इन दिनों देश में हिंदू और मुस्लिम नागरिकों के बीच एक अनकही-सी दीवार खींची जा रही है. जिसका मक़सद केवल वोट पाना है, लेकिन गांधी का यह देश वैमनस्यता की इन कोशिशों को कामयाब नहीं होने देगा. यही अरमान दिल में लेकर ओए अफ़लातून अपनी नई पहल के साथ हाज़िर है, जिसका नाम है- देश का सितारा. जहां हम आपको अपने देश के उन मुस्लिम नागरिकों से मिलवाएंगे, जिन्होंने हिंदुस्तान का नाम रौशन किया और क्या ख़ूब रौशन किया. इसकी छठवीं कड़ी में आप जानिए सीमांत गांधी यानी ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान को.
छह फ़ीट चार इंच के क़द वाले ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान हमेशा ही महात्मा गांधी के नक़्शेक़दम पर चले. वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान नायक थे. उनकी अहिंसक विचारधारा, सामाजिक सुधारों के लिए समर्पण और पठान समुदाय को जागृत करने के प्रयासों ने उन्हें देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी विशेष स्थान दिलाया. वर्ष 1987 में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया. वे इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले पहले ग़ैर-भारतीय बने. भारत में जहां उन्हें कई नामों से जाना जाता है- बादशाह ख़ान, ख़ान साहब, फ्रंटीयर गांधी या सीमांत गांधी, वहीं पाकिस्तान में उन्हें बाचा ख़ान कहा जाता है. आगे हम आपको ये भी बताएंगे कि आख़िर उन्हें इतने सारे नामों से क्यों जाना जाता है.
पठानों की योद्धा परंपराओं से जुड़ी पृष्ठभूमि
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का जन्म 6 फरवरी, 1890 को ब्रिटिश भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत (वर्तमान में पाकिस्तान का खैबर पख्तूनख्वा) के पेशावर के निकट उतमंजई गांव में एक समृद्ध पठान परिवार में हुआ. उनके पिता बैरम ख़ान अपने समुदाय में बहुत सम्मानित थे. उनके परिवार की जड़ें पठानों की योद्धा परंपरा से जुड़ी थीं. उनके परदादा आबेदुल्ला ख़ान एक सत्यवादी और लड़ाकू स्वभाव के व्यक्ति थे, जिन्होंने पठानी कबीलों और भारतीय स्वतंत्रता के लिए कई लड़ाइयां लड़ीं. उन्हें अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संघर्ष के कारण मृत्युदंड दिया गया था. उनके दादा सैफ़ुल्ला ख़ान भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ निरंतर संघर्ष करते रहे और पठानों की रक्षा में हमेशा आगे रहे. इस पारिवारिक पृष्ठभूमि ने ग़फ़्फ़ार ख़ान के मन में स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के प्रति गहरी भावना जागृत की.
ग़फ़्फ़ार ख़ान ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मिशनरी स्कूल में प्राप्त की. उनके पिता ने सामाजिक विरोध के बावजूद उन्हें मिशनरी स्कूल में भेजा. बाद में, वे उच्च शिक्षा के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय गए. हालांकि, उनकी मां के विरोध के कारण वे लंदन में आगे की पढ़ाई के लिए नहीं जा सके और उन्होंने अपने पिता के साथ खेती-बाड़ी में सहयोग करना शुरू कर दिया. लेकिन उनका मन तो सामाजिक सुधारों और स्वतंत्रता संग्राम में ही अधिक रमता था.
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा सामाजिक और राजनीतिक सुधारों के लिए समर्पित किया. वर्ष 1910 में, जब वे मात्र 20 वर्ष के थे, उन्होंने अपने गृहनगर उतमंजई में एक स्कूल की स्थापना की, जिसका उद्देश्य पठान समुदाय में शिक्षा का प्रसार करना था. यह स्कूल अंग्रेज़ों को रास नहीं आया और वर्ष 1915 में इस स्कूल को प्रतिबंधित कर दिया गया. इस घटना ने उनके मन में अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह की भावना को और मज़बूत कर दिया.
वर्ष 1919 में, जब अंग्रेज़ों ने पेशावर में ‘मार्शल लॉ’ लागू किया तो ग़फ़्फ़ार ख़ान ने शांति का प्रस्ताव रखा, लेकिन इसके बावजूद उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. जेल में बिताए गए समय ने उनकी अहिंसक विचारधारा को और पक्का कर दिया. वर्ष 1929 में, उन्होंने ‘ख़ुदाई ख़िदमतगार’ (ईश्वर के सेवक) नामक संगठन की स्थापना की. यह संगठन अहिंसा और सामाजिक सेवा के सिद्धांतों पर आधारित था और इसका लक्ष्य पठानों को राजनीतिक रूप से जागृत करना और ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ अहिंसक प्रतिरोध करना था. इस संगठन को ‘लाल कुर्ती दल’ भी कहा जाता था, क्योंकि इसके सदस्य लाल रंग के कुर्ते पहनते थे.
वर्ष 1930 में, महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह के दौरान ग़फ़्फ़ार ख़ान को 23 अप्रैल को गिरफ़्तार कर लिया गया. उनकी गिरफ़्तारी के विरोध में पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में ख़ुदाई ख़िदमतगारों ने अहिंसक प्रदर्शन किया. अंग्रेज़ों ने इस प्रदर्शन पर मशीनगनों से गोलीबारी की, जिसमें लगभग 200 से अधिक लोग मारे गए. लेकिन इस नरसंहार के बावजूद, ख़ुदाई ख़िदमतगारों ने हिंसा का जवाब हिंसा से नहीं दिया, जिसने उनकी अहिंसक प्रतिबद्धता को विश्व के सामने प्रदर्शित किया. गढ़वाल राइफ़ल्स की दो टुकड़ियों ने निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया, जिसके लिए अंग्रेज़ सरकार द्वारा उन टुकड़ियों के सैनिकों का कोर्ट मार्शल किया गया.
वर्ष 1930 के दशक के अंत तक, ग़फ़्फ़ार ख़ान महात्मा गांधी के निकटतम सलाहकारों में से एक बन गए. उनके संगठन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ मिलकर स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय योगदान दिया. वर्ष 1937 के प्रांतीय चुनावों में, उनके भाई डॉ. ख़ान अब्दुल जब्बर ख़ान के नेतृत्व में कांग्रेस ने उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में बहुमत हासिल किया. ग़फ़्फ़ार ख़ान ने वर्ष 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भी उत्साहपूर्वक भाग लिया. इसके बाद उन्हें फिर से जेल में डाल दिया गया.
महात्मा गांधी से प्रेरणा
ग़फ़्फ़ार ख़ान और महात्मा गांधी की मुलाकात वर्ष 1919 में रॉलेट ऐक्ट के विरोध के दौरान हुई. गांधी जी की अहिंसा और सत्याग्रह की विचारधारा ने ग़फ़्फ़ार ख़ान को गहरे तक प्रभावित किया. हालांकि, कुछ स्रोतों के अनुसार, ग़फ़्फ़ार ख़ान ने कुरान के अध्ययन से पहले ही अहिंसा का दर्शन आत्मसात कर लिया था. फिर भी, गांधी जी के साथ उनकी दोस्ती और विचारों का आदान-प्रदान उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया. वर्ष 1928 में उनकी मुलाकात के बाद, दोनों के बीच एक आध्यात्मिक और वैचारिक रिश्ता स्थापित हुआ, जो लंबे समय तक अटूट रहा.
ग़फ़्फ़ार ख़ान ने जेल में गीता, कुरान और गुरु ग्रंथ साहिब का अध्ययन किया और हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए जेल में इन ग्रंथों की कक्षाएं शुरू कीं. उनकी यह पहल धार्मिक एकता और अहिंसा के प्रति उनकी गहरी निष्ठा को दर्शाती है. गांधी जी के सिद्धांतों से प्रेरित होकर, उन्होंने पठानों, जो परंपरागत रूप से योद्धा समुदाय माने जाते थे, को अहिंसा का पाठ पढ़ाया. उनके नेतृत्व में, ख़ुदाई ख़िदमतगार ने एक लाख से अधिक पठानों को अहिंसक प्रतिरोध के लिए संगठित किया.
विभिन्न नाम और उनके पीछे की कहानी
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को उनके कार्यों और व्यक्तित्व के कारण कई नामों से जाना गया. उन्हें उनके उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (फ्रंटीयर) से होने के अलावा उनकी अहिंसक विचारधारा और गांधी जी के साथ घनिष्ठ संबंधों के कारण सीमांत गांधी या फ्रंटीयर गांधी नाम मिला.
उनके करिश्माई नेतृत्व और पठान समुदाय में उनके प्रभाव के कारण उन्हें ‘पठानों का बादशाह’ कहा गया. वर्ष 1915-1918 के दौरान 500 गांवों की यात्रा के बाद उन्हें बादशाह ख़ान कहा गया.
उन्हें बाचा ख़ान कहे जाने के पीछे ये कारण है कि पश्तो भाषा में ‘बाचा’ का अर्थ ‘राजा’ होता है. उनके दृढ़ स्वभाव और नेतृत्व के कारण पठान समुदाय ने उन्हें यह नाम दिया.
भारत रत्न और बाद का जीवन
वर्ष 1947 में भारत के विभाजन ने ग़फ़्फ़ार ख़ान को गहरा दुख पहुंचाया. वे एक संयुक्त, स्वतंत्र, और धर्मनिरपेक्ष भारत के पक्षधर थे. उन्होंने विभाजन का कड़ा विरोध किया और कहा कि कांग्रेस ने उन्हें (जहां उनका मतलब उनके उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत यानी फ्रंटीयर से था) “भेड़ियों के हवाले” कर दिया. विभाजन के बाद, उनका क्षेत्र पाकिस्तान का हिस्सा बन गया और उन्हें पाकिस्तानी सरकार द्वारा ‘देशद्रोही’ करार दिया गया. इसके बावजूद, उन्होंने पठानों के अधिकारों के लिए संघर्ष जारी रखा, जिसके कारण उन्हें बार-बार जेल में डाला गया. अपने जीवन के 98 वर्षों में से उन्होंने लगभग 35 साल जेल में बिताए.
वर्ष 1987 में, भारत सरकार ने उनके स्वतंत्रता संग्राम और अहिंसा के प्रति योगदान को मान्यता देते हुए उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया. वे इस सम्मान को प्राप्त करने वाले पहले गैर-भारतीय बने. 20 जनवरी, 1988 को पेशावर में नजरबंदी के दौरान स्ट्रोक के कारण उनकी मृत्यु हो गई. उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, उन्हें अफ़गानिस्तान के ज़लालाबाद में दफ़नाया गया.
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का जीवन अहिंसा, सामाजिक सुधार और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण का प्रतीक है. उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि ने उन्हें संघर्ष की भावना दी, जबकि गांधी जी की प्रेरणा ने उनकी अहिंसक विचारधारा को मज़बूत किया. उनके संगठन ‘ख़ुदाई ख़िदमतगार’ ने पठानों को एक नई दिशा दी. उन्हें गांधी जी के सच्चे अनुयायी के रूप में सदैव याद रखा जाएगा.