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खोटे सिक्के: कहानी भारत और इंडिया की (लेखिका: मन्नू भंडारी)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
June 13, 2021
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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खोटे सिक्के: कहानी भारत और इंडिया की (लेखिका: मन्नू भंडारी)
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एक है भारत और दूजा इंडिया. दोनों एक ही हैं, पर कितने अलग-अलग हैं, लोकप्रिय कहानीकार मन्नू भंडारी जी की कहानी खोटे सिक्के बता जाती है.

‘जी, इन्हें कहां रखूं?’
एक सहमी-सी आवाज़ पर सब घूम पड़े. देखा एक छोटा लड़का थैली हाथ में लिए भयभीत-सा खड़ा है.
‘क्या है इसमें?’ कड़ककर मि. खन्ना ने पूछा? आवाज़ में ऊंचे पद का गर्व बोल रहा था.
‘जी…जी खोटे सिक्के हैं. वहां मेरा बाबा खोटे सिक्के चुन रहा है. उसी ने भेजे हैं.’ डर के मारे लड़के के गले से पूरी तरह आवाज़ भी नहीं निकल रही थी.
‘तो इन्हें यहां क्यों लाया है-जा उधर ले जा.’ झिड़ककर खन्ना साहब ने लड़के को भगा दिया. हर बात को जानने के लिए बेहद उत्सुक छात्राओं के दल में से एक ने पूछा,‘टकसाल में खोटे सिक्के कैसे आए?’ स्वर काफ़ी मीठा था. निरन्तर बड़ी-बड़ी मशीनों की कर्कश आवाज़ सुनने के आदी खन्ना साहब को लगा जैसे किसी ने मिसरी घोलकर कानों में उंडेल दी हो. क्रोध और रौब को एक ओर हटाकर, होंठों पर मधुर मुस्कान और आवाज़ में स्निग्धता लाकर बोले,‘देखिए, बहुत सावधानी के बावजूद कभी-कभी बहुत सारे सिक्के बिगड़ ही जाते हैं. जहां सिक्के ढलते हैं, अगर उस मशीन में ज़रा-सी भी ख़राबी हो जाती है तो सारे सिक्कों की शेप बिगड़ जाती है और फिर उनकी गिनती खोटे सिक्कों में होने लगती है.’
‘टकसालवाले करते क्या हैं इन खोटे सिक्कों का?’ एक ओर से प्रश्न आया.
‘चला देते होंगे, और क्या? देखती नहीं, बाज़ार में कितने खोटे सिक्के चलते हैं.’ बड़े ही शोख ढंग से दूसरी ओर से शंका का समाधान हुआ. ‘जी नहीं, खोटे सिक्कों को हम चला नहीं देते, वापस टकसाल में ही खपाते हैं. जो चीज़ हमारी टकसाल में खोटी होती है उसकी ज़िम्मेदारी तो हमारी है. उसे बाहर क्यों भेजेंगे भला?’ खन्ना साहब ने इस ढंग से कहा मानो बता रहे हों कि देखो हमारी नैतिकता को. हमें क्या इतना गया-गुज़रा समझा है कि अपनी ग़लती को दूसरों के सिर मढ़ दें?
खन्ना साहब टकसाल के उच्च पदाधिकारी हैं. वे गाइड का काम कभी नहीं करते. पर परसों जब उन्हें सूचना मिली कि लखनऊ से किसी कॉलेज की छात्राओं का एक दल कलकत्ते के दर्शनीय स्थानों को देखने के लिए आया है और वे टकसाल देखने की भी अनुमति चाहती हैं तो सहर्ष अनुमति देने के साथ ही दिखाने के लिए भी वे स्वयं ही तैनात हो गए. ठीक ग्यारह बजे बस पर से क़रीब बीस-बाईस छात्राओं ने दो अध्यापिकाओं के साथ टकसाल में प्रवेश किया. रंग-बिरंगे दुपट्टों और विभिन्न प्रकार के सेंटों की मिली-जुली सुगन्धि से जैसे एकाएक ही वहां मधुमास आ गया. बड़े तपाक से खन्ना साहब ने सबका स्वागत किया और बड़ी नम्रता से अपना परिचय दिया. उससे भी अधिक शालीनता और विनय से परिचय दिया अपने पद-गौरव का. फिर एकबार सतर्क नज़रों से सबके चेहरों को पढ़ा कि उस पद का रौब आंखें फाड़-फाड़कर अपने चारों ओर देखतीं, खुसर-फुसर करतीं, एक दूसरी को ठेलतीं उन लड़कियों पर भी पड़ा या नहीं? इसके बाद टकसाल का संक्षिप्त इतिहास बताते हुए, उन्होंने अंदर प्रवेश किया. एक चपल-सी छात्रा ने अपने स्वभाव से भी अधिक चपल दुपटूटे को क़ाबू में रखने का प्रयास करते कहा,‘हमारी तलाशी नहीं ली जाएगी टकसाल में? सुनते हैं कि यहां घुसते और निकलते हुए सबकी तलाशी ली जाती है.’
‘आप लोग तो हमारी मेहमान हैं. मेहमानों की भी कोई तलाशी लेता है भला? वह तो यहां काम करनेवाले मज़दूरों की तलाशी ली जाती है.’ मुस्कराकर खन्ना साहब ने कहा.
सबसे पहले वे एक बड़े से हॉल में पहुंचे, जहां कई भट्टियां बनी हुई थीं. ‘इन भट्टियों में कच्चे धातु को गलाया जाता है.’ यह कहकर जैसे ही खन्ना साहब ने एक भट्टी के मुंह का ढक्कन खोला कि भट्टी के पास झुंड लगाकर खड़ी लड़कियां झटका खाकर दो क़दम पीछे हट गईं. आग की एक लहर जैसे सबको झुलसा गई. खन्ना साहब ने बताया,‘यह तो साधारण भट्टी है. आपको बिजली की भट्टी भी दिखाऊंगा, उसमें तो आप बिना रंगीन चश्मा चढ़ाए देख भी नहीं सकतीं. लगता है जैसे सूरज सामने उतर आया हो.’ इसके बाद उन्होंने सारी प्रक्रिया समझाई कि किस प्रकार कच्चे धातु को गलाकर सिक्कों के उपयुक्त बनाया जाता है, और उसके लम्बे-लम्बे बार्स बनाए जाते हैं. बड़े धैर्य और रुचि के साथ वे हाथों का संकेत कर-कर के समझा रहे थे और सारी छात्राएं उनके चेहरे पर यों नज़र गड़ाए सुन रही थीं मानो वहां का सारा ज्ञान सोख लेंगी. खन्ना साहब कोई चीज़ हाथ में उठाते तो बीस-बाईस सिर इस तरह चारों ओर घिर आते मानो, गुड़ की डली पर मक्खियां बैठ गई हों. जिस किसी भी हॉल से वे गुज़रते, वहां काम करनेवालों की गति अपने आप ही बढ़ जाती. वे और अधिक मनोयोग और कुशलता से काम करने लगते. कभी-कभी खन्ना साहब किसी मशीन के पास खड़े हो जाते और रौबीले स्वर में हुक़्म देते,‘मशीन को चला दो.’ झटके से मशीन चलाई जाती और खन्ना साहब उसका सारा ब्योरा समझाते. साथ में आई हुई अधेड़ावस्था की अध्यापिकाएं शुरू से ही खन्ना साहब की उपेक्षा पा रही थीं. उन्हें खन्ना साहब का लड़कियों में यह आवश्यकता से अधिक दिलचस्पी और आकर्षण अच्छे नहीं लग रहे थे. वे ठेलमेल में कभी जाने-अनजाने में लगे हलके-फुलके धक्कों को भी काफ़ी सन्देह की नज़र से देखकर जब-तब छात्राओं को फटकार देती थीं,‘तुम लोग सिर पर ही क्यों चढ़ी जाती हो? दूर रहकर क्यों नहीं देखती-सुनतीं?’ और एक बार छात्राओं के झुंड और खन्ना साहब में सन्तोषजनक दूरी उत्पन्न कर देतीं, पर छात्राओं की अत्यधिक जिज्ञासा और आतुरता, तथा खन्ना साहब की आवश्यकता से अधिक रुचि में वह दूरी कब और कहां खो जाती, कोई जान ही नहीं पाता.
घूमते-घूमते वे एक बड़े से हॉल में आए, जहां की दैत्याकार मशीनें कान के पर्दे फाड़ देनेवाली आवाज़ से बेतहाशा दहाड़ रही थीं. खन्ना साहब के शब्द उस भीषण गर्जना में ही खो जाते थे. परिस्थिति का फ़ायदा उठाकर मुंह को अति निकट लाकर वे बता रहे थे,‘यहां पर तैयार धातु के बड़े-बड़े बार्स को पतला किया जाता है.’ छात्राएं मशीनों से काफ़ी दूर खड़ी थीं फिर भी उनका शरीर जैसे झुलसा जा रहा था. आग से लाल लम्बी-लम्बी सलाखें पटापट ऊपर से नीचे गिर रही थीं, और नीचे हाथों में बड़ी-बड़ी संडासियां लिए मज़दूर उन सलाखों को उसी गति के साथ उठा-उठाकर पास ही पानी की नालियों में पटकते जा रहे थे. नालियों का पानी बुरी तरह खौल रहा था और उनमें से गरम-गरम भाप उठ रही थी. आकार-प्रकार को देखकर ही जाना जा सकता था कि ये सलाखें उठानेवाले जीव मनुष्य हैं, वरना उनके भाव-शून्य चेहरे और मशीन की तरह निरन्तर खटखट चलते हाथों को देखकर मशीन का ही भ्रम होता था. शोख, हसीन और कमसिन छात्राओं की उपस्थिति भी उन मज़दूरों की गति में किसी प्रकार का व्यतिक्रम उपस्थित नहीं कर पाईं. वर्षों से निरन्तर मशीनों के बीच काम करते रहने के कारण वे सावनी समां और वासन्ती बहारों को शायद भूल चुके थे. उनकी रगों का ख़ून शायद जलकर राख हो गया था. ज़िन्दा रहने के लिए बड़ी तत्परता से वे मौत से खेल रहे थे. लड़कियों के चेहरे दया और भय से आक्रान्त हो उठे.
‘हाय राम, कैसा खतरनाक काम है.’ एक ने कहा. दूसरी ने उससे भी अधिक सहानुभूति से कहा,‘मैं तो इतनी दूर खड़े-खड़े भी भुर्ता हुई जा रही हूं, ये पास रहकर कैसे काम करते होंगे?’ एक ने खन्ना साहब से पूछा,‘यह तो बड़ा ही ख़तरनाक काम है, ज़रा-सी चूक में सलाख सीधी टांग पर ही आ गिरे.’
‘जी हां, सो तो है ही. बहुत-सी दुर्घटनाएं होती हैं. अभी कोई दो महीने पहले ही एक आदमी की दोनों टांगें कट गईं.’
‘त्… त्… सच? फिर भी ये लोग यहां काम करने आते हैं, अपनी जान को जोखिम में डालकर?’ किसी ने पिघलकर पूछा.
‘काम करने. अरे, एक ही जगह ख़ाली होती है तो पचासों टूट पड़ते हैं. आप जानती नहीं हमारे देश में इन्सान की जान बड़ी सस्ती है.’
‘चलो बाबा यहां से. यहां तो अब देखा नहीं जाता.’ इस वीभत्स दृश्य को देखना उन लोगों के लिए शारीरिक और मानसिक दोनों ही दृष्टियों से असह्य हो रहा था. वहां से चलकर उन्होंने एक-एक करके सब देखा कि किस प्रकार तांबे के इन मोटे-मोटे बारों को पतला किया जाता है, फिर पैसे के आकार के गोल-गोल टुकड़े काटे जाते हैं, उन पर राजकीय मोहर और सन् की छाप पड़ती हैं, उन्हें साबुन और सोडे के पानी में धोकर साफ़ किया जाता है. फिर पांच-सात आदमी बैठकर टेरियां बनाकर अपने सधे हाथों से खोटे सिक्के चुनते हैं, और उन्हें बक़ौल खन्ना साहब, वापस मिन्ट में ही खपा दिया जाता है. और, यह सब देखते-देखते लड़कियों के ताज़े गमकते चेहरे क्लान्त होकर मुरझा गए. वहां पर उन लोगों के लिए चाय और जलपान की व्यवस्था भी थी.
दो नौकर खन्ना साहब की आज्ञा की प्रतीक्षा में हाथ बांधे खड़े थे. नाज़-नखरों से पली ये लड़कियां, जिन्हें कभी ग़रीबी या अभावों की छाया
ने भी नहीं छुआ था, मजदूरों की उस वीभत्स झांकी को देखकर बड़ी आतंकित हो उठी थीं. बैठते ही पूछा,‘इन मज़दूरों को तनख्वाह क्या मिलती होगी?’
‘साठ रुपए मासिक.’
‘आदमी यों साठ रुपए की खातिर अपनी जान जोखिम में डाल देता है?’ एक ने अपार आश्चर्य और दहशत से पूछा.
संसार को मात्र किताबों द्वारा जाननेवाली इन अनुभवहीन छात्राओं की बुद्धि पर खन्ना साहब मुस्करा उठे. गद्दीदार कुर्सियों पर बैठकर रसगुल्ले और गरमा-गरम समोसे खाती हुई उन छात्राओं का दिल मज़दूरों की दुर्दशा पर करुणा से पसीजा जा रहा था. तभी बाहर से एक औरत के रोने की आवाज़ से बातों का क्रम टूट गया. खन्ना साहब की भौहों पर सलवटें उभर आई. परिस्थिति समझने के लिए ये कुर्सी से उठे ही थे कि मैले-कुचैले कपड़े पहने, आंख-नाक से पानी बहाती एक बुढ़िया भीतर चली आई और खन्ना साहब के पैरों पर गिर पड़ी. घृणा से खन्ना साहब ने पांव खींच लिए. ग़ुस्सा उनको इतना आ रहा था कि यदि ये कोमल शरीर और उससे भी कोमल दिलवाली लड़कियां उस समय वहां न बैठी होतीं तो उसके सिर पर कसकर लात जमा देते.
कड़ककर खन्ना साहब ने पूछा,‘कौन है तू? यहां कैसे चली आई?’ तभी रोकता-थामता चपरासी आ गया. उसने बताया कि दो महीने पहले जिस मज़दूर की दोनों टांगें कट गई थीं, यह उसी की स्त्री है. स्त्री रोते-रोते सिर पटक-पटककर हाथ जोड़-जोड़कर कह रही थी,‘उसे कोई छोटा-मोटा काम दे दीजिए सरकार, नहीं तो हम भूखों मर जाएंगे. बैठे-बैठे वह खोटे सिक्के चुनने का काम ही कर देगा.’
‘दिमाग़ ख़राब हो गया है. जिसके दोनों टांगें नहीं हैं वह क्या खाक काम करेगा? चलो हटो यहां से. मौक़े-बेमौक़े सिर खाने आ जाते हैं.’
‘अब कहां जाएं सरकार? बीस साल तक आप लोगों की नौकरी की, आपकी नौकरी में ही टांग गई, अब कहां जाएं सरकार? हम पर दया करिए, नहीं तो बाल-बच्चे भूखों मर जाएंगे.’
‘नौकरी में टांग गई तो मुआवजा नहीं मिला दो सौ रुपए? अब क्या जागीर लिख दूं उसके नाम? चपरासी, बाहर निकालो इसे.’
‘मेरे आदमी को बेकार कर दिया… अब वह कहां जाए…उसे यहीं कोई काम दे दो हजूर…नहीं तो…’ पर वह वाक्य पूरा करती इससे पहले ही चपरासी उसे घसीट ले गया.
लड़कियों के चेहरों पर व्याप्त करुणा को देखकर खन्ना साहब के लिए सफ़ाई पेश करना ज़रूरी हो गया. बोले,‘टांगें कट गईं तो हमने दो-सौ रुपए मुआवजे के दे दिए. और, हम कर भी क्या सकते हैं? यों इन लोगों को यहां बिठाना शुरू कर दें तो टकसाल अपंगों का अड्डा ही बन जाए. आए दिन ही तो यहां ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती हैं.’
इसके बाद बड़ी कुशलता से उन्होंने बात का प्रसंग बदलकर ऐसे चुटकुले सुनाना शुरू किया कि लड़कियां हंस-हंसकर दुहरी होने लगीं.

Illustration: Pinterest

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