जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य है या ब्रह्म मिथ्या और जगत सत्य. ये विवाद सदैव से चलता आया है और चलता रहेगा. किंतु इसका उत्तर जानने के लिए अगर हम पुराणो की ओर जाएं और उनका सिर्फ़ पठन ही नहीं मनन भी करें तो पाएंगे कि हमारे व्रत, उपवासों में कोई तो वैज्ञानिक आधार छिपा है, जिन्हें यदि हम समझ लें तो इन्हें बनाने के उद्देश्य से परिचित हो सकेंगे. हो सकता है हमारे द्वंद्वग्रस्त मन को पूजा की सही विधि भी मिल जाए और अपने स्तर पर कुछ सार्थक करने का संतोष भी. यहां नवरात्र के चौथे दिन की पूज्य देवी कुष्मांडा की पूजा की प्रासंगिकता पर चर्चा कर रही हैं भावना प्रकाश.
देवी कुष्मांडा मां के जननी रूप का प्रतीक हैं. ये तो सब जानते हैं कि उदर से लेकर अंड तक में वो पूरा ब्रह्मांड समेटे हैं. उनसे ही इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई थी, इसलिए उन्हें कुष्मांडा कहा जाता है.
लेखों के ज़रिए नारी के जननी रूप और उसकी महानता, महत्त्व आदि पर भी साहित्य की कमी नहीं है और गर्भावस्था में ध्यान देने योग्य बातों पर भी. तो इसका विस्तार यहां समीचीन नहीं.
संपूर्ण ब्रह्मांड को अपने भीतर समेटने के प्रतीक और प्रासंगिकता को समझने के लिए हमें एक बार फिर पर्यावरणविदों के सुझावों और चेतावनियों की ओर समग्रता में ध्यान देना होगा.
जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि पूज्य होने का अर्थ है सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होना, सबसे ज़्यादा सहेजकर और शुद्ध बनाकर रखने वाली सामग्री. विगत दशाब्दियों में हम मानव प्रकृति का इतना अन्धाधुंध दोहन कर चुके हैं कि संपूर्ण प्रकृति को, विलुप्त होती प्रजातियों को, पर्यावरण को सहेजने और शुद्ध बनाकर रखने की आवश्यकता युद्ध स्तर पर महसूस होने लगी है.
वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों जैसे सोलर और पवन ऊर्जा आदि का महत्त्व समझना और उन्हें श्रद्धापूर्वक अर्थात अगुआई करके अपनाना भी अत्यावश्यक है. अब यदि आप देवी मां कुष्मांडा को सही मायने में पूजना चाहते हैं तो पर्यावरण के दोहन को रोकना और उसका संरक्षण करना ही उनकी पूजा का तरीक़ा हैं. इस दिशा में प्रत्येक स्तर पर, प्रत्येक मानव द्वारा किए गए टिटहरी प्रयत्न ही हैं देवी मां कुष्मांडा की पूजा के असली फूल.
फ़ोटो: गूगल
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