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लिहाफ़: इस्मत चुग़ताई की मशहूर कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
October 20, 2020
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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लिहाफ़: इस्मत चुग़ताई की मशहूर कहानी
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उस दौर में, जब समलैंगिक रिश्तों पर लिखने की हिम्मत पुरुष लेखक तक नहीं कर पाते थे, उर्दू की महान लेखिकाओं में एक इस्मत चुग़ताई ने इस बेहद संजीदा विषय पर अपनी कलम क्या ख़ूब चलाई. उन्होंने घर की दीवारों के बीच दबाई-छुपाई जानेवाली इस सच्चाई के ऊपर से लिहाफ़ को हल्के से सरका दिया. 

 

जब मैं जाड़ों में लिहाफ़ ओढ़ती हूं तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है. और एकदम से मेरा दिमाग़ बीती हुई दुनिया के पर्दों में दौड़ने-भागने लगता है. न जाने क्या कुछ याद आने लगता है.
माफ़ कीजिएगा, मैं आपको ख़ुद अपने लिहाफ़ का रूमानअंगेज़ ज़िक्र बताने नहीं जा रही हूं, न लिहाफ़ से किसी किस्म का रूमान जोड़ा ही जा सकता है. मेरे ख़्याल में कम्बल कम आरामदेह सही, मगर उसकी परछाई इतनी भयानक नहीं होती जितनी, जब लिहाफ़ की परछाई दीवार पर डगमगा रही हो.
यह जब का ज़िक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन-भर भाइयों और उनके दोस्तों के साथ मार-कुटाई में गुज़ार दिया करती थी. कभी-कभी मुझे ख़्याल आता कि मैं कमबख़्त इतनी लड़ाका क्यों थी? उस उम्र में जबकि मेरी और बहनें आशिक़ जमा कर रही थीं, मैं अपने-पराए हर लड़के और लड़की से जूतम-पैजार में मशगूल थी.
यही वजह थी कि अम्मा जब आगरा जाने लगीं तो हफ़्ता-भर के लिए मुझे अपनी एक मुंहबोली बहन के पास छोड़ गईं. उनके यहां, अम्मा ख़ूब जानती थी कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से भी लड़-भिड़ न सकूंगी. सज़ा तो ख़ूब थी मेरी! हां, तो अम्मा मुझे बेग़म जान के पास छोड़ गईं.
वही बेग़म जान जिनका लिहाफ़ अब तक मेरे ज़हन में गर्म लोहे के दाग़ की तरह महफ़ूज़ है. ये वो बेग़म जान थीं जिनके ग़रीब मां-बाप ने नवाब साहब को इसलिए दामाद बना लिया कि वह पकी उम्र के थे मगर निहायत नेक. कभी कोई रण्डी या बाज़ारी औरत उनके यहां नज़र न आई. ख़ुद हाजी थे और बहुतों को हज करा चुके थे.
मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-ग़रीब शौक़ था. लोगों को कबूतर पालने का जुनून होता है, बटेरें लड़ाते हैं, मुर्गबाज़ी करते हैं, इस किस्म के वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफ़रत थी. उनके यहां तो बस तालिब इल्म रहते थे. नौजवान, गोरे-गोरे, पतली कमरों के लड़के, जिनका ख़र्च वे ख़ुद बर्दाश्त करते थे.
मगर बेग़म जान से शादी करके तो वे उन्हें कुल साज़ो-सामान के साथ ही घर में रखकर भूल गए. और वह बेचारी दुबली-पतली नाज़ुक-सी बेग़म तन्हाई के गम में घुलने लगीं. न जाने उनकी ज़िंदगी कहां से शुरू होती है? वहां से जब वह पैदा होने की ग़लती कर चुकी थीं, या वहां से जब एक नवाब की बेग़म बनकर आईं और छपरखट पर ज़िंदगी गुजारने लगीं, या जब से नवाब साहब के यहां लड़कों का ज़ोर बंधा. उनके लिए मुरग्गन हलवे और लज़ीज़ खाने जाने लगे और बेग़म जान दीवानख़ाने की दरारों में से उनकी लचकती कमरोंवाले लड़कों की चुस्त पिण्डलियां और मोअत्तर बारीक़ शबनम के कुर्ते देख-देखकर अंगारों पर लोटने लगीं.
या जब से वह मन्नतों-मुरादों से हार गईं, चिल्ले बंधे और टोटके और रातों की वज़ीफ़ाख़्वानी भी चित हो गई. कहीं पत्थर में जोंक लगती है! नवाब साहब अपनी जगह से टस-से-मस न हुए. फिर बेग़म जान का दिल टूट गया और वह इल्म की तरफ मोतवज़्ज़ो हुई. लेकिन यहां भी उन्हें कुछ न मिला. इश्क़िया नावेल और जज़्बाती अशआर पढ़कर और भी पस्ती छा गई. रात की नींद भी हाथ से गई और बेग़म जान जी-जान छोड़कर बिल्कुल ही यासो-हसरत की पोट बन गईं.
चूल्हे में डाला था ऐसा कपड़ा-लत्ता. कपड़ा पहना जाता है किसी पर रोब गांठने के लिए. अब न तो नवाब साहब को फ़ुर्सत कि शबनमी कुर्तों को छोड़कर ज़रा इधर तवज्जो करें और न वे उन्हें कहीं आने-जाने देते. जब से बेग़म जान ब्याहकर आई थीं, रिश्तेदार आकर महीनों रहते और चले जाते, मगर वह बेचारी क़ैद की क़ैद रहतीं.
उन रिश्तेदारों को देखकर और भी उनका ख़ून जलता था कि सबके-सब मज़े से माल उड़ाने, उम्दा घी निगलने, जाड़े का साज़ो-सामान बनवाने आन मरते और वह बावजूद नई रूई के ‌लिहाफ़ के, पड़ी सर्दी में अकड़ा करतीं. हर करवट पर लिहाफ़ नईं-नईं सूरतें बनाकर दीवार पर साया डालता. मगर कोई भी साया ऐसा न था जो उन्हें ज़िन्दा रखने लिए काफ़ी हो. मगर क्यों जिए फिर कोई? ज़िंदगी! बेग़म जान की ज़िंदगी जो थी! जीना बंदा था नसीबों में, वह फिर जीने लगीं और ख़ूब जीं.
रब्बो ने उन्हें नीचे गिरते-गिरते संभाल लिया. चटपट देखते-देखते उनका सूखा जिस्म भरना शुरू हुआ. गाल चमक उठे और हुस्न फूट निकला. एक अजीबो-ग़रीब तेल की मालिश से बेग़म जान में ज़िंदगी की झलक आई. माफ़ कीजिएगा, उस तेल का नुस्ख़ा आपको बेहतरीन-से-बेहतरीन रिसाले में भी न मिलेगा.
जब मैंने बेग़म जान को देखा तो वह चालीस-बयालीस की होंगी. ओफ्फोह! किस शान से वह मसनद पर नीमदराज़ थीं और रब्बो उनकी पीठ से लगी बैठी कमर दबा रही थी. एक ऊदे रंग का दुशाला उनके पैरों पर पड़ा था और वह महारानी की तरह शानदार मालूम हो रही थीं. मुझे उनकी शक्ल बेइन्तहा पसन्द थी. मेरा जी चाहता था, घण्टों बिल्कुल पास से उनकी सूरत देखा करूं. उनकी रंगत बिल्कुल सफ़ेद थी. नाम को सुर्ख़ी का ज़िक्र नहीं. और बाल स्याह और तेल में डूबे रहते थे. मैंने आज तक उनकी मांग ही बिगड़ी न देखी. क्या मजाल जो एक बाल इधर-उधर हो जाए. उनकी आंखें काली थीं और अबरू पर के ज़ायद बाल अलहदा कर देने से कमानें-सी खिंची होती थीं. आंखें ज़रा तनी हुई रहती थीं. भारी-भारी फूले हुए पपोटे, मोटी-मोटी पलकें. सबसे ज़ियाद जो उनके चेहरे पर हैरतअंगेज़ जाज़िबे-नज़र चीज़ थी, वह उनके होंठ थे. अमूमन वह सुर्ख़ी से रंगे रहते थे. ऊपर के होंठ पर हल्की-हल्की मूंछें-सी थीं और कनपटियों पर लम्बे-लम्बे बाल. कभी-कभी उनका चेहरा देखते-देखते अजीब-सा लगने लगता था, कम उम्र लड़कों जैसा.
उनके जिस्म की जिल्द भी सफ़ेद और चिकनी थी. मालूम होता था किसी ने कसकर टांके लगा दिए हों. अमूमन वह अपनी पिण्डलियां खुजाने के लिए किसोलतीं तो मैं चुपके-चुपके उनकी चमक देखा करती. उनका क़द बहुत लम्बा था और फिर गोश्त होने की वजह से वह बहुत ही लम्बी-चौड़ी मालूम होती थीं. लेकिन बहुत मुतनासिब और ढला हुआ जिस्म था. बड़े-बड़े चिकने और सफ़ेद हाथ और सुडौल कमर तो रब्बो उनकी पीठ खुजाया करती थी. यानी घण्टों उनकी पीठ खुजाती, पीठ खुजाना भी ज़िंदगी की ज़रूरियात में से था, बल्कि शायद ज़रूरियाते-ज़िंदगी से भी ज़्यादा.
रब्बो को घर का और कोई काम न था. बस वह सारे वक़्त उनके छपरखट पर चढ़ी कभी पैर, कभी सिर और कभी जिस्म के और दूसरे हिस्से को दबाया करती थी. कभी तो मेरा दिल बोल उठता था, जब देखो रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है या मालिश कर रही है.
कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता? मैं अपना कहती हूं, कोई इतना करे तो मेरा जिस्म तो सड़-गल के ख़त्म हो जाए. और फिर यह रोज़-रोज़ की मालिश काफ़ी नहीं थीं. जिस रोज़ बेग़म जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो घण्टा पहले से तेल और ख़ुशबूदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती. और इतनी होती कि मेरा तो तख़य्युल से ही दिल लोट जाता. कमरे के दरवाज़े बन्द करके अंगीठियां सुलगती और चलता मालिश का दौर. अमूमन सिर्फ़ रब्बो ही रही. बाक़ी की नौकरानियां बड़बड़ातीं दरवाज़े पर से ही, ज़रूरियात की चीज़ें देती जातीं.
बात यह थी कि बेग़म जान को खुजली का मर्ज़ था. बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हज़ारों तेल और उबटने मले जाते थे, मगर खुजली थी कि कायम. डाक्टर, हकीम कहते,‘‘कुछ भी नहीं, जिस्म साफ़ चट पड़ा है. हां, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर.’’
‘‘नहीं भी, ये डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज़ है? अल्लाह रखे, ख़ून में गर्मी है!’’ रब्बो मुस्कुराकर कहती, महीन-महीन नज़रों से बेग़म जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी यह बेग़म जान गोरी थीं उतनी ही यह काली. जितनी बेग़म जान सफ़ेद थीं, उतनी ही यह सुर्ख़. बस जैसे तपाया हुआ लोहा. हल्के-हल्के चेचक के दाग़. गठा हुआ ठोस जिस्म. फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ. कसी हुई छोटी-सी तोंद. बड़े-बड़े फूले हुए होंठ, जो हमेशा नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के शरारे निकलते रहते थे. और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस कदर फुर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गए कूल्हों पर! वहां से रपटे रानों पर और फिर दौड़े टखनों की तरफ़! मैं तो जब कभी बेग़म जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ कहां हैं और क्या कर रहे हैं?
गर्मी-जाड़े बेग़म जान हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं. गहरे रंग के पाजामे और सफ़ेद झाग-से कुर्ते. और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की दुलाई ज़रूर जिस्म पर ढके रहती थीं. उन्हें जाड़ा बहुत पसन्द था. जाड़े में मुझे उनके यहां अच्छा मालूम होता. वह हिलती-डुलती बहुत कम थीं. कालीन पर लेटी हैं, पीठ खुज रही हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी नौकरानियां खार खाती थीं. चुड़ैल बेग़म जान के साथ खाती, साथ उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेग़म जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ़्तगू का मौजूं थीं. जहां उन दोनों का ज़िक्र आया और कहकहे उठे. लोग न जाने क्या-क्या चुटकुले ग़रीब पर उड़ाते, मगर वह दुनिया में किसी से मिलती ही न थी. वहां तो बस वह थीं और उनकी खुजली!
मैंने कहा कि उस वक़्त मैं काफ़ी छोटी थी और बेग़म जान पर फ़िदा. वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं. इत्तेफ़ाक़ से अम्मा आगरे गईं. उन्हें मालूम था कि अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूंगी, इसलिए वह हफ़्ता-भर के लिए बेग़म जान के पास छोड़ गईं. मैं भी ख़ुश और बेग़म जान भी ख़ुश. आख़िर को अम्मा की भाभी बनी हुई थीं.
सवाल यह उठा कि मैं सोऊं कहां? क़ुदरती तौर पर बेग़म जान के कमरे में. लिहाज़ा मेरे लिए भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलंगड़ी डाल दी गई. दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे. मैं और बेग़म जान चांस खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गई. और जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ खुजा रही थी. ‘भंगन कहीं की!’ मैंने सोचा. रात को मेरी एकदम से आंख खुली तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा. कमरे में घुप अंधेरा. और उस अंधेरे में बेग़म जान का ‌लिहाफ़ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें हाथी बन्द हो!
‘‘बेग़म जान!’’ मैंने डरी हुई आवाज़ निकाली. हाथी हिलना बन्द हो गया. ‌लिहाफ़ नीचे दब गया.
‘‘क्या है? सो जाओ,’’ बेग़म जान ने कहीं से आवाज़ दी.
‘‘डर लग रहा है,’’ मैंने चूहे की-सी आवाज़ से कहा.
‘‘सो जाओ. डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ़ लो.’’
‘‘अच्छा.’’
मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढ़ी. मगर ‘यालमू मा बीन’ पर हर दफ़ा आकर अटक गई. हालांकि मुझे वक़्त पूरी आयत याद है.
‘‘तुम्हारे पास आ जाऊं बेग़म जान?’’
‘‘नहीं बेटी, सो रहो.’’ ज़रा सख़्ती से कहा.
और फिर दो आदमियों के घुसुर-फुसुर करने की आवाज़ सुनाई देने लगी. हाय रे! यह दूसरा कौन? मैं और भी डरी.
‘‘बेग़म जान, चोर-वोर तो नहीं?’’
‘‘सो जाओ बेटा, कैसा चोर?’’ रब्बो की आवाज़ आई. मैं जल्दी से ‌लिहाफ़ में मुंह डालकर सो गई.
सुबह मेरे ज़हन में रात के खौफ़नाक नज़्ज़ारे का ख़्याल भी न रहा. मैं हमेशा की वहमी हूं. रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बड़बड़ाना तो बचपन में रोज़ ही होता था. सब तो कहते थे, मुझ पर भूतों का साया हो गया है. लिहाज़ा मुझे ख़्याल भी न रहा. सुबह को ‌लिहाफ़ बिल्कुल मासूम नज़र आ रहा था.
मगर दूसरी रात मेरी आंख खुली तो रब्बो और बेग़म जान में कुछ झगड़ा बड़ी खामोशी से छपरखट पर ही तय हो रहा था. और मेरी खाक समझ में न आया कि क्या फैसला हुआ? रब्बो हिचकियां लेकर रोयी, फिर बिल्ली की तरह सपड़-सपड़ रकाबी चाटने-जैसी आवाज़ें आने लगीं, ऊंह! मैं तो घबराकर सो गई.
आज रब्बो अपने बेटे से मिलने गई हुई थी. वह बड़ा झगड़ालू था. बहुत कुछ बेग़म जान ने किया, उसे दुकान कराई, गांव में लगाया, मगर वह किसी तरह मानता ही नहीं था. नवाब साहब के यहां कुछ दिन रहा, ख़ूब जोड़े-बागे भी बने, पर न जाने क्यों ऐसा भागा कि रब्बो से मिलने भी न आता. लिहाज़ा रब्बो ही अपने किसी रिश्तेदार के यहां उससे मिलने गई थीं. बेग़म जान न जाने देतीं, मगर रब्बो भी मजबूर हो गई. सारा दिन बेग़म जान परेशान रहीं. उनका जोड़-जोड़ टूटता रहा. किसी का छूना भी उन्हें न भाता था. उन्होंने खाना भी न खाया और सारा दिन उदास पड़ी रहीं.
‘‘मैं खुजा दूं बेग़म जान?’’
मैंने बड़े शौक़ से ताश के पत्ते बांटते हुए कहा. बेग़म जान मुझे ग़ौर से देखने लगीं.
‘‘मैं खुजा दूं? सच कहती हूं!’’
मैंने ताश रख दिए.
मैं थोड़ी देर तक खुजाती रही और बेग़म जान चुपकी लेटी रहीं. दूसरे दिन रब्बो को आना था, मगर वह आज भी ग़ायब थी. बेग़म जान का मिज़ाज चिड़चिड़ा होता गया. चाय पी-पीकर उन्होंने सिर में दर्द कर लिया. मैं फिर खुजाने लगी उनकी पीठ-चिकनी मेज़ की तख्ती-जैसी पीठ. मैं हौले-हौले खुजाती रही. उनका काम करके कैसी ख़ुशी होती थी!
‘‘जरा ज़ोर से खुजाओ. बन्द खोल दो.’’ बेग़म जान बोलीं,‘‘इधर ऐ है, ज़रा शाने से नीचे हां वाह भइ वाह! हा!हा!’’ वह सुरूर में ठण्डी-ठण्डी सांसें लेकर इत्मीनान ज़ाहिर करने लगीं.
‘‘और इधर…’’ हालांकि बेग़म जान का हाथ ख़ूब जा सकता था, मगर वह मुझसे ही खुजवा रही थीं और मुझे उल्टा फ़ख्र हो रहा था. ‘‘यहां ओई! तुम तो गुदगुदी करती हो वाह!’’ वह हंसी. मैं बातें भी कर रही थी और खुजा भी रही थी.
‘‘तुम्हें कल बाज़ार भेजूंगी. क्या लोगी? वही सोती-जागती गुड़िया?’’
‘‘नहीं बेग़म जान, मैं तो गुड़िया नहीं लेती. क्या बच्चा हूं अब मैं?’’
‘‘बच्चा नहीं तो क्या बूढ़ी हो गई?’’ वह हंसी ‘‘गुड़िया नहीं तो बनवा लेना कपड़े, पहनना ख़ुद. मैं दूंगी तुम्हें बहुत-से कपड़े. सुना?’’ उन्होंने करवट ली.
‘‘अच्छा.’’ मैंने जवाब दिया.
‘‘इधर…’’ उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर जहां खुजली हो रही थी, रख दिया. जहां उन्हें खुजली मालूम होती, वहां मेरा हाथ रख देतीं. और मैं बेख़्याली में, बबुए के ध्यान में डूबी मशीन की तरह खुजाती रही और वह मुतवातिर बातें करती रहीं.
‘‘सुनो तो तुम्हारी फ्राकें कम हो गई हैं. कल दर्जी को दे दूंगी, कि नई-सी लाए. तुम्हारी अम्मा कपड़ा दे गई हैं.’’
‘‘वह लाल कपड़े की नहीं बनवाऊंगी. चमारों-जैसा है!’’ मैं बकवास कर रही थी और हाथ न जाने कहां-से-कहां पहुंचा. बातों-बातों में मुझे मालूम भी न हुआ.
बेग़म जान तो चुप लेटी थीं. ‘‘अरे!’’ मैंने जल्दी से हाथ खींच लिया.
‘‘ओई लड़की! देखकर नहीं खुजाती! मेरी पसलियां नोचे डालती हैं!’’
बेग़म जान शरारत से मुस्कराईं और मैं झेंप गई.
‘‘इधर आकर मेरे पास लेट जा.’’
उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया.
‘‘अब है, कितनी सूख रही है. पसलियां निकल रही हैं.’’ उन्होंने मेरी पसलियां गिनना शुरू कीं.
‘‘ऊँ!’’ मैं भुनभुनाई.
‘‘ओइ! तो क्या मैं खा जाऊंगी? कैसा तंग स्वेटर बना है! गरम बनियान भी नहीं पहना तुमने!’’
मैं कुलबुलाने लगी.
‘‘कितनी पसलियां होती हैं?’’ उन्होंने बात बदली.
‘‘एक तरफ नौ और दूसरी तरफ दस.’’
मैंने स्कूल में याद की हुई हाइजिन की मदद ली. वह भी ऊटपटांग.
‘‘हटाओ तो हाथ हां, एक दो तीन…’’
मेरा दिल चाहा किसी तरह भागूं और उन्होंने ज़ोर से भींचा.
‘‘ऊं!’’ मैं मचल गई.
बेग़म जान ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगीं.

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अब भी जब कभी मैं उनका उस वक़्त‌ का चेहरा याद करती हूं तो दिल घबराने लगता है. उनकी आंखों के पपोटे और वज़नी हो गए. ऊपर के होंठ पर सियाही घिरी हुई थी. बावजूद सर्दी के, पसीने की नन्ही-नन्ही बूंदें होंठों और नाक पर चमक रहीं थीं. उनके हाथ ठण्डे थे, मगर नरम-नरम जैसे उन पर की खाल उतर गई हो. उन्होंने शाल उतार दी थी और कारगे के महीन कुर्तो में उनका जिस्म आटे की लोई की तरह चमक रहा था. भारी जड़ाऊ सोने के बटन गरेबान के एक तरफ़ झूल रहे थे. शाम हो गई थी और कमरे में अंधेरा घुप हो रहा था. मुझे एक नामालूम डर से दहशत-सी होने लगी. बेग़म जान की गहरी-गहरी आंखें!
मैं रोने लगी दिल में. वह मुझे एक मिट्टी के खिलौने की तरह भींच रही थीं. उनके गरम-गरम जिस्म से मेरा दिल बौलाने लगा. मगर उन पर तो जैसे कोई भूतना सवार था और मेरे दिमाग़ का यह हाल कि न चीखा जाए और न रो सकूं.
थोड़ी देर के बाद वह पस्त होकर निढाल लेट गईं. उनका चेहरा फीका और बदरौनक हो गया और लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगीं. मैं समझी कि अब मरीं यह. और वहां से उठकर सरपट भागी बाहर.
शुक्र है कि रब्बो रात को आ गई और मैं डरी हुई जल्दी से ‌लिहाफ़ ओढ़ सो गई. मगर नींद कहां? चुप घण्टों पड़ी रही.
अम्मा किसी तरह आ ही नहीं रही थीं. बेग़म जान से मुझे ऐसा डर लगता था कि मैं सारा दिन मामाओं के पास बैठी रहती. मगर उनके कमरे में क़दम रखते दम निकलता था. और कहती किससे, और कहती ही क्या, कि बेग़म जान से डर लगता है? तो यह बेग़म जान मेरे ऊपर जान छिड़कती थीं.
आज रब्बो में और बेग़म जान में फिर अनबन हो गई. मेरी क़िस्मत की ख़राबी कहिए या कुछ और, मुझे उन दोनों की अनबन से डर लगा. क्योंकि फ़ौरन ही बेग़म जान को ख़्याल आया कि मैं बाहर सर्दी में घूम रही हूं और मरूंगी निमोनिया में!
‘‘लड़की क्या मेरी सिर मुंडवाएगी? जो कुछ हो-हवा गया और आफ़त आएगी.’’
उन्होंने मुझे पास बिठा लिया. वह ख़ुद मुंह-हाथ सिलप्ची में धो रही थीं. चाय तिपाई पर रखी थी.
‘‘चाय तो बनाओ. एक प्याली मुझे भी देना.’’ वह तौलिया से मुंह ख़ुश्क करके बोली,‘‘मैं ज़रा कपड़े बदल लूं.’’
वह कपड़े बदलती रहीं और मैं चाय पीती रही. बेग़म जान नाइन से पीठ मलवाते वक़्त अगर मुझे किसी काम से बुलाती तो मैं गर्दन मोड़े-मोड़े जाती और वापस भाग आती. अब जो उन्होंने कपड़े बदले तो मेरा दिल उलटने लगा. मुंह मोड़े मैं चाय पीती रही.
‘‘हाय अम्मा!’’ मेरे दिल ने बेकसी से पुकारा,‘‘आख़िर ऐसा मैं भाइयों से क्या लड़ती हूं जो तुम मेरी मुसीबत…’’
अम्मा को हमेशा से मेरा लड़कों के साथ खेलना नापसन्द है. कहो भला लड़के क्या शेर-चीते हैं जो निगल जाएंगे उनकी लाड़ली को? और लड़के भी कौन, ख़ुद भाई और दो-चार सड़े-सड़ाये ज़रा-ज़रा-से उनके दोस्त! मगर नहीं, वह तो औरत जात को सात तालों में रखने की कायल और यहां बेग़म जान की वह दहशत, कि दुनिया-भर के गुण्डों से नहीं.
बस चलता तो उस वक़्त सड़क पर भाग जाती, पर वहां न टिकती. मगर लाचार थी. मजबूरन कलेजे पर पत्थर रखे बैठी रही.
कपड़े बदल, सोलह सिंगार हुए, और गरम-गरम ख़ुशबुओं के अतर ने और भी उन्हें अंगार बना दिया. और वह चलीं मुझ पर लाड़ उतारने.
‘‘घर जाऊंगी.’’
मैं उनकी हर राय के जवाब में कहा और रोने लगी.
‘‘मेरे पास तो आओ, मैं तुम्हें बाज़ार ले चलूंगी, सुनो तो.’’
मगर मैं खली की तरह फैल गई. सारे खिलौने, मिठाइयां एक तरफ़ और घर जाने की रट एक तरफ़.
‘‘वहां भैया मारेंगे चुड़ैल!’’ उन्होंने प्यार से मुझे थप्पड़ लगाया.
‘‘पड़े मारे भैया,’’ मैंने दिल में सोचा और रूठी, अकड़ी बैठी रही.
‘‘कच्ची अमियां खट्टी होती हैं बेग़म जान!’’
जली-कटी रब्बों ने राय दी.
और फिर उसके बाद बेग़म जान को दौरा पड़ गया. सोने का हार, जो वह थोड़ी देर पहले मुझे पहना रही थीं, टुकड़े-टुकड़े हो गया. महीन जाली का दुपट्टा तार-तार. और वह मांग, जो मैंने कभी बिगड़ी न देखी थी, झाड़-झंखाड़ हो गई.
‘‘ओह! ओह! ओह! ओह!’’ वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं. मैं रपटी बाहर.
बड़े जतनों से बेग़म जान को होश आया. जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झांकी तो रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी.
‘‘जूती उतार दो.’’ उसने उनकी पसलियां खुजाते हुए कहा और मैं चुहिया की तरह लिहाफ़ में दुबक गई.
सर सर फट खच!
बेग़म जान का ‌लिहाफ़ अंधेरे में फिर हाथी की तरह झूम रहा था.
‘‘अल्लाह! आं!’’ मैंने मरी हुई आवाज़ निकाली. लिहाफ़ में हाथी फुदका और बैठ गया. मैं भी चुप हो गई. हाथी ने फिर लोट मचाई. मेरा रोआं-रोआं कांपा. आज मैंने दिल में ठान लिया कि ज़रूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूं. हाथी फिर फड़फड़ा रहा था और जैसे उकडूं बैठने की कोशिश कर रहा था. चपड़-चपड़ कुछ खाने की आवाज़ें आ रही थीं, जैसे कोई मज़ेदार चटनी चख रहा हो. अब मैं समझी! यह बेग़म जान ने आज कुछ नहीं खाया.
और रब्बो मुई तो है सदा की चट्टू! ज़रूर यह तर माल उड़ा रही है. मैंने नथुने फुलाकर सूं-सूं हवा को सूंघा. मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की गरम-गरम ख़ुशबू के और कुछ न महसूस हुआ.
लिहाफ़ फिर उमड़ना शुरू हुआ. मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पड़ी रहूं, मगर उस लिहाफ़ ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं कि मैं लरज़ गई.
मालूम होता था, गों-गों करके कोई बड़ा-सा मेंढक फूल रहा है और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!
‘‘आ न अम्मा!’’ मैं हिम्मत करके गुनगुनाई, मगर वहां कुछ सुनवाई न हुई और ‌लिहाफ़ मेरे दिमाग़ में घुसकर फूलना शुरू हुआ. मैंने डरते-डरते पलंग के दूसरी तरफ़ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया. हाथी ने ‌लिहाफ़ के नीचे एक कलाबाज़ी लगायी और पिचक गया. कलाबाज़ी लगाने मे लिहाफ़ का कोना फुट-भर उठा, अल्लाह! मैं गड़ाप से अपने बिछौने में!!!

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