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Home बुक क्लब कविताएं

खांटी घरेलू औरत: ममता कालिया की कविताएं

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 3, 2022
in कविताएं, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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Mamta-Kalia_poems
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‘खांटी घरेलू औरत’ लेखिका-कवयित्री ममता कालिया की गृहणियों के लिए समर्पित कविताओं की श्रृंखला है. आम महिलाओं-गृणियों की ज़िंदगी आम होते हुए भी कितनी ख़ास होती है, ये कविताएं बताती हैं.

1.
कभी कोई ऊंची बात नहीं सोचती
खांटी घरेलू औरत
उसका दिन कतर-ब्योंत में बीत जाता है
और रात उधेड़बुन में
बची दाल के मैं पराठे बना लूं
खट्टे दही की कढ़ी
मुनिया की मैक्सी को ढूंढूं
कहां है साड़ी सितारों-जड़ी
सोनू दुलरुआ अभी रो के सोया
उसको दिलानी है पुस्तक
कहां तक तगादे करूं इनसे
छोड़ो
चलो आज तोडूं ये गुल्लक…

2.
मामी तेरी रोती थी रातों में
चुप-चुप
जैसे कुहरा टपका करता भिनसारे में
टुप-टुप
मैं जग जाती समझ न पाती
फिर भी कहती
‘मामी रात में नहीं रोते हैं
अपना कच्चा-पक्का सारा दिन में ही पीते हैं’
मामी कहती
‘दिन में सांस कहां मिलती है
पौ फटते ही
कुनबे की चक्की चलती है
मेरी अम्मा पारसाल परलोक सिधारी
तब से अब तक
मेरे मन में फड़फड़ करती
याद पुरानी नहीं बिसारी
गई नहीं मैं
मामा को थी कुछ लाचारी
बाबू की जल गई हथेली रोटी पोते
भले-बुरे सपनों में अक्सर चौंक जागते सोते-सोते’
और कई दुख मामी के थे नये-पुराने
‘जिस दिन से इस घर में आई
कभी नहीं मैं अपनी मर्जी जीने पाई
तेरे मामा जाते है रज्जो के द्वारे
पकी-पुरानी फितरत उनकी
मेरा पतझड़ कौन बुहारे
तोहमत-तेवर-ताने में कट गई ज़िन्दगी
ख़र्च हुए दिन कौन संवारे
उनको कोई नहीं टोकता
नहीं रोकता
कहते हैं सब
मरदों के लक्षण ये सब
मन होता है उठा सरौता दौड़ी जाऊं
बोटी-बोटी पर रज्जो की
उसका सारा रज्जोपन पी जाऊं’
तब मैं कहती
‘मामी तुम कैसी हाकिम हो
मामा जैसी ही जालिम हो
रज्जो तो तुम-जैसी दुखिया
उसके हिस्से भी तो आया
आधा-पौना जूठा मुखिया
मामा को दो सज़ा अगर इंसाफ़ चाहिए’
मामी मेरे कान ऐंठती
‘सिर्री है तू जो मुंह में आया बक देती
आएंगे जब मामा
करूंगी शिकायत
सीधी हो जाएगी तेरी सब पंचायत!’

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3.
कोई उनसे पूछे
क्यों करते थे वे प्रहार
बात से नहीं
हाथ से नहीं
लात से
बगैर सूचना
घात से
ख़ास उस दिन जब लीला सोचती
कि उसने सब्ज़ी स्वादिष्ट बनाई है।
साम्यवाद के समर्थक थे वे
क्यों नहीं कहा उन्होंने, किसी घनिष्ठ क्षण,
‘इधर आओ तुम्हारी लात की मार देखूं
वे तो चूसते रहे उसे
बोटी की तरह
मिलती रही जो उन्हें
दाल-रोटी की तरह’

4.
एक नदी की तरह
सीख गई है घरेलू औरत
दोनों हाथों में बर्तन थाम
चौके से बैठक तक लपकना
ज़रा भी लड़खड़ाए बिना

एक सांस में वह चढ़ जाती है सीढ़ियां
और घुस जाती है लोकल में
धक्का मुक्की की परवाह किए बिना
राशन की कतार उसे कभी लम्बी नहीं लगी
रिक्शा न मिले
तो दोनों हाथों में झोले लटका
वह पहुंच जाती है अपने घर
एक भी बार पसीना पोंछे बिना

एक कटोरी दही से तीन कटोरी रायता
बना लेती है खांटी घरेलू औरत
पाव भर कद्दू में घर भर को खिला लेती है
ज़रा भी घबराए बिना!

5.
उंगलियों पर गिन रही है दिन
खांटी घरेलू औरत

सोनू और मुनिया पूछते हैं
‘क्या मिलाती रहती हो मां
उंगलियों की पोरों पर’
वह कहती है ‘तुम्हारे मामा की शादी का दिन
विचार रही हूं
कब की है घुड़चढ़ी कब की बरात!’

घर का मुखिया यही सवाल करता है
तो आरक्त हो जाते हैं उसके गाल
कैसे बताए कि इस बार
ठीक नहीं बैठ रहा
माहवारी का हिसाब!

Illustration: Pinterest

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