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अबाबील: कहानी एक ग़ुस्सैल आदमी की (लेखक: ख़्वाजा अहमद अब्बास)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 4, 2022
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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अबाबील: कहानी एक ग़ुस्सैल आदमी की (लेखक: ख़्वाजा अहमद अब्बास)
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हर इंसान बदल सकता है और वह बदलाव किसी एक दिन अचानक हो जाता है. जानेमाने फ़िल्मकार-लेखक रहे ख़्वाजा अहमद अब्बास की मशहूर कहानी ‘अबाबील’ का मुख्य पात्र रहीम ख़ां एक ऐसा ही ग़ुस्सैल और हिंसक आदमी है, जिससे लोग डरते हैं.

उसका नाम तो रहीम ख़ां था मगर उस जैसा ज़ालिम भी शायद ही कोई हो. गांव-भर उसके नाम से कांपता था-न आदमी पर तरस खाए, न जानवर पर. एक दिन रामू लुहार के बच्चे ने उसके बैल की दुम में कांटे बांध दिए थे तो मारते-मारते उसको अधमुआ कर दिया. अगले दिन ज़ैलदार की घोड़ी उसके खेत में घुस आयी तो लाठी लेकर इतना मारा कि लहूलुहान कर दिया. लोग कहते थे कि कम्बख़्त को ख़ुदा का ख़ौफ़ भी तो नहीं है. मासूम बच्चों और बेज़बान जानवरों तक को माफ़ नहीं करता. ये ज़रूर जहन्नम में जलेगा. मगर ये सब उसकी पीठ के पीछे कहा जाता था. सामने किसी की हिम्मत ज़बान हिलाने की न होती थी.
एक दिन बिन्दु की जो शामत आयी तो उसने कह दिया,“अरे भई रहीम ख़ां, तू क्यों बच्चों को मारता है.”
बस उस ग़रीब की वो दुर्गत बनायी कि उस दिन से लोगों ने बात भी करनी छोड़ दी कि मालूम नहीं किस बात पर बिगड़ पड़े.
बाज़ का ख़याल था कि उसका दिमाग़ ख़राब हो गया है. इसको पागलखाने भेजना चाहिए. कोई कहता था अब के किसी को मारे तो थाने में रपट लिखवा दो. मगर किस की मजाल थी कि उसके ख़िलाफ़ गवाही देकर उससे दुश्मनी मोल लेता.
गांव-भर ने उससे बात करनी छोड़ दी. मगर उस पर कोई असर न हुआ. सुब्ह-सवेरे वो हल कांधे पर धरे अपने खेत की तरफ़ जाता दिखायी देता था. रास्ते में किसी से न बोलता. खेत में जाकर बैलों से आदमियों की तरह बातें करता. उसने दोनों के नाम रखे हुए थे. एक को कहता था नत्थू, दूसरे को छिद्दू. हल चलाते हुए बोलता जाता,“क्यूं बे नत्थू, तू सीधा नहीं चलता. ये खेत आज तेरा बाप पूरे करेगा. और अबे छिद्दू तेरी भी शामत आयी है क्या.” और फिर उन ग़रीबों की शामत आ ही जाती. सूत की रस्सी की मार. दोनों बैलों की कमर पर ज़ख़्म पड़ गए थे.
शाम को घर आता तो वहां अपने बीवी-बच्चों पर ग़ुस्सा उतारता. दाल या साग में नमक है, बीवी को उधेड़ डाला. कोई बच्चा शरारत कर रहा है, उसको उल्टा लटकाकर बैलों वाली रस्सी से मारते-मारते बेहोश कर दिया. ग़रज़ हर-रोज़ एक आफ़त बपा रहती थी. आसपास के झोंपड़ों वाले रोज़ रात को रहीम ख़ां की गालियों, उसके बीवी और बच्चों के मार खाने और रोने की आवाज़ सुनते मगर बेचारे क्या कर सकते थे! अगर कोई मना करने जाए तो वो भी मार खाए. मार खाते-खाते बीवी ग़रीब तो अधमुइ हो गई थी. चालीस बरस की उम्र में साठ साल की मालूम होती थी. बच्चे जब छोटे-छोटे थे तो पिटते रहे. बड़ा जब बारह बरस का हुआ तो एक दिन मार खाकर जो भागा तो फिर वापस ना लौटा. क़रीब के गांव में एक रिश्ते का चचा रहता था. उसने अपने पास रख लिया. बीवी ने एक दिन डरते-डरते कहा,“बिलासपुर की तरफ़ जाओ, ज़रा नूरू को लेते आना.”
बस फिर क्या था आग बगूला हो गया,“मैं उस बदमाश को लेने जाऊं? अब वो ख़ुद भी आया तो टांगें चीरकर फेंक दूंगा.”
वो बदमाश क्यों मौत के मुंह में वापस आने लगा था. दो साल के बाद छोटा लड़का बिन्दु भी भाग गया और भाई के पास रहने लगा. रहीम ख़ां को ग़ुस्सा उतारने के लिए फ़क़त बीवी रह गई थी सो वो ग़रीब इतनी पिट चुकी थी कि अब आदी हो चली थी. मगर एक दिन उसको इतना मारा कि उससे भी न रहा गया. और मौक़ा पाकर जब रहीम ख़ां खेत पर गया हुआ था, वो अपने भाई को बुलाकर उसके साथ अपनी मां के यहां चली गई. हमसाया की औरत से कह गई कि आएं तो कह देना कि मैं चन्द रोज़ के लिए अपनी मां के पास राम नगर जा रही हूं.
शाम को रहीम ख़ां बैलों को लिए वापस आया तो पड़ोसन ने डरते-डरते बताया कि उसकी बीवी अपनी मां के यहां चन्द रोज़ के लिए गयी है. रहीम ख़ां ने ख़िलाफ़ मामूल ख़ामोशी से बात सुनी और बैल बांधने चला गया. उसको यक़ीन था कि उसकी बीवी अब कभी न आएगी.
अहाते में बैल बांधकर झोंपड़े के अन्दर गया तो एक बिल्ली मियाऊं मियाऊं कर रही थी. कोई और नज़र न आया तो उसकी ही दुम पकड़कर दरवाज़े से बाहर फेंक दिया. चूल्हे को जाकर देखा तो ठण्डा पड़ा हुआ था. आग जलाकर रोटी कौन डालता. बग़ैर कुछ खाए-पिए ही पड़कर सो रहा.
अगले दिन रहीम ख़ां जब सोकर उठा तो दिन चढ़ चुका था. लेकिन आज उसे खेत पर जाने की जल्दी न थी. बकरियों का दूध दूह कर पिया और हुक़्क़ा भरकर पलंग पर बैठ गया. अब झोंपड़े में धूप भर आयी थी. एक कोने में देखा तो जाले लगे हुए थे. सोचा कि लाओ सफ़ाई ही कर डालूं. एक बांस में कपड़ा बांधकर जाले उतार रहा था कि खपरैल में अबाबीलों का एक घोंसला नज़र आया. दो अबाबीलें कभी अन्दर जाती थीं, कभी बाहर आती थीं. पहले उसने इरादा किया कि बांस से घोंसला तोड़ डाले. फिर मालूम नहीं क्या सोचा. एक घड़ौंची लाकर उस पर चढ़ा और घोंसले में झांककर देखा. अन्दर दो लाल बूटी से बच्चे पड़े चूं चूं कर रहे थे. और उनके मां बाप अपनी औलाद की हिफ़ाज़त के लिए उसके सर पर मण्डरा रहे थे. घोंसले की तरफ़ उसने हाथ बढ़ाया ही था कि मादा अबाबील अपनी चोंच से उस पर हमलवर हुई.
“अरी, आंख फोड़ेगी!”, उसने अपना ख़ौफ़नाक क़हक़हा मारकर कहा. और घड़ौंची पर से उतर आया. अबाबीलों का घोंसला सलामत रहा.
अगले दिन से उसने फिर खेत पर जाना शुरू कर दिया. गांव वालों में से अब भी कोई उससे बात न करता था. दिन-भर हल चलाता, पानी देता या खेती काटता. लेकिन शाम को सूरज छिपने से कुछ पहले ही घर आ जाता. हुक़्क़ा भरकर पलंग के पास लेटकर अबाबीलों के घोंसले की सैर देखता रहता. अब दोनों बच्चे भी उड़ने के क़ाबिल हो गए थे. उसने उन दोनों के नाम अपने बच्चों के नाम पर नूरो और बिन्दु रख दिए थे. अब दुनिया में उसके दोस्त ये चार अबाबील ही रह गए थे. लेकिन उनको ये हैरत ज़रूर थी कि मुद्दत से किसी ने उसको अपने बैलों को मारते न देखा था. नत्थू और छिद्दू ख़ुश थे. उनकी कमरों पर से ज़ख़्मों के निशान भी तक़रीबन ग़ायब हो गए थे.
रहीम ख़ां एक दिन खेत से ज़रा सवेरे चला आ रहा था कि चन्द बच्चे सड़क पर कुण्डी खेलते हुए मिले. उसको देखना था कि सब अपने जूते छोड़कर भाग गए. वो कहता ही रहा,“अरे मैं कोई मारता थोड़ा ही हूं.”
आसमान पर बादल छाए हुए थे. जल्दी-जल्दी बैलों को हांकता हुआ घर लाया. उनको बांधा ही था कि बादल ज़ोर से गरजा और बारिश शुरू हो गई.
अन्दर आकर किवाड़ बन्द किए और चिराग़ जलाकर उजाला किया. हस्ब-ए-मामूल बासी रोटी के टुकड़े करके अबाबीलों के घोंसले के क़रीब एक ताक़ में डाल दिये.
“अरे ओ बिन्दु. अरे ओ नूरो.” पुकारा मगर वो न निकले. घोंसले में जो झांका तो चारों अपने परों में सर दिए सहमे बैठे थे. ऐन जिस जगह छत में घोंसला था, वहां एक सुराख़ था और बारिश का पानी टपक रहा था. अगर कुछ देर ये पानी इस तरह ही आता रहा तो घोंसला तबाह हो जाएगा और अबाबीलें बेचारी बेघर हो जाएंगी. ये सोचकर उसने किवाड़ खोले और मूसलाधार बारिश में सीढ़ी लगाकर छत पर चढ़ गया. जब मिट्टी डालकर सुराख़ को बन्द करके वो उतरा तो शराबोर था. पलंग पर जाकर बैठा तो कई छींकें आयीं. मगर उसने परवाह न की और गीले कपड़ों को निचोड़ चादर ओढ़कर सो गया.
अगले दिन सुबह को उठा तो तमाम बदन में दर्द और सख़्त बुख़ार था. कौन हाल पूछता और कौन दवा लाता. दो दिन उसी हालत में पड़ा रहा.
जब दो दिन उस को खेत पर जाते हुए न देखा तो गांव वालो को तश्वीश हुई. कालू ज़ैलदार और कई किसान शाम को उसके झोंपड़े में देखने आए. झांककर देखा तो पलंग पर पड़ा आप ही आप बातें कर रहा था.
“अरे बिन्दु. अरे नूरू. कहां मर गए. आज तुम्हें कौन खाना देगा.”
चन्द अबाबीलें कमरे में फड़फड़ा रही थीं.
“बेचारा पागल हो गया है.” कालू ज़मींदार ने सर हिलाकर कहा.
“सुबह को शिफ़ाख़ाना वालों को पता देंगे कि पागलख़ाना भिजवा दें.”
अगले दिन सुबह को जब उसके पड़ोसी शिफ़ाख़ाना वालों को लेकर आए और उसके झोंपड़े का दरवाज़ा खोला तो वो मर चुका था. उसकी पाएंती चार अबाबीलें सर झुकाए ख़ामोश बैठी थीं.

Illustration: Pinterest

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