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Home ज़रूर पढ़ें

वापसी: अमृता सिन्हा की नई कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 9, 2021
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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वापसी: अमृता सिन्हा की नई कहानी
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जब आपने अपने रिश्तों को निभाने की सारी कोशिशें कर देखी हों, जब आपने अपनी ओर से हर बदलाव को स्वीकार किया हो, बावजूद इसके रिश्ते संभल न पाएं तो वापसी ही विकल्प है. और ऐसी वापसी का स्वागत किया जाना चाहिए, क्योंकि ये जीवन सभी को एक बार मिला है और सभी को हक़ है कि वे इसे अपने मुताबिक़, अपनी शर्तों पर और अपने हित को ध्यान में रखते हुए जिएं. अमृता सिन्हा की इस कहानी की नायिका की वापसी आपको भी पसंद आएगी.

कड़क स्वभाव वाली अम्मा यूं लाड़ कभी नहीं जतातीं, जब तक कि कोई ख़ास बात न हो. नीलिमा सुबह से ही देख रही थी कि अम्मा का मूड ज़रा बदला हुआ है, बल्कि रोज़ से बेहतर है. वरना सुबह से ही अम्मा कई बार टोका-टोकी कर चुकी होतीं.
रसोई से आ रही कढ़ी की छौंक की तीखी सुगंध उसकी नाक से टकराई.कढ़ी की भनक लगते ही नीलिमा भाग कर रसोई की ओर लपकी, तभी डाइनिंग टेबल से ज़ोर-से टकराते-टकराते बची और छन्न से जब टेबल पर रखी चम्मच नीचे गिरी तो अम्मा चिल्लाकर बोलीं,‘‘अरी! दिख नहीं रहा है क्या? और दौड़ काहे को रही हो?’’

‘‘अरे अम्मा कढ़ी की सुंगध खींच लाई मुझे यहां तक. ज़रा कढ़ी चखाओ न,’’ नीलिमा अम्मा की डपट को नज़रअंदाज़ करते हुए बोली. अम्मा ने चुपचाप एक छोटी कटोरी में कढ़ी डालकर, कटोरी नीलिमा की ओर बढ़ा दी.

नीलिमा तो बेसब्र थी ही, हल्की पीली रंगत लिए कढ़ी की पकौड़ियों से निकलती भाप की परवाह किए बिना ही उसे चम्मच से काटा और फूंक-फूंक कर मुंह में डाल लिया.

‘‘ऊं…हूं…हूं… क्या लज़्ज़तदार कढ़ी बनी है अम्मा… और इसमें डली हींग ने तो इसका स्वाद ही दोगुना कर दिया है,’’ मां जी करता है कि तुम्हारे हाथों को चूम लूं.

‘‘अरे लड़की परे हट… सारे दिन बस मसखरी करती फिरती है. मुझे अभी ढेरों काम हैं, ये नहीं कि मेरे कामों में हाथ बंटा दे कभी. कम से कम लिविंग रूम को तो सहेज देती या फिर कुशन कवर ही बदल देती. लंच क़रीब-क़रीब तैयार ही है. मीना मौसी, मौसाजी और बच्चे अब स्टेशन पहुंचने ही वाले होंगे. मैंने जग्गू को गाड़ी लेकर स्टेशन भेज दिया है रिसीव करने, बस आते ही होंगे वे लोग… तू भी तैयार हो ले,’’ कह कर अम्मा अपने काम में लग गईं.

दरअसल मीना मौसी अम्मा की सगी बहन नहीं थीं, पर अम्मा उन्हें सगी से भी ज़्यादा मानती थीं. नानाजी की मृत्यु मां के बचपन में हो गई थी और नानीजी भी उनके शोक में जल्दी ही चली गईं. बाद में मीना मौसी के पिता जी यानी महेंद्र नानाजी ने ही अम्मा को बेटी की तरह पाला पोसा था. महेंद्र नानाजी, जो मां के चाचा लगते थे, उन्होंने इसी चक्कर में ख़ुद भी देर से शादी की. नानी जी का भी स्वभाव अच्छा था, जिसकी वजह से अम्मा को आज भी मायके का पूरा सुख मिलता है.

अपने मां-बाप की इकलौती संतान थीं अम्मा. उनके माता-पिता खेत-पथार इतना छोड़कर गए थे कि किसी का भी मन बेईमान हो सकता था, पर महेंद्र नानाजी ने पाई- पाई का हिसाब रखा और अम्मा की पढ़ाई-लिखाई के बाद सबकुछ उन्हें सुपुर्द कर दिया. शादी-ब्याह में भी पूरी ज़िम्मेदारी निभाई. अम्मा अक्सर कहतीं हैं कि आज के ज़माने में कौन करता है इतना ? मुझे तो माता-पिता की कमी नहीं होने दिया इन्होंने, तुम दोनों बच्चों का भी ननिहाल तो इन्हीं से है.

अम्मा बार-बार यही बातें दोहरातीं तो भैया अक्सर कहता,‘‘अब बंद भी करो मां अपना ये पुराण.’’

फिर कुछेक साल बाद महेन्द्र नानाजी मीना मौसी को लेकर उनका एडमिशन करवाने पटना आए, पर बहुत कोशिश करने के बाद भी मीना मौसी को कॉलेज में हॉस्टल नहीं मिला तो अम्मा ने उन्हें अपने घर पर रखा और तब यहीं रहकर मीना मौसी ने ग्रेजुएशन किया. साथ-साथ रहने के कारण ही नीलिमा भी उनसे ख़ूब हिली-मिली थी. सहेलियों के घर जाना हो, मूवी देखने जाना हो… हर जगह नीलिमा, मीना को ज़रूर साथ ले जाती. छुट्टियों में मीना मौसी के साथ गांव जाने में बेहद मज़ा आता.

सब इंतज़ार कर ही रहे थे कि तभी बाहर गाड़ी के हॉर्न की आवाज़ सुनाई दी, नीलिमा दौड़ कर बाहर गई. अम्मा भी उसके पीछे हो लीं. पूरे पांच साल बाद मीना मौसी आई थीं. मौसी को देखते ही नीलिमा उनसे लिपट गई.

अम्मा ने भी उन्हें गले लगाते हुए कहा,‘‘अरे मीना आंखें तरस गई थीं तुम लोग को देखने के लिए,’’वे उनकी दोनों बेटियों को प्यार से भीतर लाने ही वाली थीं कि पीछे मुड़कर देखा और आश्चर्य से पूछा,‘‘मीना मेहमान नहीं आए? तुम लोगों के साथ उन्हें भी तो आना था न?’’

‘‘नहीं उन्हें कुछ ज़रूरी काम से कलकत्ता जाना पड़ा दीदी इसलिए नहीं आ पाए,’’ मीना मौसी बोलीं.
मीना मौसी के इस उत्तर से अम्मा आश्वस्त नहीं लगीं, पर फिर भी उन्होंने कहा नहीं कुछ. बस चुपचाप मीना मौसी के चेहरे के हाव-भाव देखती रहीं.

‘‘नीली, मीना मौसी को कमरे तक ले जाओ और बच्चों को भी नहला-धुला दो. नींद आ रही है छोटी को लगता है… दूध तैयार है. पिला दो दोनों को,’’ अम्मा ने कहा. फिर बोलीं,‘‘मैं तब तक गणेश से खाना लगवा देती हूं. तुम लोगों को भूख भी लगी होगी,’’ यह कहती हुई अम्मा रसोई की तरफ़ मुड़ गईं.

सफ़र में थकान होने की वजह से दोनों बच्चों को नींद आ रही थी तो स्नान के बाद दोनों ने थोड़ा-सा दूध पिया और सो गए. बच्चों को सुलाकर मीना और नीलिमा साथ में डाइनिंग हॉल में पहुंच गए. खाना-पीना हो जाने के बाद ड्राइंगरूम के सोफ़े पर धंसकर गपियाने का मूड हो आया, सो तीनों वहीं बैठ गईं.

‘‘दीदी, जीजाजी और मानस नहीं दिख रहे?’’ मीना ने पूछा.
‘‘अरे तुम्हें बताना भूल गई थी मीना, मानस इन दिनों जॉब्स ढूंढ़ रहा है और इंटरव्यू के लिए बैंगलोर गया हुआ है और अपने साथ पापा को भी ले गया है.’’
‘‘ओह अच्छा, तभी ख़ाली-सा लग रहा है, वरना अभी तक मानस मौसी-मौसी कहकर कई चक्कर काट चुका होता,‘‘ मीना ने कहा.
‘‘अच्छा ये सब बातें छोड़, अपने बारे बता… पांच साल हो गए और हम दोनों अपने-अपने परिवारों में यूं व्यस्त रहे कि कभी-कभार सिर्फ़ हाल-चाल ही ले पाए… इत्मीनान से तो बात ही नहीं हो पाई,’’ अम्मा बोलीं.
‘‘क्या बताऊं दीदी… बस, सब चल रहा है,’’ मीना मौसी ने कहा.
‘‘मेहमान जी कब लौट रहे हैं कलकत्ता से मीना?’’
इस सवाल के जवाब में मीना मौसी चुपचाप फ़र्श की ओर देखती रहीं.
‘‘क्या बात है मीना?’’ अम्मा ने चिहुंककर पूछा,‘‘सब ठीक तो है न!‘‘
‘‘दीदी बहुत लंबी कहानी है. मां-पिताजी से भी कुछ कह ना सकी, पर आज अपने मन का बोझ उतार देना चाहती हूं…’’ मीना मौसी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा,‘‘शादी के बाद कुछ दिनों तो सब अच्छा रहा, पर दोनों बेटियों के जन्म के बाद घर में तनावपूर्ण माहौल रहता. सासू मां तो पहले ही मुंह फुलाए रहती थीं, अब तो रोज़ ही ताने देतीं. मनोज का बिज़नेस भी अच्छा नहीं चल रहा था. पैसों की क़िल्लत की वजह से घर में रोज़ चिक-चिक होती.

‘‘बेटियों के लिए ताने सुन कर मैं तिलमिला कर रह जाती तो मनोज कभी-कभी मां की बातों पर एतराज़ करते और कहते,‘मां, बच्चों के लिए ऐसे अपशब्द न निकाला करो, देखना एक दिन ये ही तुम्हारा नाम रौशन करेंगी.’

‘‘पर स्थितियां हमेशा एक-सी नहीं होतीं, दीदी. अचानक बिज़नेस में घाटे और पैसों की क़िल्लत से जूझते मनोज भी धीरे-धीरे उदासीन होते गए. दिन पर दिन पैसे-कौड़ी को लेकर चिंतित रहते और घर में टेंशन रहता, सो अलग. बस, दिन कट रहे थे.
‘‘पर एक दिन औचक ही सब का रवैया बदल गया, घर वालों के हाव-भाव देख कर लगता जैसे कोई जादुई छड़ी मिल गई हो. अचानक ऐसा लगा मानो घर में सभी सहृदय हो गए हों. मुझसे किसी ने कुछ नहीं बताया बस आपस में जाने क्या बातें कीं और जब मैं सामने पड़ी तो सब चुप हो गए. उस दिन जब मनोज ऑफ़िस से लौटते समय गर्म जलेबियां ले आए और ख़ुश होकर बच्चों को दीं तो मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद किया कि चलो अब सबकुछ बदल रहा है.

‘‘अगले दिन मनोज ने बड़ी संजीदगी से अपने बिज़नेस की बहुत बातें मुझसे शेयर कीं और कहा,‘मीना आजकल घर की हालत तो देख रही हो. मैं अकेला क्या-क्या संभालूं? देख ही रही हो कि धंधे में भी मुनाफ़ा नहीं है, दाल-रोटी भी मुश्क़िल से चल रही है. बेटियों के भविष्य के लिए भी कुछ जमा नहीं हो पा रहा है.‘

‘‘मैं तो बस उनकी बात सुन कर चुपचाप मटर छीलती रही .समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या जवाब दूं. मनोज ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा,‘मेरा एक दोस्त है वह कह रहा था कि उसकी पहचान वालों में किसी दंपति को बच्चा चाहिए उसके लिए उन्हें सेरोगेट मदर की तलाश है. मनोज की बातों को सुनकर मेरा माथा ठनका. मैंने फ़ौरन पूछा,‘मैं कुछ समझ ही नहीं? आख़िर आप ये सब बातें मुझसे क्यों कह रहे हैं?‘

‘मीना, मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं तुमसे कैसे कहूं? दरअसल वे लोग बहुत अच्छी रक़म चुकाने को तैयार हैं और इससे हमारे घर की हालत सुधर सकती है यदि तुम हां कह दो तो…’

‘‘मनोज की बात सुनकर मैंने मटर वाली देगची वहीं पटकी और कमरे के भीतर जाकर तकिए में मुंह छुपाकर रोने लगी. मनोज मेरे पीछे-पीछे आए और मेरे पास बैठकर मेरे बालों पर हाथ फेरते हुए बोले तुम से ज़बरदस्ती नहीं करना चाहता मीना, बस एक दफ़ा दिल से सोचना. यदि ठीक लगे तभी हां करना.

‘‘मैं चीख़ी और कहा,‘तुम इस हद तक गिर जाओगे मालूम न था. शर्म आनी चाहिए तुम्हें, ऐसा सोच भी कैसे सकते हो तुम. उठ्ठल्लू समझ रखा है मुझे?’
‘‘मनोज ने कोई जवाब नहीं दिया, बस चुपचाप मेरे ग़ुस्से को पीते रहे.उस रात मुझे नींद नहीं आई दीदी. मन ही मन मैं अपने आप से ही लड़ती रही एक मन कहता दोनों बेटियों के लिए कुछ पैसे जुटा लें दूसरा मन बिलकुल नकारता रहा. बस, इसी ऊहापोह में दो दिन बीत गए.

‘‘तीसरे दिन, जब मनोज ऑफ़िस से लौटे तो उनके साथ एक अपरिचित व्यक्ति था. मुझसे उन्होंने परिचय करवाया,‘मीना इनसे मिलो, ये हैं नवीन मेहता.’
‘‘बातों ही बातों में उस व्यक्ति ने मुझे सेरोगेसी के बारे में बहुत कुछ बताया. बहुत-सी बातों से अवगत कराया, बावजूद इसके मैंने उन्हें साफ़ मना कर दिया. मेरे बार-बार मना करने के बाद भी उन्होंने मुझे डॉक्टर से मिलने की सलाह दी. दूसरे दिन जब मनोज मुझे डॉक्टर से मिलवाने ले गए वहीं एक दंपत्ति भी आए हुए थे. डॉक्टर ने मेरी ख़ूब अच्छी कॉउंसिलिंग की और उस निस्संतान दम्पति से भी मिलवाया.

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‘‘बड़ी मुश्किल से मैं तैयार हुई तब एक एग्रीमेंट तैयार किया गया जिसके अनुसार मुझे डिलिवरी के बाद एक तय रक़म मिलने की बात कही गई .साथ ही इस दौरान मेरे पूरे परिवार का ख़र्च भी उठाने का उसमें ज़िक्र था. दीदी सच बताऊं तो भीतर ही भीतर मुझे कोई अनजान-सा डर खाए जा रहा था और सच पूछिए तो मुझे सिर्फ़ अपनी दोनों बेटियों की ही चिंता थी. कई रातों को मुझे नींद नहीं आई, पर मनोज हमेशा मेरे आसपास रहते और मुझे लगातार समझाते,‘डरो मत मीना हम सब तुम्हारे साथ हैं. सबकुछ अच्छा होगा.‘

‘‘पर सच कहूं तो मुझे अपने प्रति घरवालों का ये प्यार और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, सब ढकोसला लग रहा था. बस एक ही सच सामने था, वह था पैसा. बाक़ी सब व्यर्थ लग रहा था. दीदी, तब मैं कई बार आईने में ख़ुद को निहारती, अपनी कोख पर हाथ फेरती. अजीब ऊहापोह थी, अपनी कोख को किराए पर दूंगी कभी सपने में भी सोचा ना था.

‘‘फिर एक दिन आया जब मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया. तब दोनों बेटियों को सोता छोड़कर जाने में छाती फट रही थी, पर जी कड़ा कर घर से निकली और अस्पताल गई. वहां मेरी घबराहट देखकर सिस्टर ने बड़ा हौसला दिया, देर तक मेरी हथेली को सहलाती रही. फिर सेरोगेसी की प्रक्रिया शुरू हुई. गर्भधारण करने के बाद अपनी मर्ज़ी से कुछ भी करने नहीं दिया जाता था. खाना-पीना, सोना-उठना व्यायाम आदि सब डॉक्टर की देखरेख में हो रहा था. नौ महीने तक ऐसा ही चलता रहा.

‘‘मेरे अंदर पल रहे शिशु और मेरी सेहत के लिए पूरा अस्पताल, समूचा स्टाफ़ अलर्ट रहता. मैं कभी अपनी मर्ज़ी से कुछ खा पी नहीं सकती थी. कभी मुझे अस्पताल में रखा जाता तो कभी वहीं पास के रेस्ट हाउस में, इस दौरान परिवार वालों से भी मिलने की मनाही थी. मैं जब कभी दोनों बेटियों के लिए उदास होती तो सिस्टर मुझे चीयर-अप करती और कहती,‘‘मैन तुमको ख़ुश होना मांगता. ये तुम्हारे लिए भी अच्छा है और बच्चा भी हेल्दी होगा. तब मैं न चाहते हुए भी मुस्कुरा देती. खिड़की से बाहर देखती नीला आसमान कहीं से भी नीला नहीं दिखता गुलाबी रंग धीरे-धीरे सिंदूरी होता हुआ, ठीक मेरे ह्रदय जैसा…

‘‘देखते ही देखते नौ महीने बीत गए और प्रसव के बाद मैंने एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया. हम दोनों पूरी तरह स्वस्थ थे. बच्चे के मां-बाप आए, उन्हें देखते ही एक बार फिर मेरा मन विचलित हो गया था, मेरे हाड़-मांस से बना मेरा बच्चा मुझे उनके हाथों सौंपना पड़ेगा. यह सोच-सोच कर मेरा जी हलकान हुआ जा रहा था. जी चाह रहा था चीखूं, ज़ोर-ज़ोर से रोऊं, पर ऐसा कुछ भी करना मुनासिब न था. मेरे घर लौटने का समय हो गया था. एग्रीमेंट के अनुरूप मुझे बच्चा अस्पताल में ही छोड़कर जाना पड़ा.
‘‘बाहर आई तो मनोज मेरा इंतज़ार कर रहे थे. मुझे देखते ही दौड़कर मेरे पास आए और सहारा देकर मुझे पोर्टिको में खड़ी कैब तक ले जाकर बैठाया. गाड़ी चल पड़ी. मन कचोटता रहा कि अपनी कोख़ में पले बच्चे को न जी भर देख पाई ना ही प्यार कर पाई. रास्तेभर सुबकती रही और मनोज मुझे अपने कंधे से लगा प्यार से सहलाते रहे. मुझे मेरी रक़म मिल गई थी. घर आते ही मैंने दोनों बेटियों को जी भर कर प्यार किया. माताजी भी ख़ुश दिख रही थीं.

‘‘पर ये सब ज़्यादा दिन नहीं टिका दीदी. एक बार फिर मनोज का रवैया पहले जैसा होने लगा. पैसों को लेकर लापरवाही बढ़ती रही. सासू मां भी पुराना राग अलापने लगीं-पोता चाहिए. हद तो तब हो गई जब मनोज नशे से धुत्त घर लौटने लगे और अक्सर अम्मा जी ने उन्हीं का पक्ष लेते हुए कहतीं,‘जाने कौन सा ग़म है मेरे पुत्तर को वरना वह तो कभी शराब पीता ही नहीं.’

‘‘सुनते-सुनते जब कान पक गए. तब एक दिन मैंने चीख़ कर कहा,‘मैंने इतने कष्ट सहे, सिर्फ़ अपने बच्चों के भविष्य के लिए, न कि किसी के गुलछर्रे उड़ाने के लिए. बात मनोज के कानों तक पहुंची तो नशे में लगे गाली-गलौज करने… यहां तक हाथ तक उठाने की नौबत आ गई. पर रोज़-रोज़ की ज़िल्लत के बाद इस बार मैंने सोच लिया कि अब बर्दाश्त नहीं करूंगी. अब मैं मुड़ कर नहीं देखूंगी ऐसी ज़िन्दगी को, ऐसे बेदिल रिश्तों को. मैंने बहुत जगह जॉब के लिए अप्लाई किया है. जहां से भी ऑफ़र मिलेगा जॉइन कर लूंगी…’’ अपनी दास्तां ख़त्म करते-करते मौसी की आंखों में दर्द तो था, लेकिन आंसू बिल्कुल नहीं, जैसे वे अपने निर्णय के प्रति अडिग भी हैं और आश्वस्त भी.

‘‘ओह! मीना इतना कुछ झेला तूने और हमें पता तक नहीं. कभी तो बोलती न बहना, चाचा-चाची से ना सही मुझसे तो कहती. एक बार हमलोग भी तुम्हारे ससुराल वालों से बात करके तो देखते.’’

‘‘नहीं दीदी, मुझे किसी की सहानुभूति नहीं चाहिए, बल्कि आत्मविश्वास चाहिए, ताकि मैं पूरे आत्मसम्मान से जी सकूं और अपनी दोनों बेटियों को भी लायक़ बना सकूं. वरना इन लोगों ने तो हमें देहरी पर रखा पांवपोंछ बनाने में कोई कसर ही नहीं छोड़ी. मैंने तो हर संभव कोशिश की कि संबंध बना रहे पर ताली एक हाथ से कब बजी है? और हां, नौकरी लग जाए तभी मां-पिताजी को बताऊंगी, वरना वे बेवजह परेशान हो जाएंगे.’’

‘‘मीना मौसी आपके इस साहसिक क़दम में हम सब आपके साथ हैं, चलिए थोड़ा आराम कर लें फिर मेल चेक करते हैं कि कोई इंटरव्यू का कॉल आया कि नहीं. यदि नहीं भी आया तो और भी कई रास्ते हैं. अब आपने ठान ही लिया है तो रास्ते के रोड़े, पत्थरों से क्या डरना?’’ नीलिमा बोली.

मीना और नीलिमा दोनों मुस्कुराती हुई अपने कमरे की ओर बढ़ गईं.


फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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