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पवित्र ईर्ष्या: कहानी एक ईर्ष्यालू पति की (लेखिका: सुभद्रा कुमारी चौहान)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
January 24, 2023
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Subhadra-Kumari-Chauhan_Kahani
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विमला और अखिलेश मुंहबोले भाई-बहन हैं. विमला की शादी विनोद से हो जाती है. विनोद, अखिलेश का सहपाठी रह चुका है. इस तरह यह एक सुखद कहानी लगती है, पर विनोद का व्यवहार हर किसी के समझ के परे है.

विमला अपने बगीचे में माली के साथ तरह-तरह के फूल और पत्तियों को पहचान रही थी और उन्हीं के साथ खेल रही थी, क्योंकि उसके साथ खेलने के लिए उसके कोई सगे भाई-बहिन न थे. आज राखी का त्यौहार था. बारह महीने का दिन, सभी बच्चे अपने-अपने घरों में खेलकूद रहे थे. इस चहल-पहल में किसी को आज विमला की याद न रही; इसलिए वह बिलकुल अकेली पड़ गई थी.
अचानक उसकी दृष्टि, सड़क पर हरी-हरी साड़ियों से सजी हुई कुछ स्त्रियों और बालिकाओं पर पड़ी, जिनके हाथों में चांदी के समान चमकती हुई थालियों में फूल-माला, फल-फूल और नारियल के साथ रंग-बिरंगी राखियां चमचमा रही थीं. उसी समुदाय में विमला की सखी चुन्नी भी थी. चुन्नी को देखकर विमला चुप न रह सकी, कौतूहलवश वह पुकार उठी-इतनी सज-सजा के कहां जा रही हो चुन्नी? यह थाली में क्या लिए हो चमकता हुआ?
चुन्नी विमला की अनभिज्ञता पर हंस पड़ी. बोली, इतना भी नहीं जानती विन्नो? आज राखी है न? हम लोग भगवान्‌ जी के मंदिर में पूजा करने जाती हैं, वहां से लौटकर फिर राखी बांधेंगी.
‘किसे बांधेंगी राखी?’ विमला ने उत्सुकता से पूछा. इस प्रश्न पर सब खिलखिला के हंस पड़ीं.

विमला शरमा गई, चुन्नी विमला की सहेली थी, अपनी सखी के ऊपर इस प्रकार सबका हंसना उसे भी अच्छा नहीं लगा; वह विमला के पास आकर बोली-विन्नो, अभी हम लोग भगवान्‌ जी की पूजा करके उन्हें राखी बांधेंगी. फिर घर आकर अपने-अपने भाइयों को बांधेंगी. तुम भी चलो न हमारे साथ!
-पर मैंने तो अभी अम्मा से पूछा ही नहीं.
-मां से पूछकर मंदिर में आ जाना, यह कहकर चुन्नी चली गई.
विमला अपने हृदय में राखी बांधने की प्रबल उत्कंठा लिए हुए बड़े उत्साह से मां के पास आई. उसकी मां, कमला, बैठी कुछ पकवान बना रही थी. वह नौ बरस की बालिका, घर में बिलकुल अकेली होने के कारण, अब भी निरी बालिका थी. वह मां के गले में दोनों बांहें डालकर पीठ पर झूलकर बोली, ‘मैं भी राखी बांधूंगी मां.’
‘तू किसे राखी बांधेगी बेटी?’ मां ने किंचित्‌ उदासी से पूछा.
‘तुम जिसे कह दोगी मां’, विमला ने सरल भाव से कह दिया.
किंतु मां की आंखों के आंसू रुक न सके. कुछ क्षणों में अपने को कुछ स्वस्थ पाकर कमला ने कहा-तेरी किस्मत में राखी बांधना लिखा ही होता तो क्या चार भाइयों में से एक भी न रहता, राखी का नाम लेकर जला मत बेटी! चुप रह.

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मां के आंसुओं से विमला सहम-सी गई. कहां के, और किसके चार भाई, वह कुछ भी न समझी; हां वह इतना ही समझी कि राखी के नाम से मां को दुःख होता है, इसलिए राखी का नाम अब मां के सामने नहीं लेना चाहिए. पर राखी बांधने की अपनी उत्कंठा को वह दबा न सकी. किसे राखी बांधे और कैसे बांघे; इसी उधेड़बुन में वह फिर बगीचे की ओर चली गई. फाटक के नज़दीक चुपचाप बैठकर वह गीली मिट्टी के लड्डू, पेड़ा, गुझिया और तरह-तरह के पकवान बनाने लगी. किंतु राखी की समस्या अभी तक उसके सामने उपस्थित थी.

इसी समय रोली का टीका लगाए, फूलों की माला पहिने, और हाथों में चमकती हुई राखियां बांधे हुए, उसके पास अखिलेश आया. वह अपना वैभव विमला को दिखलाना चाहता था, क्योंकि विमला और उसमें मित्रता होने के साथ-साथ, सदा इस बात की भी लाग-डाट रहती थी कि कौन किससे, किस बात में बढ़ा-चढ़ा है. दोनों सदा इस बात को सिद्ध करना चाहते थे कि हम तुमसे किसी बात में कम नहीं हैं.

विमला पकवान बनाने में इतनी तल्‍लीन थी कि अखिलेश का आना उसे मालूम न हो सका. और दिन होता तो शायद विमला के इस प्रकार चुप रह जाने पर अखिलेश भी चला जाता, परंतु आज तो उसे विमलों को अपनी राखियां दिखलानी थीं; उस पर यह प्रकट करना था कि देखो विमला मुझे जो सम्मान प्राप्त है, वह तुम्हें नहीं, इसलिए उसने विमला को छेड़ा, विन्नो! यह तुम्हारे मिट्टी के लड्डू कौन खाएगा जो इतने ढेर से बनाए जा रही हो?

विमला के हाथ का लड्डू गिरकर टूट गया. उसने तुरंत अखिलेश की तरफ़ देखा और अखिलेश ने सगर्व दृष्टि से अपने हाथों को देखा जिन पर राखियां चमक रही थीं. विमला अपने पकवानों को भूल गई, फिर वही राखियां उसके दिमाग़ में झूलने लगीं. अखिलेश के पास खड़ी होकर हाथ से मिट्टी झाड़ती हुई बोली, ‘तुम्हें किसने राखी बांधी है अखिल?’
‘चुन्नी ने बांधी है और मैंने उसे एक रुपया दिया है. समझी?’ अखिलेश ने कहा.
कुछ क्षणों तक न जाने क्या सोचकर विमला बोली,‘तो तुम मुझसे राखी बंधवा लो, अखिल भैया! मुझे रुपया न देकर अठन्नी ही देना.’
‘नहीं भाई! अठन्नी की बात तो झूठी है. मेरे पास इकन्नी है वह मैं तुम्हें दे दूंगा. पर क्या तुम्हारे पास राखी है? अखिल ने पूछा.
विमला कुछ सोचती हुई बोली, ‘राखी तो नहीं है. कौन ला देगा मुझे?’
आश्वासन के स्वर में अखिलेश बोला, ‘तुम पैसे दोगी तो राखी मैं ही ला दूंगा, वह कोई बड़ी बात नहीं है. पर विन्नो, राखी अकेली नहीं बांधी जाती; राखी बांधने के बाद फल, मेवा और मिठाई भी तो दी जाती है, वह तुम कहां से लाओगी?’
मिठाई मैं मां से मांग लूंगी और कुछ नींबू बगीचे से तोड़ लूंगी. पर पैसे तो मेरे पास दो ही हैं, उसमें राखी आएगी क्या? विमला ने पूछा.
अखिलेश ने कहा, ‘दो पैसों में राखी और मिठाई, दोनों ला दूंगा विन्‍ना! अब तुम मां से मिठाई न मांगो, तो भी काम चल सकता है.’

विमला चाहती भी यही थी कि किसी प्रकार चुपचाप राखी बंध जाए और मां न जान पाए. जब उसे मालूम हुआ कि दो पैसों में राखी और मिठाई दोनों आ जाएंगी तो उसे बड़ी प्रसन्‍नता हुई. उधर अखिल राखी लेने गया, इधर विमला फूलों की एक माला, एक नन्‍हीं-सी थाली में ज़रा-सी रोली और अक्षत रखकर, उसकी प्रतीक्षा करने लगी. उसे अधिक प्रतीक्षा न करनी पड़ी. अखिल डेढ़ पैसे की मिठाई और धेले की एक राखी लेकर कुछ ही देर में आ गया.

माली के घर से ज़रा-सा मीठा तेल मांगकर एक मिट्टी का दिया जलाया गया और वहीं गोधूलि की पवित्र बेला में एक अबोध बालिका ने एक बालक को दो पैसों से सदा के लिए भाई के रूप में बांध लिया. तिलक लगाकर, अक्षत छिड़ककर विमला ने अखिल को राखी बांधी, फूलों की माला पहिनाकर उसे मिठाई खिला दी. और अखिल ने उसी समय विमला के हाथ पर इकन्नी रखकर उसके पैर छू लिए.
पैर छूकर वह ज्योंही ऊपर उठा, सामने विमला की मां खड़ी थीं. उनकी आंखों से आंसू गिर रहे थे, उन्हें याद आ रहा था अखिलेश के साथ का ही उनका बच्चा; यदि आज वह होता तो वह भी बारह साल का होता.
सहसा मां को सामने देख विमला कुछ संकोच में पड़ गई. इकन्नी को मुट्ठी में दबाकर वह चुपचाप एक तरफ़ खड़ी हो गई.
अखिल दो क़दम आगे बढ़कर बोला, ‘चाची, विन्नो ने मुझे राखी बांधी है और मैंने उसे एक इकन्नी दी है. अब यह भी मेरी बहिन हो गई न चाची?’
मां ने अखिल को पकड़कर प्यार से हृदय से लगाते हुए गद्गद कंठ से कहा, हां, तू हो गया मेरा बेट अखिल!
अखिलेश ने विमला की मां की बात सुनी या नहीं. किंतु यह अपनी एक बहिन के कारण बहुत परेशान रहता था. वह उससे सदा लड़ती थी. वह कुछ चिंतित-सा होकर बोला, पर चाची! चुन्नी तो मुझसे बहुत लड़ती है. विन्‍नो, बहिन हो गई, यह भी मुझसे लड़ा करेगी?
‘नहीं रे पगले! सब बहिनें नहीं लड़ा करतीं’ मां ने कहा, और दोनों बच्चों को लेकर घर गईं. उस दिन से अखिल के दो घर हो गए. दो घरों में उसे माता की ममता, पिता का दुलार और बहिन का स्नेह मिलने लगा.
*****

इस खिलवाड़ को हुए प्रायः आठ साल बीत गए. विमला अब सत्रह साल की युवती थी. विमला और अखिलेश दोनों सगे भाई-बहिन से किसी बात में कम न थे. अब भी हर साल विमला बड़ी धूमधाम से अखिलेश को राखी बांधा करती थी. चुन्नी सगी बहिन होकर भी अखिलेश के हृदय में वह स्थान न बना सकी थी जो विमला ने अपने सरल और नम्र स्वभाव के कारण बना लिया था. विमला सरीखी बहिन पर अखिलेश को उसी प्रकार गर्व था, जिस प्रकार विमला को अखिलेश के समान सुशील, तेजस्वी और मनस्वी भाई के पाने पर था.

बीए की परीक्षा में यूनिवर्सिटी भर में फ़र्स्ट आ जाने के कारण अखिलेश को विदेश जाकर विशेष अध्ययन के लिए सरकारी छात्रवृत्ति मिली, और उसे दो साल के लिए विदेश जाना पड़ा. विदेश जाने के डेढ़ साल बाद ही अखिलेश को लाल लिफाफे में विमला के विवाह का निमंत्रण मिला. विमला के विवाह के समाचार से वह प्रसन्‍न तो हुआ, परंतु वह विवाह में सम्मिलित न हो सकेगा, इससे उसे कुछ दुःख भी हुआ.

विमला अपने माता-पिता की अंतिम संतान थी. उससे बड़े उसके चार भाई और दो बहिनें दो-दो, तीन-तीन साल के होकर नहीं रही थीं. न जाने कितने टोटके, पूजा-पाठ और जप-तप के बाद वह इस लड़की को किसी प्रकार जिला सके थे. नई सभ्यता की पक्षपातिनी होने पर भी संतान के लिए विमला की मां ने, जिसने जो कुछ बतलाया वही किया. विमला के गले में किसी महात्मा की बताई हुई एक तावीज अब तक पड़ी थी, तात्पर्य यह कि वह माता-पिता दोनों की ही बहुत दुलारी थी. पंद्रहवें वर्ष में पैर रखते ही मां को उसके विवाह की चिंता हो गई थी.

पर बाबू अनन्तराम कुछ लापरवाह से थे. विवाह का ध्यान आते ही वे सोचते, एक ही तो लड़की है, वह भी चली जाएगी, तो घर तो जंगल हो जाएगा; जितने दिन विवाह टले उतने ही दिन अच्छा है. इसी से वह कुछ बेफिकर से रहते. इसके अतिरिक्त उन्हें विमला के योग्य कोई वर भी न मिलता था. वर अच्छा मिलता तो घर मन का न होता और घर अच्छा मिलता, तो वर में कोई-न-कोई बात ऐसी रहती जिससे वह विवाह करने में कुछ हिचकते थे.

उनके मकान के कुछ ही दूर पर गंगा अपनी निर्मल धारा में तेज़ी से बहा करती थीं. प्रायः वहां के सब लोग रोज गंगा में ही स्नान करते थे. विमला भी अपनी मां के साथ रोज गंगा नहाने जाती थी. एक दिन प्रातःकाल दोनों मां-बेटी नहाने गई थीं. अचानक विमला का पैर फिसला; और वह बह चली. मां-पुत्री को बचाने के लिए आगे बढ़ी, किंतु बचाना तो दूर, वह स्वयं भी बहने लगी. घाट पर किसी व्यक्ति की नज़र उन पर नहीं पड़ी, इसलिए दोनों मां-बेटी बहती हुई पुल के नजदीक पहुंच गईं.

पुल के ऊपर से कुछ कॉलेज के विद्यार्थी घूमने निकले थे. एक की नज़र इन असहाय स्त्रियों पर पड़ी. वह फौरन कूद पड़ा. बहुत अच्छा तैराक होने के कारण अपने ही बाहुबल पर, वह दोनों मां-बेटी को बाहर निकाल लाया. उसकी सहायता के लिए दूसरे विद्यार्थी भी घाट पर आ गए थे. कोई डॉक्टर के लिए दौड़ा, और कोई मोटर के लिए. कुछ देर में मां तो होश में आ गई पर विमला स्वस्थ न हुई.

इसी बीच अनन्तराम जी के पास भी ख़बर पहुंची, वे भी दौड़ते हुए आए. कमला और विमला अभी तक नहाकर वापिस न गई थीं. उन्हें रह-रहकर आशंका हो रही थी कि कहीं वे ही न हों. घाट पर पहुंचकर देखा तो आशंका सत्य निकली. मोटर पर कमला और विमला को बैठाकर वे घर आए. वे अपने उपकारी, उस विद्यार्थी को भी न भूले जिसने उनकी स्त्री और कन्या को डूबने से बचाया था. अनन्तराम जी के आग्रह से विनोद को भी उनके घर तक आना पड़ा.

विमला कई दिनों तक बीमार रही, विनोद प्रायः रोज उसे देखने आता रहा. इस बीच में अनन्तराम ने विनोद का सब हाल मालूम कर लिया और उन्होंने विनोद को सब प्रकार से विमला के योग्य समझा. उन्होंने ईश्वर को कोटिशः धन्यवाद दिए, जिसने घर बैठे विमला के लिए योग्य पात्र भेज दिया था. विनोद बसंतपुर का निवासी था और यहां कॉलेज में एमए फ़ाइनल में इसी साल बैठने वाला था. परिवार में पिता को छोड़कर और कोई न था. पिता डिप्टी कलेक्टर, और बसंतपुर के प्रसिद्ध रईस थे.

विनोद स्वयं बहुत सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी और मनस्वी नवयुवक था. अन्य नवयुवकों की तरह उसमें उच्छृंखलता नाम मात्र को न थी. वह विमला को देखने आता था अवश्य, पर जब तक अनन्तराम जी स्वयं उसे अपने साथ लेकर भीतर न जाते, वह कभी अंदर न आता. उसके इस व्यवहार और अध्ययनशीलता तथा उसकी विद्या और बुद्धि पर अनन्तराम और उनकी स्त्री-दोनों ही मुग्ध थे और इसीलिए अपनी प्यारी पुत्री को उन्होंने विनोद को सौंप दिया. विनोद भी विमला के शील-स्वभाव पर मुग्ध था. इसके पहिले उसने विवाह की तरफ़ सदा अनिच्छा ही प्रकट की थी. किंतु विमला के साथ जो विवाह का प्रस्ताव हुआ तो उसे वह टाल न सका, प्रसन्नता से स्वीकार ही किया.

विनोद विमला को इतना अधिक चाहते थे कि विवाह के बाद, वह दो-तीन महीने तक, मां के घर वापिस न आ सकी. विनोद उसे रोकते न थे. पर विमला जानती थी कि उसके जाने के बाद उन्हें कितना बुरा लगेगा. माता-पिता से मिलने के लिए कभी-कभी वह बहुत विकल भी हो जाती थी, उसकी इस विकलता से विनोद को भी दुःख होता था. किंतु वह विमला का क्षणिक वियोग भी सहने को तैयार न था. यहां तक कि उसने अपने मित्रों से मिलना-जुलना बंद-सा कर रखा था, उसका अधिकांश समय उनके शयनगार में ही बीतता, वहीं वह पढ़ते-लिखते, और विमला वहीं उनकी आंखों के सामने रहती.

विवाह के तीन महीने बाद विनोद के पिता की बदली उसी शहर में हो गई, जहां विमला का मैका था. विमला और विनोद दोनों ही इससे प्रसन्‍न हुए, अब विमला को माता-पिता से मिलने की भी सुविधा हो गई, और विनोद का भी साथ न छूटता था. अब वह प्रायः दूसरे-तीसरे दिन घंटे दो घंटे के लिए आकर अपने मां-बाप से मिल जाया करती थी.

इसी प्रकार एक दिन विनोद के साथ विमला अपनी मां के घर आई. विमला तो अंदर चली गई, विनोद वहीं हाल में आई चिट्ठियों को देखने लगे. एक पत्र विदेश से आया था. लिखावट उसके मित्र और सहपाठी अखिलेश की थी. पत्र था विमला के लिए. विनोद ने उत्सुकता से पत्र को खोला, जिसमें लिखा था,

प्यारी विन्‍नो,
अब तो तुम्हारे पत्रों के लिए बड़ी लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ती है. क्या तुम्हें पत्र लिखने तक का अवकाश नहीं मिलता? अपने नए साथी के कारण तो मुझे नहीं भूली जा रही हो? यदि ऐसा होगा तो भाई मेरे साथ अन्याय होगा. पत्रों का उत्तर तो कम-से-कम दे दिया करो. चाची को प्रणाम कहना और अब पत्र देर से लिखा तो मैं भी नाराज हो जाऊंगा, समझी!
तुम्हारा
अखिलेश

पत्र पढ़कर विनोद स्तंभित-से रह गए. वह समझ न सके कि कब और कैसे अखिलेश की विमला से पहिचान हुई. दो साल पहिले, सात साल तक अखिलेश ने उनके साथ ही पढ़ा. उसने कभी भी विमला का जिक्र उनसे नहीं किया, और न विवाह के बाद, आज तक विमला ने ही कुछ अखिलेश के विषय में उनसे कहा.

और अब पत्र आते हैं तो विमला के मैके के पते से; पत्र की भाषा तो यही प्रकट करती है, जैसे दोनों बहुत दिनों से बहुत घनिष्ट मित्र के रूप में रहे हैं. वे गहरी चिंता में डूब गए, आज पहली बार विमला उन्हें कुछ दोषी-सी जान पड़ी, उसे विनोद से अखिलेश के विषय में सब-कुछ कह देना चाहिए था. अखिलेश के प्रति भी आज विनोद के हृदय में एक प्रकार के ईर्ष्या-जनित भाव जाग्रत हुए. फिर पत्र पढ़ने के बाद वे अंदर न जा सके. पत्र को जेब में रखकर चुपचाप, अपने घर चले आए. विमला ने विनोद की कुछ देर तक प्रतीक्षा की, जब वे अंदर न गए, तब उसने आकर बैठक में देखा; वहां भी उन्हें न पाकर वह समझी, कहीं गए होंगे, किंतु जब दो घंटे तक विनोद न लौटे तो वह घबराई और अपनी मां की कार में बैठकर ससुराल आ गई.
*****
A reserved lover makes a suspicious husband यह कहावत विनोद पर अक्षशः चरितार्थ होती थी. वे विमला को जितना ही अधिक प्यार करले थे, उतना ही उन्हें उस पर संदेह भी होता था. नौकर-चाकर से भी विमला का बात करना उन्हें अच्छा न लगता था. वे विमला पर अपना एकछत्र अधिकार चाहते थे. वे तो कदाचित् यहां तक चाहते थे कि विमला को किसी प्रकार, बहुत ही छोटे आकार में परिवर्तित करक अपने पाकेट में रख लें, जिसमें वही केवल विमला को देख सके, वहां तक और किसी की पहुंच ही न हो सके.
विमला घर आई तब वे अपनी खाट पर लेटे थे. उन्होंने जान-बूझकर अखिलेश की एक फ़ोटो निकालकर अपनी चारपाई पर रख ली थी. विमला ने पहुंचकर पति का चेहरा देखा, देखते ही पहिचान लिया कि इन्हें किसी प्रकार का मानसिक कलेश हो रहा है.
वह उनके पास पहुंचकर खाट पर बैठ गई, बैठते ही उसकी दृष्टि अखिलेश की फ़ोटो पर पड़ी. कुछ हर्ष, कुछ कौतूहल से पति की उदासी का कारण पूछना तो भूल गई, अखिलेश का चित्र उठाकर फौरन पूछ बैठी-यह फ़ोटो तो अखिलेश का है, यहां कैसे आया? तुम इन्हें जानते हो?
‘जानता हूं’ कहके विनोद ने करवट फेर ली. विमला की तरफ़ पीठ और दीवार की तरफ़ मुंह करके वे अपनी वेदना को चुपचाप पीने लगे.
‘तुम इन्हें जानते हो तो अभी तक मुझसे कहा क्‍यों नहीं?’ विमला ने फिर पूछा.
विनोद ने कोई उत्तर न दिया.
इसके बाद विमला को फिर कुछ पूछने का साहस न हुआ. वह वहीं एक तरफ़ विनोद के पैरों को सहलाने लगी. विनोद ने अपने पैरों को जोर से खींच लिया. विमला समझ गई कि नाराज़गी उसी पर है. वह विनोद के स्वभाव को इतने दिनों से बहुत अच्छी तरह जानती थी. विनोद, जो उस पर पग-पग पर संदेह करते थे, उससे भी वह छिपा न था. किंतु विनोद का हृदय कितना सच्चा, कितना गंभीर, और कितना उदार है, यह भी वह भली-भांति जानती थी.
पति का संदेह मिटाने के लिए वह नम्र स्वर में बोली, ‘देखो किसी तरह का संदेह न करना. अखिलेश मेरा भाई है, समझे?’
‘सब समझ लिया,’ विनोद ने रुखाई से उत्तर दिया.
विमला ने फिर अपने उसी नम्र स्वर से पूछा, ‘और तुम वहां से चुपचाप मुझे छोड़कर चले क्‍यों आए?’
‘चला आया मेरी ख़ुशी! तुम्हें अपने साथ नहीं लाना चाहता था; फिर भी तुम क्यों चली आईं? दो-तीन दिन मां के साथ रह लेती’, विनोद ने तीव्र स्वर में कहा. कहने को तो विनोद यह बात कह गए, किंतु इस दो ही घंटे में उनके हृदय की जो हालत हुई थी, यह वही जानते थे. कई बार स्वयं जाने के लिए उठे, फिर आत्माभिमान के कारण न जा सके. नौकर को तांगा लेकर भेज ही रहे थे कि विमला आ पहुंची.
विमला के आने से पहिले वह उसके लिए बहुत विकल थे; किंतु उसके आते ही वे तन गए. विमला यह समझती थी, इसलिए उसे कुछ हंसी आ रही थी, परंतु फिर भी अपनी हंसी को दबाती हुई बोली, ‘तो तुम मुझसे कह के आते कि तुम यहां दो-तीन दिन रह सकती हो, तो मैं रह जाती. अम्मा तो रोक रही थीं. कहो तो अब चली जाऊं.’
‘हां-हां चली जाना,’ विनोद ने मुंह से ही कहा. लेकिन हृदय कहता था कि ख़बरदार! अगर यहां से हिली भी तो ठीक न होगा.
विमला बोली, ‘अच्छा बाबू जी कचहरी से लौटेंगे तो उन्हीं की कार में चली जाऊंगी.’
किंतु बाबू जी के कचहरी से लौटने के पहिले ही दोनों का मेल हो गया. विमला को फिर मां के घर जाने की आवश्यकता न पड़ी. इसके बाद विनोद को विमला ने अपने और अखिलेश के संबंध में सब-कुछ बतलाया. उसी दिन विमला को यह भी मालूम हुआ कि अखिलेश विनोद का सहपाठी होने के साथ-ही-साथ अभिन्‍न हृदय मित्र भी है. यह जानकर भी कि अखिलेश विमला का राखीबंध भाई है, न जाने क्यों विनोद का अखिलेश के प्रति विमला का स्नेह भाव सहन न होता था. साथ-ही-साथ वह अखिलेश का अपमान भी न सह सकते थे, क्योंकि वह अखिलेश को भी बहुत प्यार करते थे.
***
आषाढ़ का महीना था. और इसी महीने में अखिलेश विदेश से लौटकर आने वाले थे. एक दिन विमला की मां ने विमला से कहला भेजा कि आज शाम की ट्रेन से अखिलेश लौटेंगे, स्टेशन चलने के लिए तैयार रहना, मैं कार भेज दूंगी.
विनोद कहीं बाहर गए थे, लौटने के बाद जलपान करके बैठे तो विमला ने उनसे कहा, आज अखिल भैया आएंगे. स्टेशन चलने के लिए तैयार रहना, अम्मा कार भेज देंगी.
‘मैंने तुमसे कब कहा था कि मैं स्टेशन जाऊंगा जो तुम मुझसे तैयार रहने के लिए कह रही हो? मेरे पास न अखिलेश ने सूचना भेजी है और न मैं आऊंगा. तुम्हारे पास सूचना आई है तो तुम चली जाना.’ विनोद ने कहा और अपना कोट उठाकर फिर बाहर जाने के लिए तैयार हो गए. उन्हें रोकती हुई विमला ने फिर नम्र स्वर में कहा, ‘सूचना नहीं भी आई तो चलने में क्या हुआ, तुम्हारे मित्र ही तो हैं?’
‘चलने में क्या हुआ, इसका उत्तर मैं नहीं दे सकता, नहीं जाना चाहता यही काफ़ी है’, कहते हुए विनोद फिर आगे बढ़े.
विमला ने उनका कोट पकड़ लिया, बोली, ‘तुम नहीं जाओगे तो सब लोग बुरा मानेंगे? चलो हम लोग स्टेशन से अपने घर आ जाएंगे, उनके घर न जाएंगे बस.’
विनोद ने चिढ़कर कहा, ‘क्यों सिर खाए जाती हो विन्नो! एक बार कह तो दिया कि मैं न जाऊंगा. तुम्हारा भाई है, तुम ख़ुशी से जाओ, मैं तुम्हें नहीं रोकता. तुम न जाना चाहती हो तो तुम्हें जाने के लिए मैं विवश नहीं करता, फिर तुम्हीं क्यों चलने के लिए मुझ पर इतना दबाव डाल रही हो.’ कहते हुए कोट छुड़ाकर विनोद चल दिए.

विमला चुप हो गई. उसने आज ही अनुभव किया कि विवाह के बाद स्त्री कितनी पराधीन हो जाती है. उसे पति की इच्छाओं के सामने अपनी इच्छाओं और मनोवृत्तियों का किस प्रकार दमन करना पड़ता है. वह जानती थी कि विनोद बार-बार जाने के लिए कहते हैं अवश्य, पर यदि वह सचमुच चली जाए तो उन्हें कितनी मानसिक वेदना होगी; उसके जाने का परिणाम कितना भयंकर होगा.
नियत समय पर कार आई, पर विमला उतरकर नीचे भी न गई; ऊपर से ही दासी के द्वारा कहला भेजा कि सर में बहुत दर्द है इसलिए वह स्टेशन न जा सकेगी.

स्टेशन पर उतरते ही सबसे पहिले अखिलेश ने विमला के विषय में पूछा और उसे अस्वस्थ जानकर उन्हें दुःख हुआ. सबसे मिलजुलकर वह स्टेशन से सीधे विमला के घर आए. विमला स्टेशन न गई थी, फिर भी उसे पूर्ण विश्वास था कि उसे स्टेशन पर न पाकर अखिलेश सीधे उससे मिलने आवेंगे. इसलिए वह अपने छज्जे पर से उत्सुक आंखों से मोटर की प्रतीक्षा कर रही थी. उसने अपनी मां की मोटर दूर से देखी, और दौड़कर नीचे आ गई. उसे याद न रहा कि वह सिरदर्द का बहाना करके ही स्टेशन नहीं जा सकी है.

विमला ने देखा, विनोद और अखिलेश साथ ही मोटर से उतरे. उनकी मां उन्हें छोड़कर बाहर से ही चली गई. वह पुरानी प्रथा के अनुसार बेटी के घर जाना अनुचित समझती थीं. विमला उन्हें ड्राइंगरूम में ही मिली. उसे देखते ही अखिलेश ने स्नेहसिक्त स्वर में उससे पूछा, ‘कैसी दुबली हो गई हो विन्ना! क्या बहुत दिनों से बीमार हो? देखो अब मैं आ गया हूं, अब तुम बीमार न रहने पाओगी.’
विमला हंस पड़ी, बोली, अखिल भैया! तुम्हें तो मैं सदा दुबली ही दिखा करती हूं. पर तुम कितने दुबले हो गए हो? तुम्हारा स्वास्थ्य भी तो बहुत अच्छा नहीं जान पड़ता.

इसी प्रकार बहुत-सी आवश्यक-अनावश्यक बातों के बाद अखिल ने विनोद की पीठ पर एक हलका-सा हाथ का धक्का देते हुए कहा, और क्‍यों बे पाजी! मुझसे बिना पूछे तुझे मेरे बहनोई बनने का दुःसाहस कैसे हो गया?
विनोद हंसता-हंसता बोला-अखिल यार, इतने दिनों तक विदेश में रहकर भी तुम निरे बुद्धू ही रहे. कहीं ऐसी बातें भी किसी से पूछकर की जाती हैं.
अखिल भी हंस पड़ा. रात अधिक हो चुकी थी; इसलिए वह घर जाने के लिए उठे, विमला ने उनसे जाते समय पूछा, ‘अब कब आओगे अखिल भैय्या?
-तुम जब कह दो विन्नो, अखिल ने उत्तर दिया.
विमला ने उनसे दूसरे दिन फिर आने के लिए कहा, इसके वाद अखिल अपने घर गए.

विनोद को विमला का अखिलेश के प्रति इतना प्रेम प्रदर्शित करना, इस प्रकार अनुरोध से बुलाना अच्छा न लगा. वे बोले तो कुछ नहीं, पर उनकी प्रसन्‍नता उदासी में परिणत हो गई. उनके कुछ न करने पर भी उनकी भाव-भंगी और व्यवहार से विमला समझ गई कि विनोद को कुछ बुरा लगा है. विनोद ने विमला के बहुत आग्रह करने पर अपने हृदय के सब भाव उससे साफ़-साफ़ कह दिए. उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें विमला का अखिलेश के प्रति इतना अधिक स्नेह-भाव संदेहात्मक जान पड़ता है. विमला ने अपने प्रयत्न भर उनके संदेह को दूर करने की कोशिश की. और अंत में उन्हें यहां तक आश्वासन दिया कि यदि विनोद न चाहेंगे तो विमला अखिलेश से कभी मिलेगी भी नहीं.

किंतु इतने वर्षों का संबंध कुछ घंटों में ही तोड़ देना बहुत कठिन है. दूसरे दिन अखिलेश के आते ही विमला यह भूल गई कि रात के समय क्या-क्या बातें हुई थीं. वह फिर अखिलेश से उसी प्रकार प्रेम से बातें करने लगी. किंतु कुछ ही क्षण बाद विनोद की मुखाकृति ने उसे रात की बातों की याद दिला दी. वह कुछ गंभीर हो गई, उसकी आंखें करुणा और विवशता से छलक आईं! विमला की आंखों में करुणा का आविर्भाव होना स्वाभाविक ही था, क्योंकि वह हृदय से दुखी थी. उस पर जो संदेह था वह निर्मूल था. वह जिस मर्मातक पीड़ा का अनुभव कर रही थी, उसे वही समझ सकता है, जिसका पवित्र संबंध कभी संदेह की दृष्टि से देखा गया हो.

विमला प्रयत्न करने पर भी अपने आंखों की करुणा न छिपा सकी. उसने एक-दो बार अखिलेश की ओर देखा और थोड़ी बातचीत भी की, किंतु अपनी विवशता या कातरता प्रकट करने के लिए नहीं; किंतु यह प्रकट करने के लिए कि उसके इस व्यवहार और उदासीनता से अखिलेश यह न समझ बैठे कि उनका किसी प्रकार का अपमान हुआ है. विमला की दृष्टि और व्यवहार से विनोद का संदेह और बढ़ गया. वे विमला की प्रत्येक भावभंगी को बड़े ध्यान से देख रहे थे, और जितना ही वे उस पर विचार करते, उनका संदेह गहरा होता जाता. यह अखिलेश ने भी देखा कि आज विमला और विनोद दोनों ही कुछ अस्वस्थ और अनमने हैं.

किंतु उनकी अस्वस्थता के कारण अखिलेश ही हो सकते हैं, यह वह सोच भी न सके क्योंकि विनोद और विमला दोनों के प्रति उनका पवित्र और प्रगाढ़ प्रेम था. उस स्नेह भाव को ध्यान में लाते हुए उदासी का कारण अपने आपको समझ लेना अखिलेश के लिए आसान न था. किंतु फिर भी विनोद और विमला दोनों के ही व्यवहार ने आज उन्हें आश्चर्य में डाल दिया. वह न जाने किस विचारधारा में डूबे हुए अपने घर गए. जाते समय कुछ हिचक और कुछ संकोच के साथ विमला ने उनसे कहा, ‘कभी-कभी आया करना अखिल भैया.’

विनोद उठकर अखिल के साथ हो लिए. बातचीत करते-करते विनोद अखिल के घर तक पहुंच गए. उन्होंने अखिलेश के साथ ही भोजन भी किया. दोनों का प्रेम सच्चा था. उनका स्नेह इतना निष्कपट था, कि विनोद अपने इस संदेह को भी अखिल से न छिपा सके, उन्होंने अखिल से यहां तक कह दिया, भाई अखिल, यदि तुम मुझे सुखी देखना चाहते हो तो विमला से ज़रा कम मिलो. मैं यह जानते हुए कि तुम मेरे हितैषी हो, मेरे बंधु हो, विमला चाहे एक बार मुझसे कोई बात छिपा भी जाए पर तुम न छिपा सकोगे, नहीं चाहता कि तुम विमला से अधिक मेल-जोल रखो. अखिलेश, मुझे ऐसा जान पड़ने लगता है कि तुम्हारे स्नेह के सामने विमला के हृदय में मेरे स्नेह का दूसरा स्थान हो जाता है. तुम्हारा मूल्य उसकी आंखों में मुझसे कहीं ज़्यादा हो जाता है.

‘यह बात तो सच है, क्योंकि मैं उसका भाई हूं,’ अखिलेश ने किचित्‌ मुस्कराकर कहा. फिर वह गंभीर होकर बोले, ‘विनोद! तुम जैसा चाहो. मैं विमला से मिलने के लिए बहुत उत्सुक भी नहीं हूं, और यदि तुम चाहो तो मैं यह स्थान ही बदल दूं, कहीं और चला जाऊं, अभी लौटे दिन ही कितने हुए हैं? सर्विस दूसरी जगह भी तो कर सकता हूं.’

विनोद घबराकर बोल उठे, ‘नहीं अखिल तुम यहां से कहीं जाओ मत! भाई, तुम दो साल के बाद तो लौटे हो. फिर पिता की बदली यहां हो गई, तो सौभाग्य से हम दोनों को फिर से साथ-साथ रहने का अवसर मिला है. उसे मैं व्यर्थ ही नहीं जाने देना चाहता. यहां रहकर क्या तुम विमला से मिलना-जुलना कम नहीं कर सकते?’
‘अरे भाई! तुम जो कहो सब कर सकता हूं, पर बारह बज रहे हैं जाओ, सोने भी दोगे या नहीं,’ अखिल ने हंसते हुए कहा.

इसके बाद विनोद गए अपने घर, और अखिल अपने बिस्तर पर. पूरा एक महीना बीत गया. न अखिलेश आए और न विमला से उनकी कभी मुलाक़ात ही हुई. विमला इस बीच कई बार अपनी मां के घर भी आ-जा चुकी थी, किंतु अखिलेश से वहां भी न मिल सकी | वह हृदय से तो अखिलेश से मिलना चाहती थी पर मुंह से कुछ कहने का साहस न होता था. एक दिन वह मां के घर जा रही थी, रास्ते में उसे अखिलेश कहीं जाते हुए दिखे. विमला का हृदय बड़ी ज़ोर से धड़कने लगा. एक बार उसकी तबीयत हुई, कार रुकवाकर, अखिलेश से उसके इस प्रकार न आने का कारण पूछ ले, किंतु दूसरे ही क्षण उसे ख़याल आ गया कि वह अखिलेश के न आने का कारण पूछ तो लेगी; किंतु इस तनिक-सी बात का मूल्य उसे कितना अधिक चुकाना पड़ेगा. अपनी प्रसन्‍नता-अप्रसन्‍नता की उसे उतनी परवाह न थी-विनोद की शांति न जाने कितने समय के लिए भंग हो जाएगी. उनकी मानसिक वेदना का विचार आते ही उसने कार बढ़वा ली, रुकी नहीं, पर उस दिन अखिलेश को वह दिन भर भूल न सकी, उसे वह दिन याद आ रहा था जिस दिन उसने दो पैसे में अखिलेश को भाई के रूप में बांधा था.

इसी प्रकार कुछ दिन और बीत गए, राखी का त्यौहार आया. विमला आज अपने भ्रातृ-प्रेम को न रोक सकी. वैसे वह चाहती तो मां के घर जाकर वहां अपनी मां के द्वारा अखिलेश को बुलवा सकती थी, किंतु विनोद से छुपाकर वह कुछ भी न करना चाहती थी. इसलिए वह विनोद के पास आकर कुछ संकोच के साथ बोली, आज राखी है. तुम मुझे अखिल भैया के घर ले चलना, मैं उन्हें रखी बांध आऊंगी.

विनोद किसी पुस्तक को एकाग्रचित्त से पढ़ रहे थे. विमला की बात कदाचित्‌ बिना सुने ही उन्होंने सिर झुकाए-ही-झुकाए कह दिया, अच्छा.
विमला को मुंहमांगा वरदान मिला. उसने आगे और कोई बातचीत न की. कौन जाने बातचीत के सिलसिले में कोई बहस छिड़ जाए और वह अखिलेश को राखी बांधने न जा सके.

आज विमला बहुत प्रसन्‍न थी. उसने कई तरह के पकवान, जो अखिलेश को अच्छे लगते थे, अपने हाथ से बनाए. तरह-तरह के फल मंगवाए और शाम को राखी बांधने के लिए जाने की तैयारी करने लगी. एक दासी द्वारा उसने अखिलेश के पास संदेशा भिजवा दिया कि आज शाम को छह बजे हम दोनों अखिल भैया से मिलने आवेंगे. वे घर ही रहें, कहीं जाएं नहीं. इस संदेश से अखिल को कुछ आश्चर्य न हुआ क्योंकि उस दिन राखी थी. विमला दिन भर बड़ी उमंग और उत्सुकता से संध्या की प्रतीक्षा करती रही; किंतु शाम को जब छह बज गए और विनोद ने अपनी पुस्तकों पर से सिर न उठाया, तो धीरे से जाकर वह विनोद के पास बैठ गई.
विनोद ने सप्रेम दृष्टि से विमला की ओर देखकर कहा, कहो विन्‍नो रानी, आज कुछ खिलाओगी नहीं?
विमला ने तुरंत अपने बनाए हुए कुछ पकवान तश्तरी में लाकर रख दिए, विनोद ने उन्हें खाया. विनोद को इतना प्रसन्‍न देखकर विमला का साहस बढ़ गया था, बोली, देखो छह से साढ़े छह बज गए, अखिल भैया के घर अब कब चलोगे?

विनोद की हंसी कुछ मिश्रित उदासीनता में परिणत हो गई. दृष्टि का प्रेम-भाव तिरस्कार में बदल गया, कुछ क्षण तक चुप रहकर, वे रूखे स्वर में बोले, मैं तो न जाऊंगा. तुम जाना चाहो तो चली जाओ.

विमला को जैसे काठ-सा मार गया. वह विनोद के इस भाव परिवर्तन को समझ न सकी, कुछ चिढ़कर बोली, ‘तुम्हें सवेरे ही कह देना था कि न चलेंगे तो मैं ख़बर ही न भिजवाती.’

-मैंने तो नहीं कहा था कि मैं तुम्हारे साथ अखिल के घर चलूंगा पर तुमने ख़बर भिजवा दी हो तो चली जाओ, मैं रोकता नहीं. हां एक बार नहीं अनेक बार, मैं तुम पर यह प्रकट कर चुका हूं कि अखिल से तुम्हारा मिलना-जुलना मुझे पसंद नहीं है. फिर भी तुम जैसे उसके लिए व्याकुल-सी रहा करती हो, यदि तुम्हें मेरी मानसिक वेदनाओं का कुछ ख़याल नहीं है तो जाओ! पर मुझे क्यों अपने साथ घसीटना चाहती हो?
विमला सिहर उठी. कुछ देर बाद अपने को सँभालकर बोली, ‘अखिल भैया से ही क्या, तुम न चाहोगे तो मैं अम्मा और बाबू जी से भी न मिलूंगी.’
विनोद ने विमला की बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया और बाहर चले गए. बाहर दरवाजे पर ही उन्हें उनके मित्र की बहिन अंतो मिली जो उनको भी बहुत ज़्यादा चाहती थी, भाई की ही तरह, और उन्हें राखी बांधने आई थी.

विनोद इस समय किसी अतिथि के स्वागत के लिए तैयार न थे. विशेषकर यदि अतिथि स्त्री हो तब. अभी-अभी वह विमला को अखिल से न मिलने के लिए तेज़ बातें कह चुके थे. दूसरे ही क्षण किसी दूसरी स्त्री के साथ, जो विनोद की वैसी ही बहिन हो जैसी विमला अखिल की, विमला के पास जाने में उन्हें कुछ संकोच-सा हुआ. पर वह अंतो को टाल भी तो न सकते थे, वह उसे लिए हुए विमला के पास जाकर ज़रा कोमल स्वर में बोले, ‘विन्नो! यह अंतो राखी बांधने आई है, इन्हें बैठा लो.’

विमला ने उठकर आदर और प्रेम से अंतो को बैठाया तो अवश्य; पर कुछ अधिक बातचीत न कर सकी अंतो विनोद के ही पास बैठकर इधर-उधर की बातें करने लगी. विमला ने उनकी बातचीत में किसी प्रकार हिस्सा न लिया. यहां तक कि उनसे कुछ दूर बैठकर पान बनाने लगी. और दिन होता तो शायद विनोद से अधिक विमला ही अंतो से बातचीत करती, किंतु आज वह बड़ी व्यथित-सी थी, इसलिए चुप रही. उसकी इस उदासीनता से विनोद ने अंतो का अपमान, घर में आई हुई एक स्त्री-अतिथि का अपमान समझा. वे मन-ही-मन चिढ़ उठे. पर कुछ बोले नहीं.

राखी की रस्म अदा होने पर विमला, अंतो और विनोद दोनों के लिए थालियां परोस लाई. अंतो ने विमला से भी भोजन करने का आग्रह किया; किंतु तबीयत ठीक न होने का बहाना करके विमला ने भोजन करने से इनकार कर दिया.

अब विनोद भी अपने क्रोध को न संभाल सके, तिरस्कार-सूचक स्वर में बोल उठे, ‘तबीयत क्‍यों ख़राब करती हो, अब भी समय है राखी बांधने चली जाओ.’ अंतो कुछ समझी नहीं, मुस्कुराकर बोली, ‘राखी बांधने कहां जाओगी भौजी. चलो खाना पहिले खा लो फिर चली जाना.’

विमला तो कुछ न बोली पर विनोद फिर उसी स्वर में बोले, ‘तुम क्या जानो अंतो! आदमी तो वह जो इशारे से समझ जाए. आज त्यौहार का दिन और यह जाएंगी अखिलेश के घर उसे राखी बांधने. जो लोग अपने घर आवेंगे वे कदाचित्‌ दीवारों से बातचीत करेंगे? और फिर क्या अखिलेश को यह घर मालूम नहीं है? चाहते तो आ न सकते थे?’
अंतो कुछ घबरा-सी उठी, बोली, ‘जाने भी दो विनोद भैया! त्यौहार के दिन ग़ुस्सा नहीं करते.’

विमला चुपचाप हाथ में सरौता-सुपारी ज्यों-की-त्यों लिए बैठी थी. पान सामने पड़े थे. उसकी आंखों से बरबस आंसू गिरे जा रहे थे. विनोद को विमला का यह बर्ताव बहुत खल रहा था. अंतो की बात के उत्तर में वह फिर उसी क्रोध-भरे स्वर में बोले, ‘त्यौहार के दिन ग़ुस्सा तो नहीं किया जाता अंतो, पर रोया जाता है. सो मैं अपनी किस्मत को रोता हूं. पिता जी ने न जाने कब का बैर निकाला जो नाहक ही बैठे-बैठाए मेरे गले में यह बला बांध दी. देख रही हो न? खाना इसी प्रकार तो खिलाया जाता है! हमारे सामने थालियां परोसकर वे आंसू बहा रही हैं; तो हम लोग भी मरभुखे नहीं हैं. खाना दूसरी जगह भी तो खा सकते हैं. कहते हुए विनोद अंतो का हाथ पकड़कर थाली पर से उठ गए.

विमला ने किसी को रोका नहीं. उसकी मानसिक स्थिति पागलों से भी ख़राब थी. उसने राखियों को उठाकर दूर फेंक दिया. फल और मिठाई उठाकर नौकरों को दे दी. माला को मसलकर, दूर फेंककर, वह खाट पर गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी. अखिल का पवित्र प्रेम, उनका मधुर व्यवहार, उन दो नन्हें-नन्हें अबोध बच्चों के द्वारा राखी का अभिनय, एक-एक करके अतीत की सब स्मृतियां उसके सामने साकार बनकर खड़ी हो गईं.
आज उसकी वही स्नेहलता, जिसे दो नन्‍हें-नन्हें अबोध बालकों ने अपनी पवित्रता पर आरोपित किया था, तरुण हृदयों ने अपनी दृढ़ता से मजबूत बनाया था, एक मिथ्या संदेह के आधार पर, निर्दयता से कुचली जा रही थी.

विमला कांप उठी. वह पलंग पर उठकर बैठ गई और अपने आप ही बोल उठी, हे ईश्वर! तू साक्षी है. यदि मैं अपने पथ से ज़रा भी विचलित होऊं, तो मुझे कड़ी-से-कड़ी सजा देना. पतिव्रत धर्म, स्त्री धर्म तो यही है न कि पति की उचित-अनुचित आज्ञाओं का चुपचाप पालन किया जाए. वह मैं कर रही हूं. विधाता! पर इतने पर भी यदि मेरी दुर्बल आत्मा अपने किसी आत्मीय के लिए पुकार उठे तो मुझे अपराधिनी न प्रमाणित करना.

इसी समय मां की भेजी हुई मिश्रानी, फल, मिठाई और मेवा इत्यादि लेकर आईं. विमला भरी तो बैठी ही थी; मिश्रानी को देखते ही बरस पड़ी. अपने क्रोध-भरे स्वर में कहा, मिश्रानी, यह सब क्‍यों ले आई हो? ले जाओ, मैं क्‍या करूंगी लेकर, मां से कहना मेरे लिए कुछ भेजा न करें; समझ लें आज से विन्ना मर गई.

मिश्रानी कुछ देर तक स्तंभित-सी खड़ी रही; उसकी समझ में न आया कि क्या करे. विमला को इस रूप में उसने कभी देखा न था; इसी समय विमला की दूसरी डांट से मिश्रानी की चेतना जाग्रत हो उठी. विमला ने अपना क्रोध फिर उसी पर उतारा, बोली, जाती हो कि खड़ी ही रहोगी?

बेचारी मिश्रानी को कुछ कहने का साहस न हुआ; डरते-डरते थाली वहीं मेज पर धीरे से रखकर वह जाने लगी.
विमला ने पुकारा, यह थाली उठा लिए जाओ मिश्रानी.

मिश्रानी ने चुपचाप थाली उठाई और चली गई. विमला की मां से उसने विमला के कहे सारे वाक्य दुहरा दिए. विमला की मां यह सब सुनकर घबरा उठीं. पुरानी प्रथा के अनुसार बेटी की देहली के भीतर पैर रखना अनुचित है, इसका उन्हें खयाल न रहा. उसी समय वह कार में बैठकर विमला के पास पहुंच गईं. इस समय तक विमला रो-धोकर कुछ शांत होकर बैठी थी. सोच रही थी कि नाहक ही मां के घर की चीज़ें वापस भेजीं. मिश्रानी से अनावश्यक बातें कह के बुरा ही किया. वह आख़िर क्या समझे, समझ भी गई तो क्या कर सकती है? वह मां से कहेगी और मां को दुःख होगा. अगर बाबू को मालूम हुआ तो? अनन्तराम जी की वेदना के स्मरण मात्र से विमला फिर रो उठी.

इसी बीच उसकी मां ने वहां प्रवेश किया. मां को देखते ही उसका रहा-सहा धीरज जाता रहा. मां से लिपटकर वह ख़ूब रोई. मां-बेटी दोनों बहुत देर तक बिना कुछ बोले-चाले रोती रहीं; अंत में कमला ने किसी प्रकार विमला को शांत किया. मां के बहुत पूछने पर विमला ने मां को सब-कुछ बतला दिया.

इस बात से कमला को कष्ट न हुआ हो, सो बात नहीं थी; परंतु विमला को वह किसी प्रकार शांत करना चाहती थीं, इसलिए अपनी मार्मिक वेदना को हृदय में ही छिपाकर वह शांत स्वर में विमला को समझाती हुई बोलीं, बेटी! विनोद की बातों का तुम्हें बुरा न मानना चाहिए. इतना तो समझा करो कि वे तुम्हें कितना अधिक प्यार करते हैं. तुम्हारे ऊपर यदि विनोद का इतना अधिक स्नेह न होता तो वे तुम्हारी इतनी नन्‍हीं-नन्‍हीं बातों को इतनी बारीक़ी से देखते भी तो नहीं.

मां की बातों से विमला को कुछ सांत्वना मिली हो चाहे नहीं; पर वह कुछ बोली नहीं. बहुत रात तक विनोद की प्रतीक्षा करने पर भी जब विनोद न लौटे तो कमला विमला को समझा-बुझाकर अपने घर चली आई.

विनोद अखिलेश के घर चले गए थे; इसलिए उन्हें घर लौटने में कुछ देरी हो गई. जब विनोद अकेले ही अखिलेश के घर पहुंचे तो वे कुछ चकित-से हुए, परंतु विमला के विषय में स्वयं वह कुछ न पूछ सके; विनोद को ही यह विषय छेड़ना पड़ा. रात को बहुत-सी बातें तो विनोद के ही द्वारा उन्हें मालूम हो चुकी थीं, दूसरे दिन विमला की मां से उन्हें और भी बहुत-सी बातें मालूम हुईं; अखिलेश कुछ विचलित-से हो उठे. उन्हें अपने ही ऊपर क्रोध आया. उन्होंने सोचा, मैं भी क्या व्यक्ति हूं जिसके कारण एक सुखी दंपति का जीवन दुखी हुआ जा रहा है. उन्हें कोई प्रतिकार न सूझ पड़ा और अंत में वह एक निश्चय पर पहुंचे. इधर कुछ दिनों से वे यहीं कॉलेज में प्रोफ़ेसर हो गए थे. उन्होंने एक पत्र कॉलेज के प्रिंसिपल को लिखा और दूसरा लिखा विनोद के लिए.

कॉलेज का पत्र उसी समय कॉलेज भेजकर, दूसरा पत्र नौकर को देकर समझा दिया कि शाम को वह विनोद को दे आवे. नौकर बाज़ार गया था; रास्ते में विनोद से उसकी भेंट हुई; सोचा कि शाम को फिर इतनी दूर आने का झगड़ा कौन रखे. ये मिल गए हैं तो पत्र यहीं दे दूं. चिट्ठी निकाल विनोद को देकर वह आगे निकल गए. पत्र पढ़ते ही विनोद घबरा गए. रात से विमला की तबीयत ख़राब थी. वे डॉक्टर बुलाने आए थे, अब उन्हें डॉक्टर की याद न रही. वे सीधे अखिलेश के घर की तरफ़ दौड़े, अखिलेश घर पर न मिले, उन्हें देखने कॉलेज गए; किंतु वहां अखिलेश तो न मिले; हां, हर एक की ज़बान पर, बिना किसी कारण ही दिए हुए अखिलेश के इस्तीफ़े की चर्चा अवश्य सुनने को मिली. विनोद ने जाकर प्रिंसिपल से अखिलेश का इस्तीफ़ा वापस लिया और उनसे कहा कि अखिलेश से मिलकर वह इस्तीफ़े के विषय में अंतिम सूचना देंगे. जब तक विनोद से उन्हें कोई सूचना न मिले तब तक वे इस्तीफ़े पर किसी प्रकार का निर्णय न करें. वहां से वे फिर अखिलेश के घर आए. दरवाजे पर तांगा खड़ा था. जिस पर अखिलेश का एक बैग और बिस्तर रखा था. विनोद के पहुंचने से पहले ही अखिलेश आकर तांगे पर बैठ गए. उसी समय पहुंचे विनोद; साइकिल वहीं फेंककर अखिलेश की बगल में जा बैठे और सजल आंखों से बोले-
‘चलो कहां चलते हो अखिल! मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं.’

अखिलेश की भी आंखें भर आईं, वे कुछ क्षण तक कुछ बोल न सके. अंत में, वे किसी प्रकार अपने को संभालकर बोले, तुम पागल हो विनोद. तुम्हें मेरे साथ चलने की क्या जरूरत है.

-ज़रूरत? ठहरो तुम्हें अभी बतलाता हूं. पर तुम यह समझ लो कि मैं तुम्हारा साथ स्वर्ग और नरक तक भी न छोड़ूंगा. यह देखो, तुम्हारा इस्तीफ़ा है, कहते हुए विनोद ने जेब से अखिलेश का लिखा हुआ इस्तीफ़ा निकालकर टुकड़े-टुकड़े करके फेक दिया और तांगा अपने मकान की तरफ़ मुड़वा लिया.

नौकर अखिलेश का सामान विनोद के आदेशानुसार विनोद के कमरे में ही ले जाकर रख आया. विमला समझ न सकी कि विनोद का ऐसा कौन-सा आत्मीय आया है जो इन्हीं के कमरे में ठहराया जाएगा?

इसी समय सीढ़ियों पर विनोद ने आवाज़ दी, विन्नो! यह डॉक्टर आया है.

Illustration: Pinterest

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