंस मिलने में कोई समस्या नही आई. बहुत छुटपन से मैं छुट्टियों में शौक़िया ट्यूशन पढ़ाती थी. सभी अभिभावक मुझे बहुत पसंद करते थे और सबके नंबर मेरे पास थे. मगर ट्यूशंस करके दो बच्चों की उच्च शिक्षा का ख़र्च निकालना इतना आसान भी न था. पहले मैं अपनी शर्तों पर पढ़ाती थी, पर अब ज़रूरत मेरी थी तो शर्तें उनकी होनी ही थीं. मुझे बच्चों के घर जाकर पढ़ाना होता था. ट्यूशंस मिलती जा रही थीं. शाम, फिर रात दस बजे, फिर ग्यारह बजे तक समय खिंच चुका था. पर फिर भी कुछ पैसे हर महीने कम पड़ ही जाते जो एकमुश्त जमा पैसों से निकालने पड़ते.
सोनू मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया था और प्रवेश के ख़र्च के लिए कम पड़ रहे एक लाख रुपयों के सवाल पर सभी रिश्तेदारों ने मिलकर कुल बीस हज़ार देकर मौन साध लिया था. मैंने सभी अभिभावकों से उधार के लिए कह रखा था. सबने मिलकर मदद का आश्वासन भी दिया था पर इस तनाव में सुरक्षा और सतर्कता के नियमों को ताक पर नहीं रखना चाहिए था मुझे. एक विद्यार्थी की मां अपने बच्चों को लेकर किसी शादी में गईं थीं. कहकर गईं थीं कि जब लौटकर मैं फ़ोन करूंगी तभी आना, पर मैं उनके पति के उधार देने के बहाने बुलाने पर चली गई.
उस दिन बचाव के संघर्ष में शरीर कितना ज़ख़्मी हुआ पता नहीं, पर मन का हर कोमल भाव चकनाचूर हो गया. आस, आस्था, विश्वास, यहां तक कि आत्मविश्वास भी. ‘कैसे मुझसे सतर्क रहने में इतनी बड़ी ग़लती हो गई?’ ये प्रश्न सबसे ज़्यादा साल रहा था. सब कुछ खोकर पाए रुपए मैंने उसके मुंह पर दे मारे. तन-मन की असह्य वेदना के बोझ तले गिरती पड़ती लड़खड़ाती सबसे पहले पुलिस स्टेशन पहुंची तो वहां मिली एक महिला पुलिस ने बड़े प्यार से रिपोर्ट लिखवाने से पहले दोबारा सोचने और मामले को ‘ऑउट ऑफ़ कोर्ट’ निपटाने की सलाह दी. लेकिन समाज का इससे भी वीभत्स रूप देखना अभी बाक़ी था. उसकी पत्नी लौटकर आई तो वो भी महिला पुलिस की सहायक हो गई. एक लाख रुपए मेरे हाथ पर रकहकर बोली, “व्यावहारिक बनो. तुम भाई का प्रवेश कराने जाना चाहती हो या पुलिस स्टेशन के चक्कर काटना? जो हो गया, उसे तो बदला नहीं जा सकता, लेकिन क्या तुम चाहती हो कि मेरे पति के जेल जाने से मेरे बच्चों पर से भी पिता के वेतन का साया उठ जाए और वो भी कल को तुम्हारी तरह…”
जाने कितनी देर मैं पथराई आंखों से मैं कभी उन पैसों को तो कभी उस औरत को देखती रही. ‘व्यावहारिक सोच?’
सोना और सोनू के ख़र्चे बढ़ गए थे. दल्लों ने मुझे ढूंढ़ लिया था. पैसे कमाने का नया रास्ता सुलभ हो गया था और पुराने रास्ते से ख़र्चा पूरा पड़ने का आत्मविश्वास मरने लगा था. फिर तो जैसे महीने के अंत की एक तारीख़ फ़िक्स हो गई. जितने पैसे महीनेभर की दस घंटे की ट्यूशन से कम पड़े, उतने एक-दो रातों को भयावह बनाकर…जैसे पैर फिसलने से कोई गिरे और फिर ढुलकता ही चला जाए, वैसे ही मैं बिकी और बिकती ही चली गई. ऐसा नहीं था कि ज़मीर ने टोका न हो. ऐसा भी नहीं था कि मुझे ये सरल लगने लगा था. कई बार ज़मीर ने टोका कि मैं न सिर्फ़ उस इनसान को सज़ा दिलवाने का संघर्ष न करने की दोषी हूं, बल्कि जिस काम को मैं अनैतिक मानती हूं, उसे जीविका के रूप में स्वीकार करने से हुई अपनी लहूलुहान आत्मा की भी दोषी हूं. कई बार सोना और सोनू के पूछने पर कि अगर दिक़्क़त न हो तो वो भी कुछ ट्यूशंस पकड़ लें, दिल किया हां कह दे, पर फिर दिल दहल जाता उनके साथ किसी अनहोनी की आशंका पर. फिर भी कई बार व्यावहारिकता और सिद्धांत की लड़ाई में सिद्धांत लगभग जीत गए. कई बार पुलिस स्टेशन तक गई, पर अंदर न जा सकी. जब जाती तब याद आता कि तब बताया गया थी कि पहला प्रश्न होगा कि मैं इतनी रात गए पैसे लेने गई क्यों? और अब? अब तो और भी कई प्रश्न होंगे. कई बार स्वेच्छा से बिकने की बात स्वीकार भी करना होगा. कैसे होगा ये सब? फिर सोना और सोनू को पता चलने दिए बिना? नहीं, नहीं, ये संभव ही नहीं है. ऐसा लगता जैसे कई बार गहरी खाई में ढुलक रहे इनसान की तरह हाथ-पांव मारकर कोई शाख, कोई पत्थर पकड़ना चाह रही हूं पर…
अचानक सोनू की कड़कती आवाज़ ने मुझे क्रूर अतीत के अंधड़ से निकाल कर खुरदुरे वर्तमान में ला पटका.
“कहा न दरवाज़ा नहीं खुलेगा, दीदी सो रहीं हैं.”
तभी दरवाज़ा एक झटके से खुल गया और कमरे में अचानक भर गए प्रकाश से आंखें चुंधिया गईं. प्रकाश के साथ मेरे सामने मेरे जीवन का सबसे कड़वा सच भी खड़ा था. मेरा वो ग्राहक. उसे भी मेरी शक्ल याद आ गई थी.
“सिर दर्द तो होगा ही. हमारे सामने आने की हिम्मत कहां से लाएगी छिनाल?” मेरे दिल में जैसे कोई ज़हर बुझा तीर आकर गड़ गया और पूरी आत्मा लहूलुहान सी छटपटाने लगी. सारा शरीर संज्ञा-शून्य होता जा रहा था…
सारे लोग स्तब्ध से थे कि सोनू ने उसका कॉलर पकड़ लिया, “हिम्मत कैसे हुई मेरी दीदी के बारे में ऐसे शब्द बोलने की?”
“मुझ पर ही टूट पड़ोगे या अपनी उस भगोड़ी बहन से भी पूछोगे कि मुझे देखकर इस कमरे में आकर क्यों छिप गई?” उसकी दबंग आवाज़ का स्वर बढ़ता ही जा रहा था. लोगों के चेहरे और मुद्रा बता रही थी कि पहले ही बहुत बहस हो चुकी है. उसने मुझे गाली दी तो सोनू का चेहरा रक्तिम हो गया. “ये आदमी तो चुप ही नहीं होता. आज मेरे हाथ से कुछ हो जाएगा.” सोनू बोला तो मैं अंदर तक कांप गई.
मुझे लगा आज उस सच को धक्का देकर ज़ुबान से निकालना ही होगा, जो उस दिन से वहां रखा था, जिस दिन सोनू को पहला वेतन मिला था. और वो उसे मेरे हाथ पर रखकर मेरे पैर छूने आया था. सालों सोचती रही थी कि जिस दिन ऐसा होगा, उसे सच बता दूंगी. बता दूंगी कि ये काम सोना को नौकरी मिलने के बाद छोड़ दिया था, जब ट्यूशंस तुम्हारी पढ़ाई के लिए पूरी पड़ने लगीं. पर दल्ले पीछा न छोड़ते हैं. उनसे डर लगता था अब. सालों सोचती रही थी कि कैसे शब्दों और वाक्यों में पिरोऊंगी उस चिंता को जो ये सोचकर होती है कि कभी कोई दल्ला मेरे मना करने पर लड़ाई पर न उतर आए. या कोई और षड्यंत्र…पर जब उसने मेरा सामान पैक करना शुरू किया अपने साथ ले चलने के लिए तो जाने कैसे भयावह डर बैठ गए ज़ुबान पर कि वो कुछ न बोल सकी बोली भी तो ये कि यहीं अपने घर में मम्मी-पापा की यादों के साथ रहना अच्छा लगता है. उसका वो पैर छूना, भविष्य के सुनहरे सपनों में खो जाना, मेरी गोद में सिर रखकर मां-बाबूजी की याद करके घंटों रोना और सबसे बढ़कर मंदिर में मेरी तस्वीर! मुझे याद आया पिताजी नियम से मंदिर में सुबह शाम दिया-बाती ज़रूर करते थे. सोनू ने उनके इस नियम को गंभीरता से अपनाया था. हॉस्टल में जाने के बाद वो अपना छोटा सा मंदिर साथ रखने लगा था. जिसमें केवल छोटे से ठाकुर जी और मां-पिताजी और मेरी तस्वीर थी. उस तस्वीर को देखने के बाद स्वेच्छा से दलदल में उतरने के अपने जीवन के सच को ज़ुबान से धक्का देकर निकालने की हिम्मत मैं जुटा नहीं सकी थी. पर आज वो हिम्मत जुटानी ही पड़ी, “उसे छोड़ दो. वो सच बोल रहा है.”
एक पल में सन्निपात सा हो गया. जैसे परी कथाओं में कोई शाप सबको स्तब्ध कर देता है, मेरे भाई बहन वैसे ही खड़े हो गए थे. उस आदमी की आंखों में खून उतर आया और मेरा दिमाग़ सुन्न हो गया. वहां खड़े समाज के सभ्यता के ठेकेदारों ने मुझे कोसना शुरू कर दिया था. मैं भाई-बहन के चेहरों पर क्षोभ, निराशा और न जाने कितने भावों को आंसू से धुंधली आंखों से देख रही थी, पर कुछ कहने-सुनने की हिम्मत नहीं थी मुझमें. वो घुटनों के बल मेरे सामने आंसुओं से धुला चेहरा लेकर बैठ गए. मेरी नज़रें ही नहीं पूरा चेहरा ज़मीन में गड़ गया. बस मैं ही ज़मीन में न गड़ी.
“क्यों दीदी क्यों? क्यों किया आपने ये सब? कह दिया होता हमसे कि तुम लोग भी मेरी की तरह ट्यूशन पकड़ कर पढ़ सकते हो तो पढ़ो, नहीं तो जो बन सकते हो बन जाओ.”
“यही तो होता कि हम वो न बन पाते जो बनना चाहते थे. मां-पापा के सपने टूट जाते, संघर्ष व्यर्थ जाता पर हम अपनी ही नज़रों में यों गिर तो न जाते.”
“कैसे जिएंगे इस एहसास के साथ कि हमारे लिए हमारी दीदी को…”
मेरे दिलो-दिमाग़ में सब गड्मड होने लगा. न दूसरों के शब्द भाव बनकर दिलो-दिमाग़ तक पहुंच रहे थे न अपने भाव शब्दों में ढलने की स्थिति में थे. उनके स्वर हिचकियों में खो से गए लगते थे. मुझे शब्द नहीं केवल भाव समझ आ रहे थे. उनकी वितृष्णा समझ आ रही थी. क्षोभ समझ आ रहा था, अतीत को न बदल पाने की लाचारगी समझ आ रही थी… समझ आ रहा था कि लोग मुझे घर से निकालने के लिए कह रहे थे और मेरे भाई-बहन? वो क्या कह रहे थे, मेरी समझ में नहीं आ रहा था. मुझे लग रहा था कि जो भाई-बहन मुझे पूजते थे, वो अभी इसी समाज के साथ मुझे धक्का मारकर घर से निकाल देंगे. सब कुछ ख़त्म हो गया. ख़ाली हो गया. एक पल में मेरी सारी तपस्या व्यर्थ हो गई. तभी सोनू उठा. उसका चेहरा सख़्त हो गया था. उसे याद आ गया था कि दिया-बाती का समय हो गया है. मेरी चेतना जैसे वापस आने लगी थी. गड्मड होते चेहरे स्पष्ट होने लगे थे. सोनू मंदिर के पास गया.
“मैंने अपनी दीदी को भगवान का दर्जा दिया था…” मैं उसके चेहरे पर विषाद की घनी छाया देख रही थी और सुन्न सी उसके शब्द सुन रही थी. उसका स्वर स्थिर हो गया था और ऊंचा भी. उसने तीली जलाई और मुझे लगा कि अभी वो मेरी तस्वीर के साथ मुझसे जुड़ी सारी यादों को जला देगा. मैंने चेहरा फिर झुका लिया. तभी मेरे कानों में वही दृढ़ स्वर पड़ा, “लेकिन मेरी दीदी भगवान नहीं वो दीपशिखा निकली, जिसके आलोक के बिना अंधेरे में भगवान का भी चेहरा नज़र नहीं आता,” कहकर उसने जोत प्रज्ज्वलित कर दी. मुझे लगा कि कलेजे में धंसा तीर किसी ने खींचकर निकाल लिया है. सारी पीड़ा भी उसके साथ निकल गई है पर एक ख़ालीपन भर गया है.
तभी सोना की आवाज़ सुनी,“किस समाज को मुंह न दिखा सकने की बात कर रहे हैं आप लोग? वही समाज जो हमारा दायित्व उठाने के बजाए उस समय हमसे कतराकर निकल गया, जब हमें उसकी ज़रूरत थी. शर्मिंदा तो उस समाज को होना चाहिए कि उसके होते हुए…”
सोनू ने भी दोबारा उसका कॉलर पकड़ लिया, “ठीक कहती है सोना. जो चीज़ बेचना गुनाह होता है, वो ख़रीदना भी गुनाह होता है. शर्मिंदा तो उस समाज को होना चाहिए जहां एक पुरुष इतनी निर्लज्जता से एक स्त्री को ये कहकर दोषी ठहरा रहा है कि उसने उसे ख़रीदा था. वो ऐसा कर सकता है, क्योंकि जानता है कि ये समाज उसका बहिष्कार नहीं करेगा.”
“लेकिन हम बहिष्कार करेंगे. उस पुरुष का भी और उसे बहिष्कृत न करने वाले समाज का भी. आप कह रहे थे न कि ऐसी लड़की से शादी कौन करेगा जिसकी बहन धंधा करती है? मैं कहती हूं ऐसे पुरुष से शादी नहीं करनी, जिसके परिवार में लोग इतनी निर्लज्जता से स्वीकार करते हैं कि वो कभी किसी धंधा करने वाली के पास गए थे. आप सब जा सकते हैं.”
“मैं तुम लोगों को विस्तार से…” मेरे हिचकियों में खोए टूटे-फूटे वाक्य को सोनू ने काट दिया.
“ज़रूर सुनेंगे, दीदी पर पहले मेरी एक बात सुन लो, “ये दीपशिखा अब और नहीं जलेगी.” भीड़ जा चुकी थी और मेरे भाई-बहन मुझमें बरसों से जमे ग्लेशियर को अपने स्नेह की ऊष्मा से पिघलाने में लग गए थे…
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट