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शतरंज के खिलाड़ी: शतरंज की बिसात और बहादुरी की कहानी (लेखक: मुंशी प्रेमचंद)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 1, 2021
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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शतरंज के खिलाड़ी: शतरंज की बिसात और बहादुरी की कहानी (लेखक: मुंशी प्रेमचंद)
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कभी-कभी आपके मन में भी यह सवाल आता होगा कि तमाम बहादुर योद्धाओं के बावजूद भारत को लंबे समय की ग़ुलामी के दौर से क्यों गुज़रना पड़ा? मुंशी प्रेमचंद की यह कहानी काफ़ी हद तक आपके सवाल का जवाब दे देगी. यह विलासिता से डूबे लखनऊ शहर की कहानी है.

वाजिदअली शाह का समय था. लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था. छोटे-बड़े, ग़रीब-अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे. कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था, तो कोई अफीम की पीनक ही में मज़े लेता था. जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था. शासन-विभाग में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक अवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धंधों में, आहार-व्यवहार में सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी. राजकर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र, मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त थे. सभी की आंखों में विलासिता का मद छाया हुआ था. संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को ख़बर न थी. बटेर लड़ रहे हैं. तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदली जा रही है. कहीं चौसर बिछी हुई है; पौ-बारह का शोर मचा हुआ है. कही शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है. राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे. यहां तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियां न लेकर अफीम खाते या मदक पीते. शतरंज, ताश, गंजीफ़ा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार-शक्ति का विकास होता है, पेंचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है. ए दलीलें ज़ोरों के साथ पेश की जाती थीं (इस सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी ख़ाली नहीं है). इसलिए अगर मिरज़ा सज्जादअली और मीर रौशनअली अपना अधिकांश समय बुद्धि तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थीं; जीविका की कोई चिंता न थी; कि घर में बैठे चखौतियां करते थे. आख़िर और करते ही क्या? प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते, और लड़ाई के दाव-पेंच होने लगते. फिर ख़बर न होती थी कि कब दोपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब शाम! घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता कि खाना तैयार है. यहां से जवाब मिलता-चलो, आते हैं, दस्तरख्वान बिछाओ. यहां तक कि बावरची विवश हो कि कमरे ही में खाना रख जाता था, और दोनों मित्र दोनों काम साथ-साथ करते थे. मिरज़ा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा-बूढ़ा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियां होती थीं. मगर यह बात न थी मिरज़ा के घर के और लोग उनसे इस व्यवहार से ख़ुश हों. घरवालों का तो कहना ही क्या, मुहल्लेवाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियां किया करते थे-बड़ा मनहूस खेल है. घर को तबाह कर देता है. ख़ुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े, आदमी दीन-दुनिया किसी के काम का नहीं रहता, न घर का, न घाट का. बुरा रोग है. यहां तक कि मिरज़ा की बेग़म साहबा को इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोजकर पति को लताड़ती थीं. पर उन्हें इसका अवसर मुश्क़िल से मिलता था. वह सोती रहती थीं, तब तक बाज़ी बिछ जाती थी. और रात को जब सो जाती थीं, तब कही मिरज़ाजी घर में आते थे. हां, नौकरों पर वह अपना ग़ुस्सा उतारती रहती थीं- क्या पान मांगे हैं? कह दो, आकर ले जाएं. खाने की फुरसत नहीं है? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खाएं चाहे कुत्ते को खिलाएं. पर रूबरू वह भी कुछ न कह सकती थीं. उनको अपने पति से उतना मलाल न था, जितना मीर साहब से. उन्होंने उनका, नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था. शायद मिरज़ाजी अपनी सफ़ाई देने के लिए सारा इलजाम मीर साहब ही के सर थोप देते थे.
एक दिन बेग़म साहबा के सिर में दर्द होने लगा. उन्होंने लौंडी से कहा-जाकर मिरज़ा साहब को बुला लो. किसी हक़ीम के यहां से दवा लाएं. दौड़, जल्दी कर. लौंडी गई तो मिरज़ाजी ने कहा-चल, अभी आते हैं. बेग़म साहबा का मिज़ाज गरम था. इतनी ताब कहां कि उनके सिर में दर्द हो और पति शतरंज खेलता रहे. चेहरा सुर्ख़ हो गया. लौंडी से कहा-जाकर कह, अभी चलिए, नहीं तो वह आप ही हक़ीम के यहां चली जाएंगी. मिरज़ाजी बड़ी दिलचस्प बाज़ी खेल रहे थे, दो ही किस्तों में मीर साहब की मात हुई जाती थी. झुंझलाकर बोले-क्या ऐसा दम लबों पर है? ज़रा सब्र नहीं होता?
मीर-अरे, तो जाकर सुन ही आइए न. औरतें नाज़ुक-मिज़ाज होती ही हैं.
मिरज़ा-जी हां, चला क्यों न जाऊं! दो किस्तों में आपकी मात होती है.
मीर-जनाब, इस भरोसे न रहिएगा. वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें और मात हो जाय. पर जाइए, सुन आइए. क्यों खामख्वाह उनका दिल दुखाइएगा?
मिरज़ा-इसी बात पर मात ही करके जाऊंगा.
मीर-मैं खेलूंगा ही नहीं. आप जाकर सुन आइए.
मिरज़ा-अरे यार, जाना पड़ेगा हक़ीम के यहां. सिर-दर्द खाक नहीं है, मुझे परेशान करने का बहाना है.
मीर-कुछ भी हो, उनकी ख़ातिर तो करनी ही पड़ेगी.
मिरज़ा-अच्छा, एक चाल और चल लूं.
मीर-हरगिज़ नहीं, जब तक आप सुन न आएंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न लगाऊंगा.
मिरज़ा साहब मजबूर होकर अंदर गए तो बेग़म साहबा ने त्योरियां बदलकर, लेकिन कराहते हुए कहा-तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाए, पर उठने का नाम नहीं लेते! नौज, कोई तुम-जैसा आदमी हो!
मिरज़ा-क्या कहूं, मीर साहब मानते ही न थे. बड़ी मुश्क़िल से पीछा छुड़ाकर आया हूं.
बेग़म-क्या जैसे वह ख़ुद निखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं. उनके भी तो बाल-बच्चे हैं; या सबका सफ़ाया कर डाला?
मिरज़ा-बड़ा लती आदमी है. जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना पड़ता है.
बेग़म-दुत्कार क्यों नहीं देते?
मिरज़ा-बराबर के आदमी हैं; उम्र में, दर्जे में मुझसे दो अंगुल ऊंचे. मुलाहिज़ा करना ही पड़ता है.
बेग़म-तो मैं ही दुत्कारे देती हूं. नाराज़ हो जाएंगे, हो जाएं. कौन किसी की रोटियां चला देता है. रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी. हरिया; जा बाहर से शतरंज उठा ला. मीर साहब से कहना, मियां अब न खेलेंगे; आप तशरीफ़ ले जाइए.
मिरज़ा-हां-हां, कहीं ऐसा ग़ज़ब भी न करना! जलील करना चाहती हो क्या? ठहर हरिया, कहां जाती है.
बेग़म-जाने क्यों नहीं देते? मेरा ही ख़ून पिए, जो उसे रोके. अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको, तो जानूं?
यह कहकर बेग़म साहबा झल्लाई हुई दीवानख़ाने की तरफ़ चलीं. मिरज़ा बेचारे का रंग उड़ गया. बीबी की मिन्नतें करने लगे-ख़ुदा के लिए, तुम्हें हजरत हुसेन की कसम है. मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाए. लेकिन बेग़म ने एक न मानी. दीवानखाने के द्वार तक गईं, पर एकाएक पर-पुरुष के सामने जाते हुए पांव बंध-से गए. भीतर झांका, संयोग से कमरा ख़ाली था. मीर साहब ने दो-एक मुहरे इधर-उधर कर दिए थे, और अपनी सफ़ाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे. फिर क्या था, बेग़म ने अंदर पहुंचकर बाज़ी उलट दी, मुहरे कुछ तख़्त के नीचे फेंक दिए, कुछ बाहर और किवाड़ अंदर से बंद करके कुंडी लगा दी. मीर साहब दरवाज़े पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी. फिर दरवाज़ा बंद हुआ, तो समझ गए, बेग़म साहबा बिगड़ गईं. चुपके से घर की राह ली.
मिरज़ा ने कहा-तुमने ग़ज़ब किया.
बेग़म-अब मीर साहब इधर आए, तो खड़े-खड़े निकलवा दूंगी. इतनी लौ ख़ुदा से लगाते, तो वली हो जाते! आप तो शतरंज खेलें, और मैं यहां चूल्हे-चक्की की फिक्र में सिर खपाऊं! जाते हो हक़ीम साहब के यहां कि अब भी ताम्मुल है.
मिरज़ा घर से निकले, तो हक़ीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुंचे और सारा वृत्तांत कहा. मीर साहब बोले-मैंने तो जब मुहरे बाहर आते देखे, तभी ताड़ गया. फौरन भागा. बड़ी ग़ुस्सेवर मालूम होती हैं. मगर आपने उन्हें यों सिर चढ़ा रखा है, यह मुनासिब नहीं. उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं. घर का इंतज़ाम करना उनका काम है; दूसरी बातों से उन्हें क्या सरोकार?
मिरज़ा-ख़ैर, यह तो बताइए, अब कहां जमाव होगा?
मीर-इसका क्या ग़म है. इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है. बस यहीं जमें.
मिरज़ा-लेकिन बेग़म साहबा को कैसे मनाऊंगा? घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना बिगड़ती थीं; यहां बैठक होगी, तो शायद ज़िंदा न छोड़ेंगी.
मीर-अजी बकने भी दीजिए, दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जाएंगी. हां, आप इतना कीजिए कि आज से ज़रा तन जाइए.
*****
मीर साहब की बेग़म किसी अज्ञात कारण से मीर साहब का घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थीं. इसलिए वह उनके शतरंज-प्रेम की कभी आलोचना न करती थीं; बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं. इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गंभीर है. लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन-भर घर में रहने लगे, तो बेग़म साहबा को बड़ा कष्ट होने लगा. उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गई. दिन-भर दरवाज़े पर झांकने को तरस जातीं.
उधर नौकरों में भी कानाफूसी होने लगी. अब तक दिन-भर पड़े-पड़े मक्खियां मारा करते थे. घर में कोई आए, कोई जाए, उनसे कुछ मतलब न था. अब आठों पहर की धौंस हो गई. पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई का. और हुक्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भांति नित्य जलता ही रहता था. वे बेग़म साहबा से जा-जाकर कहते-हुजूर, मियां की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गई. दिन-भर दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गए. यह भी कोई खेल कि सुबह को बैठे तो शाम कर दी. घड़ी आध घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल खेलना बहुत है. ख़ैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं; हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा, बजा ही लाएंगे; मगर यह खेल मनहूस है. इसका खेलनेवाला कभी पनपता नहीं; घर पर कोई न कोई आफत जरूर आती है. यहां तक कि एक के पीछे महल्ले-के-महल्ले तबाह होते देखे गए हैं. सारे मुहल्ले में यही चरचा रहती है. हुजूर का नमक खाते हैं, अपने आक़ा की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है? मगर क्या करें? इस पर बेग़म साहबा कहती हैं- मैं तो ख़ुद इसको पसंद नहीं करती. पर वह किसी की सुनते ही नहीं, क्या किया जाए.
मुहल्ले में भी जो दो-चार पुराने ज़माने के लोग थे, आपस में भांति-भांति की अमंगल कल्पनाएं करने लगे-अब खैरियत नहीं. जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का ख़ुदा ही हाफ़िज है. यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी. आसार बुरे हैं.
राज्य में हाहाकार मचा हुआ था. प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी. कोई फ़रियाद सुननेवाला न था. देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची आती थी और वह वेश्याओं में, भांडों में और विलासिता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी. अंग्रेज़ कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था. कमली दिन-दिन भीगकर भारी होती जाती थी. देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी वसूल न होता था. रेज़ीडेंट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहां तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे, किसी के कानों पर जूं न रेंगती थी.
ख़ैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते कई महीने गुज़र गए. नए-नए नक्शे हल किए जाते; नए-नए क़िले बनाए जाते; नित्य नई व्यूह-रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते झौड़ हो जाती; तू-तू मैं-मैं तक की नौबत आ जाती; पर शीघ्र ही दोनों मित्रों में मेल हो जाता. कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाज़ी उठा दी जाती; मिरज़ाजी रूठकर अपने घर चले जाते. मीर साहब अपने घर में जा बैठते. पर रातभर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शांत हो जाता था. प्रातःकाल दोनों मित्र दीवानखाने में आ पहुंचते थे.
एक दिन दोनों मित्र बैठे हुए शतरंज की दलदल में गोते खा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफ़सर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुंचा. मीर साहब के होश उड़ गए. यह क्या बला सिर पर आई! यह तलबी किसलिए हुई है? अब ख़ैरियत नहीं नज़र आती. घर के दरवाज़े बंद कर लिए. नौकरों से बोले-कह दो, घर में नहीं हूं.
सवार-घर में नहीं, तो कहां हैं?
नौकर-यह मैं नहीं जानता. क्या काम है?
सवार-काम तुझे क्या बताऊंगा? हुजूर में तलबी है. शायद फौज के लिए कुछ सिपाही मांगे गए हैं. जागीरदार हैं कि दिल्लगी! मोरचे पर जाना पड़ेगा, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा!
नौकर-अच्छा, तो जाइए, कह दिया जाएगा?
सवार-कहने की बात नहीं है. मैं कल ख़ुद आऊंगा, साथ ले जाने का हुक़्म हुआ है.
सवार चला गया. मीर साहब की आत्मा कांप उठी. मिरज़ाजी से बोले-कहिए जनाब, अब क्या होगा?
मिरज़ा-बड़ी मुसीबत है. कहीं मेरी तलबी भी न हो.
मीर-कम्बख़्त कल फिर आने को कह गया है.
मिरज़ा-आफत है, और क्या. कहीं मोरचे पर जाना पड़ा, तो बेमौत मरे.
मीर-बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलो ही नहीं. कल से गोमती पर कहीं वीराने में नख्शा जमे. वहां किसे ख़बर होगी. हजरत आकर आप लौट जाएंगे.
मिरज़ा वल्लाह, आपको ख़ूब सूझी! इसके सिवाय और कोई तदबीर ही नहीं है.
इधर मीर साहब की बेग़म उस सवार से कह रही थी, तुमने ख़ूब धता बताया.
उसने जवाब दिया-ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूं. इनकी सारी अक़्ल और हिम्मत तो शतरंज ने चर ली. अब भूल कर भी घर पर न रहेंगे.
*****
दूसरे दिन से दोनों मित्र मुंह अंधेरे घर से निकल खड़े होते. बगल में एक छोटी-सी दरी दबाए, डिब्बे में गिलौरियां भरे, गोमती पार की एक पुरानी वीरान मसजिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफ़उद्दौला ने बनवाया था. रास्ते में तम्बाकू, चिलम और मदरिया ले लेते, और मसजिद में पहुंच, दरी बिछा, हुक्का भरकर शतरंज खेलने बैठ जाते थे. फिर उन्हें दीन-दुनिया की फ़िक्र न रहती थी. किश्त, शह आदि दो-एक शब्दों के सिवा उनके मुंह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था. कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता होगा. दोपहर को जब भूख मालूम होती तो दोनों मित्र किसी नानबाई की दुकान पर जाकर खाना खाते, और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम-क्षेत्र में डट जाते. कभी-कभी तो उन्हें भोजन का भी ख़्याल न रहता था.
इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी. कम्पनी की फौजें लखनऊ की तरफ़ बढ़ी चली आती थीं. शहर में हलचल मची हुई थी. लोग बाल-बच्चों को लेकर देहातों में भाग रहे थे. पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इनकी ज़रा भी फ़िक्र न थी. वे घर से आते तो गलियों में होकर. डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाए, जो बेकार में पकड़ जाएं. हज़ारों रुपए सालाना की जागीर मुफ़्त ही हजम करना चाहते थे.
एक दिन दोनों मित्र मसजिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे. मिरज़ा की बाज़ी कुछ कमज़ोर थी. मीर साहब उन्हें किश्त-पर-किश्त दे रहे थे. इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखायी दिए. वह गोरों की फौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी.
मीर साहब बोले-अंग्रेजी फौज आ रही है; ख़ुदा ख़ैर करे.
मिरज़ा-आने दीजिए, किश्त बचाइए. यह किश्त.
मीर-ज़रा देखना चाहिए, यहीं आड़ में खड़े हो जाएं!
मिरज़ा-देख लीजिएगा, जल्दी क्या है, फिर किश्त!
मीर तोपखाना भी है. कोई पांच हज़ार आदमी होंगे कैसे-कैसे जवान हैं. लाल बन्दरों के-से मुंह. सूरत देखकर खौफ़ मालूम होता है.
मिरज़ा-जनाब, हीले न कीजिए. ए चकमे किसी और को दीजिएगा. यह किश्त!
मीर-आप भी अजीब आदमी हैं. यहां तो शहर पर आफ़त आई हुई है और आपको किश्त की सूझी है! कुछ इसकी भी ख़बर है कि शहर घिर गया, तो घर कैसे चलेंगे?
मिरज़ा-जब घर चलने का वक़्त आएगा, तो देखा जाएगा-यह किश्त! बस, अबकी शह में मात है.
फौज निकल गई. दस बजे का समय था. फिर बाज़ी बिछ गई.
मिरज़ा-आज खाने की कैसे ठहरेगी?
मीर-अजी, आज तो रोज़ा है. क्या आपको ज़्यादा भूख मालूम होती है?
मिरज़ा-जी नहीं. शहर में न जाने क्या हो रहा है!
मीर-शहर में कुछ न हो रहा होगा. लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होंगे. हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होंगे.
दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे, तो तीन बज गए. अबकी मिरज़ा जी की बाज़ी कमजोर थी. चार का गजर बज ही रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली. नवाब वाजिदअली पकड़ लिए गए थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी. शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट. एक बूंद भी ख़ून नहीं गिरा था. आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से, इस तरह ख़ून बहे बिना न हुई होगी. यह वह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं. यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-बड़े कायर भी आंसू बहाते हैं. अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी चला जाता था, और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था. यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी.
मिरज़ा ने कहा-हुजूर नवाब साहब को जालिमों ने क़ैद कर लिया है.
मीर-होगा, यह लीजिए शह.
मिरज़ा-जनाब ज़रा ठहरिए. इस वक़्त इधर तबीयत नहीं लगती. बेचारे नवाब साहब इस वक़्त ख़ून के आंसू रो रहे होंगे.
मीर-रोया ही चाहें. यह ऐश वहां कहां नसीब होगा. यह किश्त!
मिरज़ा-किसी के दिन बराबर नहीं जाते. कितनी दर्दनाक हालत है.
मीर-हां, सो तो है ही-यह लो, फिर किश्त! बस, अबकी किश्त में मात है, बच नहीं सकते.
मिरज़ा-ख़ुदा की कसम, आप बड़े बेदर्द हैं. इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नहीं होता. हाय, ग़रीब वाजिदअली शाह!
मीर-पहले अपने बादशाह को तो बचाइए फिर नवाब साहब का मातम कीजिएगा. यह किश्त और यह मा! लाना हाथ!s
बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गई. उनके जाते ही मिरज़ा ने फिर बाज़ी बिछा दी. हार की चोट बुरी होती है. मीर ने कहा-आइए, नवाब साहब के मातम में एक मरसिया कह डालें. लेकिन मिरज़ा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी. वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो रहे थे.
*****
शाम हो गई. खंडहर में चमगादड़ों ने चीखना शुरू किया. अबाबीलें आ-आकर अपने-अपने घोसलों में चिमटीं. पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे, मानो दो ख़ून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हों. मिरज़ाजी तीन बाजियां लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाज़ी का रंग भी अच्छा न था. वह बार-बार जीतने का दृढ़ निश्चय करके संभलकर खेलते थे लेकिन एक-न-एक चाल ऐसी बेढब आ पड़ती थी, जिससे बाज़ी ख़राब हो जाती थी. हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और भी उग्र होती थी. उधर मीर साहब मारे उमंग के गजलें गाते थे, चुटकियां लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गए हों. मिरज़ाजी सुन-सुनकर झुंझलाते और हार की झेंप को मिटाने के लिए उनकी दाद देते थे. पर ज्यों-ज्यों बाज़ी कमज़ोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकला जाता था. यहां तक कि वह बात-बात पर झुंझलाने लगे-जनाब, आप चाल बदला न कीजिए. यह क्या कि एक चाल चले, और फिर उसे बदल दिया. जो कुछ चलना हो एक बार चल दीजिए; यह आप मुहरे पर हाथ क्यों रखते हैं? मुहरे को छोड़ दीजिए. जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइए ही नहीं. आप एक-एक चाल आध घंटे में चलते हैं. इसकी सनद नहीं. जिसे एक चाल चलने में पांच मिनट से ज़्यादा लगे, उसकी मात समझी जाए. फिर आपने चाल बदली! चुपके से मुहरा वहीं रख दीजिए.
मीर साहब का फरजी पिटता था. बोले-मैंने चाल चली ही कब थी?
मिरज़ा-आप चाल चल चुके हैं. मुहरा वहीं रख दीजिए-उसी घर में!
मीर-उस घर में क्यों रखूं? मैंने हाथ से मुहरा छोड़ा ही कब था?
मिरज़ा-मुहरा आप क़यामत तक न छोड़ें, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धांधली करने लगे.
मीर-धांधली आप करते हैं. हार-जीत तकदीर से होती है, धांधली करने से कोई नहीं जीतता?
मिरज़ा-तो इस बाज़ी में तो आपकी मात हो गई.
मीर-मुझे क्यों मात होने लगी?
मिरज़ा-तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहां पहले रक्खा था.
मीर-वहां क्यों रखूं? नहीं रखता.
मिरज़ा-क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा.
तकरार बढ़ने लगी. दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे. न यह दबता था न वह. अप्रासंगिक बातें होने लगीं, मिरज़ा बोले- किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती, तब तो इसके कायदे जानते. वे तो हमेशा, घास छीला करते, आप शतरंज क्या खेलिएगा. रियासत और ही चीज है. जागीर मिल जाने से ही कोई रईस नहीं हो जाता.
मीर-क्या? घास आपके अब्बाजान छीलते होंगे. यहां तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आ रहे हैं.
मिरज़ा-अजी, जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहां बावरची का काम करते-करते उम्र गुज़र गई आज रईस बनने चले हैं. रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं है.
मीर-क्यों अपने बुजुर्गों के मुंह में कालिख लगाते हो-वे ही बावरची का काम करते होंगे. यहां तो हमेशा बादशाह के दस्तरख्वान पर खाना खाते चले आए हैं.
मिरज़ा-अरे चल चरकटे, बहुत बढ़-बढ़कर बातें न कर.
मीर-जबान संभालिए, वरना बुरा होगा. मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूं. यहां तो किसी ने आंखें दिखायीं कि उसकी आंखें निकालीं. है हौसला?
मिरज़ा-आप मेरा हौसला देखना चाहते हैं, तो फिर, आइए. आज दो-दो हाथ हो जाएं, इधर या उधर.
मीर-तो यहां तुमसे दबनेवाला कौन?
दोनों दोस्तों ने कमर से तलवारें निकाल लीं. नवाबी जमाना था; सभी तलवार, पेशकब्ज, कटार वगैरह बांधते थे. दोनों विलासी थे, पर कायर न थे. उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था-बादशाह के लिए, बादशाहत के लिए क्यों मरें; पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था. दोनों जख़्म खाकर गिरे, और दोनों ने वहीं तड़प-तड़पकर जानें दे दीं. अपने बादशाह के लिए जिनकी आंखों से एक बूंद आंसू न निकला, उन्हीं दोनों प्राणियों ने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिए.
अंधेरा हो चला था. बाज़ी बिछी हुई थी. दोनों बादशाह अपने-अपने सिंहासनों पर बैठे हुए मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे!
चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था. खंडहर की टूटी हुई मेहराबें, गिरी हुई दीवारें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखतीं और सिर धुनती थीं.

Illustration: Pinterest

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ओए अफ़लातून

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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