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वेश्या: एक तवायफ़ की बेटी की कहानी (लेखक: आचार्य चतुरसेन)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
October 3, 2021
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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वेश्या: एक तवायफ़ की बेटी की कहानी (लेखक: आचार्य चतुरसेन)
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एक तवायफ़ की बेटी गुलबदन के गुलाबबाई और फिर वेश्या गुलबदन बनने की कहानी. पहले एक राजा ने उसकी ज़िंदगी बदल दी, फिर गुलबदन ने अपने फ़ैसलों से कई ज़िंदगियां बदल दीं. कितनी ग़लती परिस्थितियों की थी और कितना दोष गुलबदन का? यह फ़ैसला आपके हाथ में है.

शिमला-शैल की बहार जिसने आंखों से नहीं देखी उससे हम अब क्या कहें? बीसवीं शताब्दी का यन्त्रबद्ध भौतिक बल प्रतापी यूरोप के श्वेत दर्प के सम्मुख आज्ञाकारी कुत्ते की तरह दुम हिलाता है. फिर शिमला-शैल पृथ्वी के एकमात्र अवशिष्ट साम्राज्य की नखरेदार राजधानी है, जहां बैठकर दूध के समान सफ़ेद और रमणी के समान चिकने सफाचट मुखवाले-परन्तु बहादुर साहब लोग-तुषार और शीतल वायु के झोंकों का अखण्ड आनन्द लेते हुए, लूओं में झुलसते हुए अस्थि-चविशिष्ट भारत के तैंतीस करोड़ मनुष्यों पर हुक़्म चलाते हैं. जिनकी असली तलवार गहना, और कलम है, वे जो न करें सो थोड़ा. ग्रीष्म की प्रचण्ड धूप में घोड़े की पीठ पर लोहा लेनेवाले भारत के नृपतियों के वंशधर भी गोरी मिसों के हाथ की चाय पीने का लोभ संवरण न कर, अपनी निरीह अधम प्रजा को लूओं में झुलसते छोड़, ग्रीष्म में शिमला-शैल पर जा पहुंचते हैं. वही शिमला-शैल अपनी मनोरम घाटियों, हरी-भरी पर्वत-शृंखलाओं के पीछे सुदूर आकाश में हिमालय के श्वेत हिमपूर्ण शिखरों को जब सुनहरी धूप में दिखाता है, तब नैसर्गिक शोभा का क्या कहना है? फिर प्रकाण्ड धवल अट्टालिकाएं-जहां तडिद्दामिनी सुन्दरी अधम दासी की तरह सेवा करती हैं-जब सुरा और सुन्दरियों से परिपूर्ण हैं, तब इस प्रतापी ब्रिटिश-छत्रछाया में अभयदान प्राप्त महाराजाधिराजों और राजराजेश्वरों को अब और क्या चाहिए? दिन-रात सुरा-सुन्दरी और प्रभु-पद-वन्दन में उनकी ग्रीष्म इस तरह बीत जाती है, जैसे किसी नवदम्पति की सुहागरात. अजी, एक बार बिजली की असंख्य दीप-मालाओं से आलोकित उन प्रासादों में इन नरपुंगवों को लेवेण्डर से सराबोर वस्त्रोंवाली अधनंगी मिसों के साथ कमर में हाथ डाले थिरक-थिरककर नाचते तो देखिए? और उसके बाद झुक-झुककर उनके सामने जिमनास्टिक की जैसी कसरत करते और विनयाञ्जलि भेंट करते और बदले में करपल्लव का चुम्बनाधिकार, और सहारा देकर उठाने की सेवा का भार, इससे अधिक प्रारब्धानुसार. बस, अब कुछ न कहेंगे.
सन् 1908 का सुन्दर प्रभात था. मई मास समाप्त हो रहा था. भारतवर्ष ज्वलन्त उत्ताप से भट्ठी बन रहा था, पर शिमला-शैल पर वह प्रभात सुन्दर शरद के प्रभात की भांति निकल रहा था. एक दस वर्ष की बालिका एक तितली को पकड़ने के प्रयत्न में घास पर दौड़-धूप कर रही थी. उसके शरीर पर ज़री के काम की सलवार, एक ढीला रेशमी पंजाबी कुरता और मस्तक पर अतलस का दुपट्टा था, जो अस्त-व्यस्त हो रहा था. बालिका सुन्दरी तो थी, पर कोई अलौकिक प्रभा उसमें न थी. परन्तु उसके ओष्ठ और नेत्रों में अवश्य एक अद्भुत चमत्कार था. सुन्दर, स्वस्थ और सुखद जीवन ने जो मस्ती उसके इस बाल-शरीर में भर दी थी, उसे यौवन के निकट भविष्य-आक्रमण के पूर्व रूप ने कुछ और ही रंग दे रखा था. वह मानो कभी आपे में न रहती थी, वह सदा बिखरी रहती थी. उल्लास, हास्य, विनोद और मस्ती, यही उसका जीवन था. हम पहले ही कह चुके हैं कि इस बालिका के सारे अंगों में यदि कोई अंग अपूर्व था तो होंठ और आंखें थीं. हम कह सकते हैं कि मानो उसके प्राण सदैव इन दोनों अंगों में बसे रहते थे. वह देखती क्या थी खाती थी. बहुत कम उसकी दृष्टि स्थिर होती थी. पर क्षण-भर भी यदि वह किसीको देखती तो कुछ बोलने से प्रथम एक-दो बार उसके होंठ फड़कते थे-ओफ! कौन कह सकता है कि उन होंठों के फड़कते ही उन नेत्रों से जो धारा निकलती थी, उसमें कितना मद हो सकता था. पृथ्वी पर कौन ऐसा जन्तु होगा कि जो उन नेत्रों के अधीन न हो जाए और उन होंठों की फड़कन के गम्भीर गर्त में छिपे निनाद को अर्थसहित समझने का अभिलाषी न हो.
इन दोनों वस्तुओं के बाद और एक तीसरी वस्तु थी, जो इन दो वस्तुओं के बाद ही दीख पड़ती थी. वह थी वह धवल दन्त-पंक्ति, वह दन्त-पंक्ति, जो बड़ी कठिनाई से कदाचित् ही ठीक-ठीक प्रकट दीख पड़ती हो. उज्ज्वल, सुडौल श्वेत रेखा की, उन फड़कते होंठों के बीच से अकस्मात् प्रस्फुटित होने की, कल्पना तो कीजिए.
परन्तु एक दस वर्ष की बालिका का ऐसा नख-शिख वर्णन! पाठक हमारी इस अपवित्र धृष्टता को क्षमा करें. अच्छा, अब हम मन को विचलित न होने देंगे. अस्तु. बालिका अपने जन्मसिद्ध गर्व और मस्तानी अदा को विस्मृत-सी करती हुई तितली के पीछे फिर रही थी. निकट ही एक भद्रपुरुष बेंच पर बैठे उसे एक-टक देख रहे हैं, इसका उसे कुछ ध्यान न था. बालिका के निकट पहुंचने पर भद्र-पुरुष उठ बैठे. उन्होंने किंचित् हंसकर मधुर स्वर से कहा-ग़रीब जानवर को क्यों दुख देती हो; उसने तुम्हारा कुछ चुराया है क्या?–बालिका ने क्षण-भर स्तब्ध खड़ी होकर भद्र पुरुष को देखा-ओफ! उन्हीं नेत्रों से, दो बार होंठ फड़के और उसके बाद बिजली की रेखा के समान दन्त-पंक्ति प्रकट हुई. बालिका ने बिना हिचकिचाए कहा-कैसी ख़ूबसूरत है-आप ज़रा पकड़ देंगे?
‘सिर्फ इसलिए कि ख़ूबसूरत है?’
बालिका समझी नहीं, पर उसने गर्दन हिला दी. भद्र पुरुष आगे बढ़कर एक-दम बालिका के निकट आ गए. एक प्रबल आन्दोलन उनके हृदय में पालोड़ित हो उठा. एक अस्वाभाविक उन्माद में वे कह उठे:
‘तुम ख़ुद कितनी ख़ूबसूरत हो? तुम्हें कोई इसीलिए पकड़ ले तब?’ बालिका ने भद्र पुरुष को निकट आते और उपर्युक्त शब्द कहते सुन, एक बार फिर उसी तरह उनकी तरफ़ देखा-उसी तरह उसके होंठ फड़के. पर वह बोली नहीं. उनने वहां से भागने का आयोजन किया. भद्र पुरुष हंस पड़े. उन्होंने उसके दोनों हाथ पकड़कर कहा-लो, पकड़ी गई तो भागती हो?
सामने से आवाज़ आई-गुलबदन!
‘छोड़िए, अम्मी बुलाती है.’ बालिका ने किंचित् झुंझलाकर कहा.
‘मगर तुम्हारा नाम?’
‘मैं नहीं बताने की.’
‘तुम्हारी अम्मी का क्या नाम है?’
‘मैं नहीं बताती, छोड़िए.’ बालिका ने खींचकर हाथ छुड़ा लिया. वह भाग गई.
भद्र पुरुष ने क्षण-भर बालिका की ओर देखा-तितली की तरह उड़ी जा रही थी. सामने कुछ दूर पर उसकी मां और दो-तीन व्यक्ति खड़े थे. भद्र पुरुष ने निकट खड़े एक व्यक्ति से कहा,‘अहमद?’
‘हुजूर!’
‘इसे लायो.’
‘जो हुक़्म.’
‘मैं घूमता हुआ चला जाऊंगा. तुम गाड़ी ले जाओ.’
‘जो हुक़्म!’
‘दस हज़ार?’
‘जी हां सरकार! वह लाहौर की मशहूर तवायफ़ मुमताज़ बेग़म की लड़की है. बुढ़िया बड़ी धाख निकली. उसने हुजूर को देख और पहचान लिया था. बस पैर फैला गई. बड़ी मुश्क़िल से सौदा पटा है.’
‘वे लोग यहां कब आ जाएंगे?’
‘कल दस बजे.’
‘गाड़ी ग्यारह बजे चलेगी. सिवा दोनों मां-बेटियों के उनका तीसरा कोई आदमी साथ न रहने पाएगा. इसकी हिदायत कर दी है न?’
‘जी हां हुजूर, ऐसा ही होगा.’
‘और एक बात, छोटी रानी को इस वारदात की ख़बर न होने पाए?’
‘बहुत अच्छा सरकार.’
‘एक रिज़र्व कम्पार्टमेण्ट उनके लिए गाड़ी में लगा रहेगा. मगर मैं आज रात को होटल में उन लोगों से मुलाकत करूंगा. खाना भी उन्हीं के साथ खाऊंगा. एक रिज़र्व कमरे और स्पेशल खाने का बन्दोबस्त भी कर लो-तुम ख़ुद ही चले जाओ-फ़ोन में मत कहो, जिससे कानों-कान किसी को ख़बर न हो. ठीक नौ बजे, समझे?’
‘जी हुजूर!’
‘और सुनो, आज ग्यारह बजे रात को मिस फ़ास्टर उसी जगह आएगी न?’
‘ज़रूर!’
‘तब होटल से लौटकर उधर चलना होगा. अब तुम जा सकते हो.’
ये भद्र पुरुष थे कौन? पाठकों को सब कुछ नहीं बताया जा सकता. वे एक विस्तृत राज्य के सुजन अधिपति, श्रीमन्त महाराजाधिराज राजराजेश्वर श्री….थे. आप सीधे यूरोप की यात्रा से आ रहे थे और आपको राज्याधिकार प्राप्त हुए कुछ ही मास हुए थे. आपकी अवस्था इक्कीस के लगभग थी. आपकी वेष-भूषा यद्यपि साधारण थी, परन्तु राजत्व का गाम्भीर्य मुख-मुद्रा में था. वह बालिका उसे क्या लक्ष्य कर सकती थी?
रॉयल होटल के सर्वश्रेष्ठ कमरे में ज्वलन्त बिजली के प्रकाश में सुन्दर रंगीन कांच और चीनी के पात्रों में अंगरेज़ी ढंग के खाने चुने जा रहे हैं-होटल के सिद्धहस्त कर्मचारी और बैरा ज़र्क-वर्क पोशाक पहने एक यूरोपियन व्यक्ति की देखरेख में सब कुछ सजा रहे हैं. श्रीमन्त महाराजाधिराज के पधारने का समय हो गया है. ठीक समय पर महाराज केवल एक पार्श्वद के साथ पधारे. कर्मचारी ने नतमस्तक होकर महाराज का अभिवादन किया. महाराज ने किंचित् हास्यवदन से इधर-उधर देखा और कर्मचारियों को धन्यवाद दिया. क्षण-भर बाद पूर्व व्यक्ति ने संकेत से गुलबदन और उसकी माता के आगमन की सूचना दी. सब लोग बाहर चले गए. बालिका अस्वाभाविक गाम्भीर्य की मूर्ति बनी उस लोकोत्तर उज्ज्वल कक्ष में प्रातःकाल के परिचित भद्र पुरुष को सम्मुख देखकर देखती रह गई. वृद्धा ने झुककर सलाम किया और बालिका से ज़रा भर्त्सना से कहा बेअदब! महाराज को सलाम कर.
बालिका ने ज़रा आगे बढ़कर सलाम किया. महाराज ने उठकर उसे एक कुर्सी पर बैठाया और वृद्धा को भी बैठने का आदेश किया. सबके बैठने पर महाराज ने पूर्ववत् बालिका का हाथ पकड़कर वैसे ही हास्य-मुख से कहा-ख़ूबसूरत तितली पकड़ी गई न!
बालिका ने नेत्रों से वही धारा छोड़ी. उसके होंठ फड़के, वह बोल न सकी, मां की ओर देखने लगी.
वृद्धा ने कहा,‘महाराज! सुबह अगर इसने कुछ गुस्ताखी की हो तो हुजूर माफ़ फ़र्माएं; लड़की बिलकुल बेअदब तो नहीं, मगर बच्ची ही तो है.’
‘कुछ नहीं, मगर इसने मुझे पागल बना दिया. मगर सच तो कहो, तुम दिल में नाराज़ तो नहीं? यह इन्तज़ाम तुम्हें दिल से तो पसन्द है?’
‘यह इसकी और मेरी ख़ुशकिस्मती है महाराज! आप यह क्या फ़र्मा रहे हैं? कहां यह कनीज़ और कहां हुजूर?’
महाराज बीच ही में बोल पड़े. उन्होंने कहा,‘मगर मुझे कुछ ख़ास इन्तज़ाम करना पड़ेगा, और तुम्हें उसमें मदद करनी पड़ेगी. तुम तो जानती ही हो, यह काम बहुत पोशीदा रहेगा. ख़ासकर यह मैं बिलकुल नहीं ज़ाहिर करना चाहता कि यह तवायफ़ है और मुसलमान है. मैं उसे हर तरह की ऊंची तालीम दूंगा, और उसका रुतबा महारानी के बराबर होगा. अभी पांच साल उसे तालीम पाने का वक़्त है. तुम्हें तब तक वहीं उसके साथ रहना पड़ेगा. शहर के बाहर एक पारास्ता कोठी में तुम लोगों के ठहरने का बन्दोबस्त कर दिया जाएगा. वहां तुम्हें जहां तक मुमक़िन होगा, कोई तक़लीफ़ न होगी. अब कहो, इसमें तुम्हें कुछ उज्र है?’
‘मुतलक नहीं हुजूर, मगर मेरा वहां रहना कैसे मुमक़िन हो सकता है, सरकार को शायद पता नहीं, मेरा निजी ख़र्च दो हज़ार रुपये माहवार है.’
‘वह तुम्हें मिलेगा.’
‘तब हुजूर के हुक़्म को कैसे टाला जा सकता है.’
‘तुम लोगों को हिन्दू-लिबास में रहना पड़ेगा, और क्या-क्या, कैसे-कैसे किया जाएगा, यह हिदायत कर दी जाएगी. उम्मीद है, समझदारी और होशियारी से काम लोगी. सिर्फ़ तुम दोनों मां-बेटियां चलोगी. तुम्हारा अपना एक भी नौकर न जाने पाएगा, समझी?’
‘जो इर्शाद हुजूर!’
‘तब बातचीत ख़त्म हुई. अब बेतकल्लुफी से खाना खानो-पीओ, मगर एक बात-इससे भी इसका क्या नाम है?’
‘गुलबदन!’
‘इधर तो आयो प्यारी गुलबदन!’ इतना कहकर उन्होंने बालिका का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींच लिया. फिर वही दृष्टि और वही उत्फुल्ल होंठों की फड़कन! महाराज ने अधीर होकर बालिका का प्रगाढ़ चुम्बन ले लिया. बालिका छटपटाकर महाराज के कर-पाश से भागी. वृद्धा ने घटना देखी-अनदेखी करके खाने का आयोजन किया.
बालिका ने कहा,‘अम्मी चलो!’
‘ठहरो बेटी, महाराज की दावत में हम लोग आए हैं. फिर बिना खाए कैसे जा सकते हैं. बैठो और महाराज से हुक़्म लेकर खाना खायो.’
बालिका चुपचाप बैठ गई. उसने महाराज की ओर झांककर भी न देखा.
खाना ख़त्म होने पर तत्काल मां-बेटी उठ खड़ी हुईं. माता के आदेश से भयभीत-सी होकर गुलबदन ने सलाम किया और चल दी. इसी समय नौकर ने महाराज के कान में कहा-महाराज, मिस फ़ास्टर ड्राइंग रूम में सरकार की प्रतीक्षा कर रही हैं.
महाराज उन्मत्त की भांति उधर लपके.

श्रावण की नन्हीं फुहारों से भरी हुई ठण्डी हवा के झकोरे, ग्रीष्म की ज्वलन्त ऊष्मा सहने के बाद कैसे प्रिय प्रतीत होते हैं, मन कैसा मत्त मयूर-सा नाचने लगता है, यह कैसे कहा जाए? नन्हीं फुहारों के साथ हवा के झोंके भीतर घुस रहे थे. बालिका एक मसनद के सहारे बढ़िया विलायती कालीन पर जरदोज़ी के काम की बहुत महीन और बहुमूल्य साड़ी पहने स्थिर बैठी थी. उसकी वह बाल-सुलभ चंचलता, जो मनुष्य का मन अपनी ओर हठात् खींच लेती थी, इस समय उसमें न थी. उसके सम्मुख एक वृद्ध पुरुष अपनी सफ़ेद दाढ़ी को बीच में से चीरकर कानों पर चढ़ाए, बड़ा-सा सफ़ेद साफा बांधे दुजानू बैठे थे. उनके हाथ में तम्बूरा था. वे एमन कल्याण के स्वरों को अपने कम्पित वृद्ध कण्ठ से निकाल, उंगली के आघात से तन्तुवाद्य पर घोषित कर रहे थे. तत्क्षण ही बालिका को उनका अनुकरण करना था. वह उसके मस्तिष्क पर भारी भार था. बालिका उन सुन्दर सुखद झोंकों से ज़रा भी विचलित न होकर वृद्ध के मुख से निकलते और तम्बूरे के तारों से टकराते स्वरों को मनोयोग से सुन रही थी. वृद्ध ने तारों के पास कान झुकाकर कहा,‘बोलो तो बेटी! तुम्हारा गला तो बहुत साफ़ है. देखो मध्यम दोनों लगेंगे; समझीं, यह एमन के स्वर हैं.’
बालिका का भीत-कम्पित स्वर, उसकी माधुरी मूर्ति और कोमल कण्ठ उस अस्तंगत सूर्य की बरसाती प्रभा में मिलकर गज़ब कर गया. वृद्ध पुरुष तम्बूरे पर झुककर मूर्छना के साथ ही वाह! कर गए.
उसी कक्ष में एक गद्देदार आरामकुर्सी पर श्रीमन्त महाराजाधिराज एक खिड़की से आती उन्मुक्त वायु का पूरा स्वाद ले रहे थे. बढ़िया फ्रांस की बनी सुगन्धित सिगरेट को एक ओर फेंक वे उठकर बालिका को घूरने लगे. बालिका ने उस ओर देखा. बीच ही में उसका तार टूट गया. वह चुप हो गई. महाराज ने आकर उसके दोनों हाथ पकड़कर उठा लिया. उन्होंने कहा,‘उस्ताद जी, बस अब आज और नहीं. आप जाइए.’ वृद्ध पुरुष झटपट उठकर अभिवादन करके चल दिए. उन्हें इस कठिन अवस्था में भी बालिका ने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया. महाराज ने बालिका को दोनों हाथों में उठाकर कहा,‘गुलबदन! तुम कब? ओफ! कब-कब! कब?’ उन्होंने उसके उसी उत्फुल्ल होंठ को चूम लिया और कसकर छाती से लगा लिया. बालिका मानो मूर्छित हो गई. वह शिथिलगात्र, निस्पन्द गति से उनके अंक से खिसकने लगी. महाराज ने उसे कौच पर लिटा दिया. बालिका धीरे से उठकर अपने वस्त्र संभालने लगी.
महाराज ने कहा,‘गुलबदन! तुम कितने दिनों में बड़ी हो जाओगी?’ गुलबदन महाराज का मतलब न समझकर नीची नज़र किए खड़ी रही. महाराज ने कहा,‘कैसी ठण्डी हवा चल रही है! तुम्हें अच्छा लगता है?’
बालिका ने स्वच्छ आंखें ऊपर को उठाकर कहा,‘जी हां.’
तुम्हें मालूम है, तुम्हारा नाम क्या रखा गया है?’
‘जी हां!’
‘क्या भला?’
‘गुलाबबाई’ बालिका के मुख पर हास्य-रेखा दौड़ गई और एक बार बालिका का मुख चुम्बन करके महाराज ने उसे दूसरे कमरे में भेज दिया.

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उन्मत्त यौवन धीरे-धीरे आया और एकदम आक्रान्त कर गया. पीले रंग पर लाली और चमक, गुलाबी प्रभा पर मानिक की चमक एक अभूतपूर्व रंग दिखा रही थी. किसी पर दृष्टि पड़ते ही कुछ क्षण निनिमेष देखना और फिर उत्फुल्ल होंठों का फड़कना, यह बाल्यकाल का स्वभाव इस गदराए हुए यौवन पर बिजली गिरा रहा था. महाराजाधिराज की आंखों में गुलाब, नस-नस में गुलाब, जीवन और मृत्यु में गुलाब थी. गुलाब को विलास और ठाट-बाट के जो सुख प्राप्त थे, वे पाश्चात्य जीवन के विलासी के लिए कल्पना की वस्तु नहीं. वह महाराज के नौ राजप्रासादों में से किसी को किसी समय अपनी इच्छानुसार, जिस प्रकार चाहे इस्तेमाल कर सकती थी. सैकड़ों दास-दासियां उसकी आज्ञा, वह चाहे जैसी हो, पालन करने और उसके सुख-रक्षार्थ उसकी सेवा में रहती थीं. जो कुछ वह चाहती थी, परिणाम और धन-व्यय का विचार बिना किए तत्काल प्रबन्ध किया जाता था. उसके चित्रमयी वस्त्र, विशेष करके रेशम और मखमल के अचिन्त्य रूप से अमूल्य और बढ़िया होते थे और वह कश्मीर तथा बनारस में विशेष रूप से तैयार किए जाते थे. उसका जेवर कई लाख रुपयों की कीमत का था. कुछ तो उसके लिए पेरिस से मंगाए गए थे. एक उपयुक्त तथा सुखभोगमयी राल्स रॉयस मोटरगाड़ी सदैव उसकी सेवा में रहती थी, जिसपर वह सन्ध्या और प्रातःकाल की सैर करने बाहर निकलती थी. उसकी दूर की यात्रा के लिए महाराज की स्पेशल ट्रेन में उसके लिए सदैव एक कमरा रिज़र्व किया जाता था. ऐसे दुर्लभ राज-सुख उस बालिका को उसके यौवन के प्रारम्भ में नसीब हुए-केवल उस दृष्टि और उन फड़कते होंठों के बदले.

दस वर्ष व्यतीत हो गए. दिल्ली स्टेशन पर ख़ूब धूम थी. किसी राजा की स्पेशल ट्रेन आ रही है. अंग्रेज अफ़सर और कुली प्रत्येक के मुख पर यही एक बात थी. प्लैटफ़ॉर्म सज रहा था और नगर के कुछ ख़ास गण्यमान्य व्यक्ति महाराज की स्पेशल ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे. स्पेशल ट्रेन आई. ख़ास कमरे पर खस के पर्दे पड़े थे और उनपर पानी ऊपर से टपक रहा था. बिजली के पंखे की सरसराहट बाहर से सुनाई पड़ती थी.
गाड़ी खड़ी होने के कुछ क्षण बाद एक उच्च पदस्थ कर्मचारी ने प्लैटफ़ॉर्म पर समुपस्थित पुरुषों की अभ्यर्थना करते हुए कहा,‘श्रीमती महारानी महोदया आप सब सज्जनों की सेवा में अपना हार्दिक धन्यवाद देती हैं. श्रीमन्त महाराजाधिराज कल दूसरी गाड़ी से पधारेंगे. कारण-विशेष से वे इस समय न पधार सके.’
दो-एक सम्भ्रान्त पुरुषों ने महाराज के स्थान पर महारानी को ही अपना सम्मान प्रदान करने के लिए शिष्टाचार के दो-चार शब्द कहे.
हठात् सैलून का द्वार खुला और महारानी स्वयं उतरकर प्लैटफ़ॉर्म पर आ खड़ी हो गईं. सम्भ्रान्त आगतजन इधर-उधर हट गए. महारानी बारीक़ धानी परिधान पहने थीं. बहुमूल्य हीरे के आभूषण उनके शरीर पर दमक रहे थे. कर्मचारी और दीवान अवाक् रह गए. महारानी ने किसी की ओर लक्ष्य न देकर अपने ख़ास खिदमतगार को हुक़्म दिया कि वह उनका ख़ास सामान गाड़ी से उतार ले. उनकी इस आज्ञा पर सभी चकित थे. हठात् एक व्यक्ति भीड़ से निकलकर महारानी के निकट आ खड़ा हुआ. महारानी ने आश्वस्त होकर कहा,‘ज़मीर! मैंने समझा, तुम्हें मेरा तार नहीं मिला! अच्छा, सब ठीक है?’
‘जी हुजूर, मेल जाने में अभी पौन घण्टा है, फ़र्स्ट क्लास का डिब्बा रिज़र्व है. हुजूर के साथ और कितने आदमी हैं?’
‘सिर्फ़ एक खिदमतगार!’ इसके बाद महारानी ने कर्मचारी से कहा-मुझे ज़रूरी काम से अभी बम्बई जाना है, आप लोग महाराज से अर्ज़ कर दें.
‘मगर हुजूर! महाराज की तो आज्ञा नहीं है.’
‘मैं महाराज की गुलाम नहीं हूं!’
‘किन्तु महारानी…!’
‘मैं जो कहती हूं, वह करो! ज़मीर, मेरा सामान डिब्बे में ले जाओ.’
आगन्तुक स्वागतार्थी सम्भ्रान्त पुरुषों को भीत-चकित करती हुई महारानी गुलाबबाई उर्फ़ गुलबदन बेग़म भीड़ को चीरती हुई सामने खड़ी मेल-ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेण्ट के रिज़र्व डिब्बे में बैठ गईं.

कुबेर-नगरी बम्बई में बीसवीं शताब्दी के समस्त वैभव पूर्ण विस्फारित हैं. सम्पदा और ऐश्वर्य का यह जीवन सम्पदा और ऐश्वर्य के उस जीवन से भिन्न है, जो रईसों और राजाओं को प्राप्त है. राजा-रईस ख़ाली जेब रहने पर भी जो शान-ठाट और रईसी चोंचले करते हैं, वे इस कुबेर-नगरी में भरी जेबों से भी सम्भव नहीं. परन्तु धन जहां है, वहां विलासिता है ही, मुंह फाड़कर धन किसने खाया है? धन का यथार्थ मार्ग तो मूत्र-मार्ग है. धन ने जहां यह मार्ग देखा, फिर वह कहां रह सकेगा?
एक सजी हुई अट्टालिका में एक सुन्दर, किन्तु ज़रा भारी शरीर का युवक कौच पर पड़ा प्यासी आंखों से सामने हारमोनियम पर उंगली फेरती हुई सुन्दरी के मुख और उभरे हुए अधढके शरीर को देख रहा है. शराब का प्याला और सुगन्धित शराब का पात्र उसके निकट है. रह-रहकर वह मद्यपान कर रहा है. यह सब है, पर गाने का रंग नहीं जमता. विकल होकर सुन्दरी ने बाजा एक ओर सरका दिया, वह थककर एक कौच पर गिर पड़ी. युवक ने दौड़कर कहा ‘क्या तबीयत अच्छी नहीं, प्यारी?’
‘नहीं, मुझे ज़रा चुप पड़ी रहने दो.’
‘पर मुझसे नाराज़ तो नहीं हो?’
‘नहीं, मगर मुझसे ज़रा देर बोलो मत.’
युवक स्तब्ध हुआ. सुन्दरी दीवार की ओर मुंह करके लेट गई. वह सोच रही थी, यह कैसा प्रारब्ध-भोग है! हे परमेश्वर! मैं कहां से कहां आ गिरी? भाग्य-चक्र भी कैसा है? उसमें और इसमें कितना अन्तर है, पर जो हो गया वह तो अब लौट सकता नहीं. परन्तु… उसके मुंह से एक सांस निकली, वह तड़प उठी.
युवक ने उठकर उसका सिर गोद में लेकर कहा,‘गर्मी के कारण तुम्हारी तबियत ख़राब हो गई है, चलो ज़रा समुद्र के किनारे घूम आएं. गाड़ी बाहर है ही.’
सुन्दरी सहमत हुई. क्षण-भर में गाड़ी उन्हें लेकर हैंगिंग गार्डन की ओर उड़ रही थी. हठात् एक मोटर बड़े ज़ोर से टकरा गई. ड्राइवर के हज़ार सावधानी करने पर भी युवक औंधे मुंह गिर पड़े. सुन्दरी ने सामने की मोटर में बैठे व्यक्तियों को देखा, उसके मुख से चीख निकल गई. वह सहम कर सीट पर चिपक गई. एक व्यक्ति ने ललकार कर कहा,‘नाक काट लो.’
उसके हाथ में रिवॉल्वर था. दूसरा व्यक्ति धीरे-धीरे मोटर की ओर बढ़ा. सुन्दरी औंधे मुंह गाड़ी में लोटकर चिल्लाने लगी. युवक ने आगे बढ़कर आततायी को रोककर उसे एक धक्का दिया और उसी क्षण एक गोली उसकी छाती को चीरती हुई निकल गई. आततायी युवती पर छुरी लेकर चढ़ गया.
अभी दिन काफ़ी था. सड़क पर यथेष्ट यातायात था. बहुत लोग झुक पड़े. आततायी अब भागने का उपक्रम करने लगे. परन्तु पुलिस की सावधानी और भीड़ की मदद से वे गिरफ्तार हुए. सुन्दरी भयभीत और साधारण घायल अवस्था में अस्पताल में पहुंचाई गई.
होश में आने पर उसने अस्पताल के कमरों की खिड़कियों पर दृष्टि गाड़कर देखा-कितनी स्मृतियां आईं और गईं. उस शून्य में उसकी दृष्टि गड़ गई. उसके होंठ फड़के, पर हाय! वहां उस फड़कन को देखने वाला कौन था!
युवती दोनों हाथों से मुंह दबा कर रोने लगी,‘हाय! मैंने क्या किया?’
‘क्या हुआ?’
‘तीन को कालापानी, दो को फांसी, एक पागल हो गया.’
‘पागल हो गया?’
‘जी हां.’
‘मगर सभी को फांसी क्यों न हुई?’ फन कुचली हुई नागिन की तरह चपेट खाकर युवती ने बिछौने से उठकर कहा. उसी तरह उसके होंठ फड़क उठे. उसने पूछा,‘और उन्हें?’
‘उन्हें गद्दी त्याग देने को विवश किया जा रहा है. सुना है, वे राजपाट छोड़कर यूरोप चले जाएंगे.’
युवती के होंठों में फिर फड़कन उत्पन्न हुई. उसकी दृष्टि दूर पर कांपते हुए वृक्ष के पत्तों पर अटक गई. उसके सारे शरीर में कम्प उत्पन्न हो गया. वह उठी. उसने ज़मीन में लात मारकर कहा,‘मैं अपनी मां की बेटी हूं, मेरा नाम है गुलबदन. बादशाहों की गद्दियां इन ठोकरों से बर्बाद होंगी और लोगों की जानें इन जूतियों पर क़ुर्बान होंगी-यह मैं जानती हूं, मगर ज़मीर!’
‘हुजूर.’
‘बदला पूरा नहीं हुआ.’
‘सरकार, सेठ ने एक लाख रुपया आपके नाम विल किया है, यह अदालत में उनके सॉलीसीटर से मालूम हुआ.’
‘सेठ दिलदार था, मगर महाराज न था. अफ़सोस है, बेचारा मर गया. अच्छा, मैं आज ही पंजाब जाऊंगी.’
‘आज ही?’
‘हां, मेरे एक दोस्त का तार आया है. वे मेरी इन्तज़ारी कर रहे हैं.’
‘बेहतर हो कि यहां के झगड़े ख़तम होने पर जाएं.’
‘बेवकूफ़, परसों मेरे निकाह की तारीख है!’ सुन्दरी एक मर्म-भेदिनी दृष्टि डालती चली गई.
‘गुलबदन, बेरहमी न करो.’
‘बेरहमी क्या करती हूं?’
‘इस वक्त मैं तंगदस्त हूं, रुपया जल्द ही मेरे पास आने वाला है?’
‘मगर मैं पेट में पत्थर बांधकर तो जी नहीं सकती?’
‘तुम्हें क्या भूखों मरने की नौबत आ रही है? कोठी, बंगला, मोटर, नौकर सभी तो हाज़िर हैं. पांच सौ का मुशाहिरा भी कुछ कम नहीं!’
‘मेरे नौकरों के नौकर ऐसे कोठी, बंगले और मोटरों पर औकात बसर करते हैं. और पांच सौ रुपया रोज़ाना ख़र्च करने की मैं आदी हूं!’
‘मगर गुलबदन! मैं राजा तो नहीं!’
‘फिर रानियों पर क्यों मन चलाया?’
‘रानी भी तो राजी थी!’
‘रानी बनी रहे तभी तक!’
‘वरना?’
‘वरना? वरना रास्ता नापो, मैं अपना ठिकाना देख लूंगी!’
‘तुम-तुम यह कहती क्या हो? मैं तुम्हारा शौहर हूं.’
‘ज़िन्दगी और जिस्म सलामत रहेगा तो ऐसे हज़ार शौहर पैरों के तलुए सहलाएंगे!’
‘तुम्हारा इरादा क्या है?’
‘तुम अपना रास्ता देखो, और मैं अपना!’
‘यह नहीं होगा!’
‘यही होगा, तुम्हारी क्या हैसियत जो मेरी मर्ज़ी के खिलाफ चूं करो!’
‘क्या यही तुम्हारा इरादा है?’
‘यही है.’
‘मैं तुम्हें जान से मार डालूंगा!’
‘इसकी इत्तिला अभी मैं पुलिस को किए देती हूं.’
सुन्दरी ने टेलीफ़ोन पर उंगलियां घुमाई, खुवक ने घुटनों के बल बैठकर कहा,‘ख़ुदा के लिए, गुलबदन, ऐसा जुल्म न करो!’
‘कहती हूं सामने से हट जाओ, वरना ज़लील होना पड़ेगा!’
युवक की आंखों से पहले आंसू फिर आग की ज्वालाएं निकलीं. उसने कहा,‘उफ़ बेवफ़ा रण्डी!’ और वहां से चल दिया.

दिल्ली में बड़े-बड़े पोस्टर चिपके दीख पड़ते थे, और आबाल-बृद्ध उन्हें पढ़ और चर्चा कर रहे थे. प्रसिद्ध गुलबदन का मुजरा स्थानीय थिएटर में होगा. लोगों के दिल गुदगुदाने लगे. राजगद्दियों को विध्वंस करनेवाली, फांसी और कालेपानी की सीधी सड़क, लगातार शौहर बनाने और बिगाड़नेवाली, वह अद्भुत वेश्या कैसी है? थिएटर के द्वार पर उसका एक रंगीन फ़ोटो कांच के आवरण में लगा दिया गया था. लोग देख रहे थे और जीभ चटखा रहे थे. नीचे पांच रुपये से चवन्नी तक के टिकट की दर थी.
अभिनय के समय पर भीड़ का पार न था. चवन्नी की खिड़की पर आदमी पर आदमी टूट रहे थे. थिएटर-हॉल खचाखच भर रहा था. क्षण-क्षण में तालियों की गड़गड़ाहट के मारे कान के पर्दे फटे जाते थे. लोग तरह-तरह का शोर कर रहे थे.
एकाएक सैकड़ों बत्तियों का प्रकाश जगमगा उठा और वह पुराना सौन्दर्य नए वस्त्रों में सजकर सम्मुख आया. वह स्त्री-जो राजपरिवार की महारानी का पद भोग चुकी थी जिसे सभी सम्पदाएं तुच्छ थीं, आज अपने सौन्दर्य को इस तरह खड़ी होकर चवन्नी वालों को बिखेर रही थी. देखने वाले दहल रहे थे. धीरे-धीरे उसने गाना शुरू किया-साज़िन्दों ने गत मिलाई. चवन्नीवालों ने शोर किया-ज़रा नाचकर बताना, बी साहेब!
शोर बढ़ता गया. क्षोभ, ग्लानि और लज्जा से गुलबदन बैठ गई. एक सहृदय पुरुष ने सिर हिलाकर कहा,‘हाय री वेश्या!’ और वे बाहर निकल आए! वे दूर तक कुछ सोचते और रंगमंच का शोर सुनते अंधकार में वेश्या के व्यक्तित्व पर विचार करते चले जा रहे थे. पृथ्वी पर कौन इस तरह इस शब्द पर कभी विचार करने का ऐसा अवसर पाएगा?

Illustration: Pinterest

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