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ज़रा हट के ज़रा बच के: अच्छी फ़िल्म का बुरा अंत

ज़रा हट के ज़रा बच के: अच्छी फ़िल्म का बुरा अंत

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
June 19, 2023
in ओए एंटरटेन्मेंट, ज़रूर पढ़ें, रिव्यूज़
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ज़रा हट के ज़रा बच के: अच्छी फ़िल्म का बुरा अंत
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फ़िल्म की कहानी और स्क्रीन प्ले लिखते समय इस बात का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी होता है कि फ़िल्म का अंत फ़िल्म के मूल भाव से मेल खाए. ज़रूरी नहीं कि वह अंत सभी को सुखांत ही लगे, मगर कहानी के साथ न्याय करने वाला होना अंत बहुत ज़रूरी होता है. भारती पंडित का कहना है कि ज़रा हट के ज़रा बच के एक अच्छी फ़िल्म हो सकती थी, मगर बेहद आदर्शवादी अवास्तविक से अंत ने काम बिगाड़ दिया.

फ़िल्म: ज़रा हट के ज़रा बच के
निर्देशक: लक्ष्मण उतेकर
कलाकार: विक्की कौशल, सारा अली ख़ान व अन्य
रन टाइम: 132 मिनट

हमारे भारतीय समाज में पारंपरिक घरों में रिश्तों में स्पेस की कोई अवधारणा नहीं है. शादी को जीवन का अनिवार्य हिस्सा तो माना जाता है, मगर शादी निभानी कैसे है, न तो इस पर कोई बात होती है, न ही शादी निभाने के लिए घर में अनुकूल परिस्थितियां बनाने पर कोई विचार किया जाता है. नए जोड़े को एक-दूसरे से घुलने-मिलने के लिए समय और एकांत दोनों की ही आवश्यकता होती है, लेकिन अधिकतर घरों में विशेषतः संयुक्त परिवार वाले घरों में इस ज़रूरत पर कभी भी ध्यान नहीं दिया जाता.

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ऐसा ही एक परिवार है दुबे जी का, जिन्हें पंडित जी कहा जाता है. उनका बेटा है कपिल दुबे, जिसने एक पंजाबी लड़की सौम्या चावला से प्रेम विवाह किया है. छोटे से घर में कपिल के मामा-मामी भी आ बसते हैं, जिसके चलते इस नए जोड़े का शयन कक्ष उन्हें दे दिया गया है और यह जोड़ा अपने ही घर में मेहमान जैसा रहने पर यानी ड्रॉइंग रूम में सोने पर मजबूर है. मामीजी बेहद क्लेशी हैं, जो सौम्य से उलझती रहती हैं.

जीवन में अचानक आई इस हलचल के चलते यह जोड़ा अपना घर ख़रीदने की जद्दोजहद में पड़ता है. घरों की क़ीमत उनकी हैसियत से कहीं ज़्यादा है, ऐसे में कपिल का वकील मित्र उन्हें सरकारी योजना में मिलने वाले घर के लिए आवेदन देने के लिए कहता है, मगर उस योजना के लिए आवेदन करना केवल ग़रीब परिवारों या तलाक़शुदा महिलाओं के लिए ही संभव है. सरकारी दफ़्तर का एक दलाल भी उन्हें बरगलाता है और घर पाने की तीव्र इच्छा के चलते कपिल और सौम्या अपने झूठे तलाक़ की योजना रचते हैं. यहां तक कहानी बेहतरी से चलती है, चुटीले संवाद और मज़ाकिया परिस्थितियां आपको हंसने और बंधे रहने पर मजबूर कर देती हैं.

कहानी में सौम्या की कॉलोनी के एक गार्ड की अचानक आमद होती है, जो खुले आसमान के नीचे छत पर खपरैल डालकर रहता है, यह आमद अजीब सी लगती है, बाद में समझ में आता है कि कहानी को ऐसा अंत देने के लिए उस चरित्र को रचा गया है.

इस जोड़े का तलाक़ होता है, दलाल पैसा खाकर भाग जाता है. इनके रिश्ते में ग़लतफ़हमी पैदा हो जाती है और अचानक सौम्या के नाम से घर का आबंटन हो जाता है. इसके बाद कहानी अजीब सी नाटकीयता धारण कर लेती है और यही इसका कमज़ोर पक्ष है. किसी जोड़े का घर छोड़ना या अलग घर बसाना हमारे यहां ठीक नहीं माना जाता भले ही साथ रहकर रोज़ जूतम-पैजार ही क्यों न हो रही हो. एक फ़िल्म मुझे याद आती है संसार जिसमें रेखा और राज बब्बर थे, उसमें इस तथ्य को स्थापित करने की कोशिश की गई थी कि साथ रहकर रोज़ लड़ने से बेहतर है दूर रहकर प्रेम बनाए रखा जाए, पर वह फ़िल्म भारतीय दर्शकों ने नकार दी थी.

इसी तरह मामीजी की दुष्टता और क्लेशी स्वभाव को भी उनकी बीमारी का रूप देते हुए सही सिद्ध करने की कोशिश की गई है. हम यह क्यों नहीं स्वीकार करते कि किसी घर में कुछ लोग दुष्ट स्वभाव के हो सकते हैं और उनका काम केवल दूसरों को चोट पहुंचाकर अपने अहं को तुष्ट करना ही होता है, जिसे बीमारी की आड़ में सही नहीं ठहराया जाना चाहिए. बड़े हमेशा सही होते हैं, इस धारणा में मुझे बड़ी समस्या दिखाई देती है. बड़े कभी-कभी अपने अहं की तुष्टि के लिए छोटों के जीवन से खिलवाड़ भी कर बैठते है, ख़ैर…

फ़िल्म का अंत और भी अवास्तविक है कि मामीजी की बीमारी और मामाजी के उनके प्रति प्रेम के चलते कपिल और सौम्या का मन बदल जाता है, अब उन्हें उसी घर में रहना है और इसके चलते वे सौम्या के नाम से आबंटित घर गार्ड को दे देते हैं. सोचने में यह बढ़िया भले ही लगता हो पर सोचिए कि वह ग़गरीब गार्ड 24 लाख के उस फ़्लैट की किश्त कैसे भरेगा? उसे कहा जाता है कि सरल किश्तें हैं, आराम से भर लोगे मानो सरकारी योजना का विज्ञापन हो रहा हो. क्या एक नाम से आबंटित घर अपनी मर्ज़ी से किसी और को आबंटित किया जा सकता है? शायद नहीं… और फिर जिस घर के लिए इतनी मशक़्क़त हुई, चार लाख रुपए दिए गए हों, उसे कोई मध्यमवर्गीय जोड़ा ऐसे किसी को दे दे, गले के नीचे नहीं उतरता.

बहरहाल एक अच्छी फ़िल्म को आदर्श स्थापित किए रखने के चक्कर में कैसे ख़राब किया जाता है, यह फ़िल्म इसका उदाहरण है. हां, अभिनय सभी का जोरदार है. विकी कौशल और सारा अली ख़ान बहुत बढ़िया लगे हैं. दोनों की कॉमेडी की टाइमिंग और आपसी तालमेल दोनों ही बढ़िया है. संवाद भी मज़ेदार हैं, मध्यांतर से पहले फ़िल्म गुदगुदाती रहती है.
गीत बहुत बढ़िया बन पड़े हैं. तू है तो मुझे और क्या चाहिए हिट हो चुका है. तेरे वास्ते फलक से मैं चांद लाऊगा और जो भी था तेरे मेरा साझा गीत भी मधुर है. शब्द भी और धुन भी. इसके लिए सचिन जिगर को बधाई.

शूटिंग इंदौर की है, कुछ शॉट्स अच्छे हैं मगर कैमरा इतनी तेज़ गति से घुमाया गया है कि कोई ठहराव समझ में नहीं आता. दृश्य संयोजन और कहानी पर निर्देशक लक्ष्मण उतेकर को और मेहनत करनी थी, थोड़ी कसर रह गई है. बहरहाल, कुछ मज़ेदार दृश्यों और घटनाओं के लिए यह फ़िल्म देखिए एक बार और यदि आप कोरे आदर्शवादी हैं तब तो यह फ़िल्म आपके ही लिए है.

फ़ोटो: गूगल

Tags: reviewSara Ali Khanvicky kaushalzara hut ke zara bach keज़रा हट के ज़रा बच केरिव्यूविक्की कौशलसारा अली ख़ान
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