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Home ओए एंटरटेन्मेंट

रश्मि रॉकेट: असमानता के चक्रव्यूह को तोड़ने की जद्दोजहद

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
October 16, 2021
in ओए एंटरटेन्मेंट, ज़रूर पढ़ें, रिव्यूज़
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रश्मि रॉकेट: असमानता के चक्रव्यूह को तोड़ने की जद्दोजहद
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हम चाहे जितनी गुहार लगा लें कि अब समाज बदल रहा है, लड़के-लड़कियों के साथ समान व्यवहार हो रहा है, जाति, समुदाय, वर्ग के भेद मिटते जा रहे हैं, मगर यह सब ऊपरी खोल तक ही सीमित है. जैसे ही खोल के अन्दर जाकर सच्चाई को परखा जाता है, विद्रूप हक़ीक़त नंगी होकर सामने आ जाती है. कुछ इसी तरह की कहानी है फ़िल्म रश्मि रॉकेट की. पढ़िए, इस फ़िल्म के बारे में भारती पंडित का रिव्यू.

फ़िल्म: रश्मि रॉकेट
सितारे: तापसी पन्नू, प्रियांशु पैन्यूली, श्वेता त्रिपाठी, विकी कादियान
स्टोरी: नंदा पेरियासामी
ओटीट प्लैटफ़ॉर्म: ज़ी5

डायरेक्टर: आकर्ष खुराना

दफ़्तर का कर्मक्षेत्र हो या खेल का मैदान, महिला होने का ख़ामियाज़ा भुगतना ही पड़ता है और उससे भी बढ़कर यदि सामान्य क्षेत्र से आई महिला असाधारण प्रतिभा की धनी है तो उसके लिए इस सबका ख़ामियाज़ा भुगतना अपरिहार्य ही है. यह कहानी ऐसी ही महिला ऐथ्लीट्स की व्यथा को दर्शाती है, जो असाधारण प्रतिभा की धनी रहीं, मगर न तो उनके आका स्पोर्ट्स एसोसिएशन के सदस्य रहे, न वे किसी बड़े घराने की वारिस रहीं. इसके चलते मैदान में उनका असाधारण प्रदर्शन ही उनके लिए बड़ी परेशानी बन गया और इसी तरह के बेवजह आरोपों के चलते न जाने कितने खिलाड़ियों कितनों के करियर बर्बाद हो गए और कितनों ने आत्महत्या कर ली.

महिला ऐथ्लीट्स के लिए जेंडर परीक्षण, ऐसा परीक्षण है जो उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता रहा है, जिससे यह बताने की कोशिश की जाती है कि यह महिला महिला है भी या फिर महिला की काया में पुरुष है… यानी उसके शरीर में पुरुष हॉर्मोन की मात्रा तय मात्रा से अधिक हो तो उसे पुरुष तत्व अधिक होने के आरोप में खेल से बैन कर दिया जाता है. जबकि विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि पुरुष हॉर्मोन की अधिकता से महिला को कोई लाभ नहीं होता, न ही उसका महिलापन ख़त्म होता है, वरन उससे उसके शरीर को नुक़सान ही होता है. बावजूद इसके भारतीय खेल प्राधिकरण लगातार इस तरह के परीक्षणों को मान्यता देते हुए महिला ऐथ्लीट्स के करियर, प्रतिष्ठा और जीवन से खिलवाड़ करता आया है. पुरुषों को ऐसे किसी परीक्षण से नहीं गुज़रना पड़ता.

ऐसी ही एक ऐथ्लीट है रश्मि वीरा, जिसकी यह कहानी है. कच्छ में भुज इलाक़े की रहने वाली रश्मि को बचपन से ही उसके पिता ने लड़की होने की परम्परा से हटकर बराबरी से पाला. डीलडौल में लड़कियों को मात करती रश्मि के पिता ट्रैकिंग गाइड है और रश्मि भी उनके साथ ट्रैकिंग पर जाती है. रश्मि तेज़ भागती है और उसे गांव में सभी रॉकेट कहकर बुलाते हैं, मगर बचपन में हुई एक दुर्घटना के चलते उसने दौड़ से किनारा कर लिया है. कच्छ के आर्मी बेस के सभी अधिकारी भी रश्मि से ख़ूब स्नेह करते हैं.

इसी बीच कच्छ के आर्मी बेस में आए मैराथन के कोच गगन ठाकुर और दो अफ़सर रश्मि को लेकर रण में  जाते हैं. वहां घटी एक दुर्घटना के बीच उसका ध्यान रश्मि की दौड़ पर जाता है और वह रश्मि को दौड़ स्पर्धाओं का हिस्सा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. बड़ी मुश्क़िल से रश्मि इसके लिए तैयार होती है और इसके बाद लगातार मिलती सफलताओं से उसे नैशनल ऐथ्लीट टीम में लिया जाता है.

यहां से शुरू होता है रश्मि का संघर्ष, जहां उसे छोटे प्रदेश, छोटे घर से आने, बाक़ी लड़कियों से अलग होने और प्रभावशाली लोगों से संपर्क न होने का लगातार ख़ामियाज़ा तिरस्कार के रूप में उठाना पड़ता है. इस सबके बावजूद वह एशियन खेलों में असाधारण प्रदर्शन करती है और यही उसके गले की हड्डी बन जाता है. खेल प्राधिकरण के एक सदस्य अपनी रिश्तेदार को लाभ पहुंचाने की ज़िद में न केवल रश्मि का अमानवीय तरीक़े से जेंडर परीक्षण करवाते हैं, वरन उससे बुरा व्यवहार करते हुए उसे खेलों से बैन कर देते हैं. मीडिया पूरे मामले में अपनी अमानवीयता दर्शाता है.

रश्मि के साथ उसके संघर्ष में भागीदार बनते हैं अफ़सर गगन ठाकुर, जो अब रश्मि के जीवन साथी हैं और वक़ील इशित जो रश्मि जैसी एथलीट्स को न्याय दिलाने के लिए लड़ रहा है.

कोर्ट रूम की जद्दोजहद से गुज़रती हुई यह फ़िल्म अंत में न्याय का परचम बुलंद करती है और साथ ही भारतीय खेल प्राधिकरण के कई नियमों, प्रोटोकॉल पर सवाल उठाती चलती है. वक़ील इशित का सवाल है- जब भारत के खिलाड़ियों की परिस्थितियां भिन्न हैं तो यहां विदेशी नियम क्यों? आप अपने नियम क्यों नहीं बनाते? सच यही है कि खेल ही क्या, क़ानून, पुलिस हर जगह हम उधार के नियमों पर ही टिके हुए हैं और जनता का भयानक नुक़सान करते जा रहे हैं.

तापसी पन्नू इस फ़िल्म के केंद्र में हैं, उन्होंने काफी मेहनत की है इस फिल्म के लिए, मगर जब भी बोलीं, मुम्बई की तापसी पन्नू ही लगीं. गुजराती लहजे को बातचीत में लातीं, तो मज़ा आता. बाक़ी अभिनय शानदार ही है. आर्मी अफ़सर और रश्मि के प्रेमी की भूमिका में प्रियांशु पैन्यूली अच्छे लगे हैं, किसी छल-कपट से रहित, एकदम सच्चे सहयोगी, सच्चे पार्टनर से… अपनी पत्नी की लड़ाई में पूरी तारह से उसके साथ. इशित की भूमिका में अभिषेक अच्छे लगे हैं. सुप्रिया सिंह तापसी की मां यानी भानु बेन की भूमिका में अच्छी लगी है. रोनी स्क्रूवाला का निर्देशन चुस्त है, शुरुआत के कुछ सीन थोड़े नाटकीय बन पड़े हैं, पर फिर भी गले से उतर जाते हैं. बाक़ी का हिस्सा एकदम कसा हुआ है. कच्छ के रण को कुछ दृश्यों में अच्छे से फ़िल्माया है. पूरी फ़िल्म घटना प्रधान है तो फ़ोटोग्राफ़ी के लिए ज़्यादा स्कोप नहीं था. संवादों के कुछ पंच शानदार बन पड़े हैं.

फ़िल्म के अंत में दिखाया है कि रश्मि गर्भवती हो जाती हैं, फिर भी अगली दौड़ के ट्रायल्स में हिस्सा लेती हैं, जिसे देखना नया हौसला देता है.

पर कड़वा सच यही है कि बराबरी के लिए अभी लम्बी लड़ाई लड़नी है महिलाओं को. और यह लड़ाई जाति, धर्म, समुदाय, स्थान हर मोर्चे पर लड़ी जानी है, प्रभावशाली लोगों की सोच से लड़ी जानी है, प्रतिस्पर्धी महिलाओं से लड़ी जानी है और नामी वक़ीलों की झूठी पुरज़ोर दलीलों से भी लड़ी जानी है. और ऐसे में हर रश्मि के साथ गगन, भानु बेन और इशित का खड़े होना बहुत ज़रूरी है.

तो इस फ़िल्म को ज़रूर देखिए, एक बार नहीं, दो-तीन बार देखिए, संवादों के मर्म तक जाइए और महिला खिलाड़ियों की जद्दोजहद को समझिए. महिला और पुरुष के लिए तय खांचे समाज ने बनाए हैं, प्रकृति ने नहीं… इसे भी समझिए और सोच में बदलाव का आगाज़ कीजिए.

फ़ोटो: गूगल

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