कई बार कुछ चीज़ें, बिना कुछ कहे, बहुत कुछ कह जाती हैं. केदारनाथ सिंह की इस कविता में सभा ख़त्म होने के बाद उदास पड़े जूतों की ज़रा चुप्पी ग़ौर से सुनिए.
सभा उठ गई
रह गए जूते
सूने हाल में दो चकित उदास
धूल भरे जूते
मुंहबाए जूते जिनका वारिस
कोई नहीं था
चौकीदार आया
उसने देखा जूतों को
फिर वह देर तक खड़ा रहा
मुंहबाए जूतों के सामने
सोचता रहा
कितना अजीब है
कि वक्ता चले गए
और सारी बहस के अंत में
रह गए जूते
उस सूने हाल में
जहां कहने को अब कुछ नहीं था
कितना कुछ कितना कुछ
कह गए जूते
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