जीवन यानी विरोधाभास. इन्हीं विरोधाभासों को एक कवि, एक शायर अपनी रचना में जगह देता है. दिवंगत दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल ‘कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए’ जीवन के इन्हीं विरोधाभासों को स्वर देती है.
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए
जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए
लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गए
ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहां बबूल के साए में आके बैठ गए
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