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बू: कहानी इंसानी मनोविज्ञान की (लेखक: मंटो)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
December 24, 2021
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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बू: कहानी इंसानी मनोविज्ञान की (लेखक: मंटो)
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कहते हैं इंसान जो भी काम करता है या नहीं करता है, उसके पीछे एक दिमाग़ी कारण होता है. रणधीर के दिमाग़ में भी एक ‘बू’ इस क़दर रच बस गई है कि वह उन कामों से भी दूर हुआ जा रहा है, जो उसके पसंदीदा हुआ करते थे.

बरसात के यही दिन थे. खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह नहा रहे थे. सागौन के स्प्रिन्गदार पलंग पर, जो अब खिड़की के पास थोड़ा इधर सरका दिया गया, एक घाटन लड़की रणधीर के साथ लिपटी हुई थी.
खिड़की के पास बाहर पीपल के पत्ते रात के दूधिया अंधेरे में झुमरों की तरह थरथरा रहे थे, और शाम के समय, जब दिन भर एक अंग्रेज़ी अख़बार की सारी ख़बरें और इश्तहार पढ़ने के बाद कुछ सुस्ताने के लिए वह बालकनी में आ खड़ा हुआ था तो उसने उस घाटन लड़की को, जो साथ वाले रस्सियों के कारखाने में काम करती थी और बारिश से बचने के लिए इमली के पेड़ के नीचे खड़ी थी, खांस-खांसकर अपनी तरफ़ आकर्षित कर लिया था और उसके बाद हाथ के इशारे से ऊपर बुला लिया था.
वह कई दिनों की बेहद तनहाई से उकता गया था. विश्व युद्ध के चलते मुम्बई की लगभग तमाम ईसाई छोकरियां, जो अमूमन सस्ते दामों में मिल जाया करती थीं, वैसी जवान औरत और कमसीन लड़की अंग्रेज़ी फौज में भरती हो गई थीं. उनमें से कइयों ने फ़ोर्ट के इलाक़े में डांस स्कूल खोल लिए थे, वहां सिर्फ़ फौजी गोरों को जाने की इजाज़त थी.
इन हालत के चलते रणधीर बहुत उदास हो गया था. जहां उसकी उदासी का कारण यह था कि क्रिश्चियन छोकरियां दुर्लभ हो गई थीं, वहीं दूसरा यह कि फौजी गोरों के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा सभ्य, पढ़ा-लिखा और ख़ूबसूरत नौजवान होने के बावजूद रणधीर के लिए फ़ोर्ट के लगभग तमाम दरवाज़े बंद हो चुके थे, क्योंकि उसकी चमड़ी सफ़ेद नहीं थी.
जंग के पहले रणधीर नागपाड़ा और ताजमहल होटल की कई मशहूर क्रिश्चियन छोकरियों से जिस्मानी रिश्ते कायम कर चुका था, उसे अच्छी तरह पता था कि इस किस्म के संबंधों के आधार पर वह उन क्रिश्चियन लड़कों के मुक़ाबले क्रिश्चियन लड़कियों के बारे में कहीं ज़्यादा जानकारी रखता था, जिनसे ये छोकरियां फ़ैशन के तौर पर रोमांस लड़ाती हैं और बाद में उन्हीं में से किसी बेवकूफ़ से शादी कर लेती हैं.
रणधीर ने महज़ हैज़ल से बदला लेने की खातिर उस घाटन लड़की, जो अलह्ड़ मस्त जवानी से भरी हुई जवान लड़की थी को ऊपर बुलाया था. हैज़ल उसके फ़्लैट के नीचे रहती थी. वह रोज सुबह वर्दी पहनकर कटे हुए बालों पर खाकी रंग की टोपी तिरछे कोण से जमा कर बाहर निकलती थी और ऐसे बांकापन से चलती थी, जैसे फ़ुटपाथ पर चलने वाले सभी लोग टाट की तरह उसके क़दमों में बिछते चले जाएंगे. रणधीर सोचता था कि आख़िर क्यों वह उन क्रिश्चियन छोकरियों की तरफ़ इतना ज़्यादा रीझा हुआ है. इस में कोई शक नहीं कि वे मनचली लड़कियां अपने जिस्म की तमाम दिखाई जा सकने वाली चीज़ों की नुमाइश करती हैं. किसी किस्म की झिझक महसूस किए बगैर मनचली लड़की अपने कारनामों का जिक्र कर देती हैं. अपने बीते हुए पुराने रोमांसों का हाल सुना देती हैं. यह सब ठीक है, लेकिन किसी दूसरी जवान औरत में भी ये ख़ूबियां हो सकती हैं.
रणधीर ने जब घाटन लड़की को इसारे से ऊपर बुलाया था तो उसे इस बात का कतई अंदाज़ा नहीं था कि वह उसे अपने साथ सुला भी लेगा. वह तो इसके वहां आने के थोड़ी देर के बाद उसके भीगे हुए कपड़े देखकर यह शंका मन में उठी थी कि कहीं ऐसा न हो कि बेचारी को निमोनिया हो जाए. सो रणधीर ने उससे कहा था,“ये कपड़े उतार दो, सर्दी लग जाएगी. ”
वह रणधीर की इस बात का मतलब समझ गई थी. उसकी आंखों में शर्म के लाल डोरे तैर गए थे. फिर भी जब रणधीर ने अपनी धोती निकालकर दी तो कुछ देर सोचकर अपना लहंगा उतार दिया, जिस पर मैल भीगने के कारण और भी उभर आया था.
लहंगा उतारकर उसने एक तरफ़ रख दिया और अपनी रानों पर जल्दी से धोती डाल ली. फिर उसने अपनी भींची-भींची टांगों से ही चोली उतारने की कोशिश की जिसके दोनों किनारों को मिलाकर उसने एक गांठ दे रखी थी. वह गांठ उसके तंदुरुस्त सीने के नन्हे लेकिन सिमटे गड्ढे में छिप गई थी.
कुछ देर तक वह अपने घिसे हुए नाख़ूनों की मदद से चोली की गांठ खोलने की कोशिश करती रही जो भीगने के कारण बहुत ज़्यादा मज़बूत हो गई थी. जब थक हार के बैठ गई तो उसने मराठी में रनधीर से कुछ कहा, जिसका मतलब यह था,“मैं क्या करूं, नहीं निकलती.”
रणधीर उसके पास बैठ गया और गांठ खोलने लगा. जब नहीं खुली तो उसने चोली के दोनों सिरे दोनों हाथों से पकड़कर इतनी ज़ोर का झटका दिया कि गांठ सरसराती सी फैल गई और इसी के साथ दो धड़कती हुई छातियां एकाएक उजागर हो गईं. क्षणभर के लिए रणधीर ने सोचा कि उसके अपने हाथों से उस घाटन की लड़की के सीने पर नर्म-नर्म गुंथी हुई मिट्टी को कमा कर कुम्हार की तरह दो प्यालियों की शक्ल बना दी है.
उसकी भरी-भरी सेहतमंद उरोजों में वही धड़कन, वही गोलाई, वही गरम-गरम ठंडक थी, जो कुम्हार के हाथ से निकले हुए ताज़े बरतनों में होती है.
मटमैले रंग की उन कुंवारी और जवान औरत की उरोजों ने एक अजीब किस्म की चमक पैदा कर दी थी जो चमक होते हुए भी चमक नहीं थी. उसके सीने पर ये उभार दो दीये मालूम होते थे जो तालब के गंदेले पानी पर जल रहे होने का आभास दे रहे थे.
बरसात के यही दिन थे. खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह कंपकंपा रहे थे. उस घाटन लड़की के दोनों कपड़े, जो पानी से सराबोर हो चुके थे, एक गंदेले ढेर की सूरत में फर्श पर पड़े थे और वह घाटन की नंगी लड़की रणधीर के साथ चिपटी हुई थी. उसके नंगे बदन की गर्मी रणधीर के बदन में हलचल पैदा कर रही थी, जो सख्त जाड़े के दिनों में नाइयों के गलीज लेकिन गरम हमामों में नहाते समय महसूस हुआ करती है.
दिनभर वह रणधीर के साथ चिपटी रही. दोनों एक दूसरे के साथ गड्डमड्ड हो गए थे. उन्होंने मुश्क़िल से एक दो बातें की होंगी, क्योंकि जो कुछ भी कहना सुनना था, सांसों, होंठों और हाथों से तय हो रहा था. रणधीर के हाथ सारी रात उसकी नर्म-नर्म उरोजों पर हवा के झोंकों की तरह फिरते रहे. उन हवाई झोंकों से उस घाटन लड़की के बदन में एक ऐसी सरसराहट पैदा होती थी कि ख़ुद रणधीर भी कांप उठता था.
इस कंपकंपाहट से रणधीर का पहले भी सैकड़ों बार वास्ता पड़ चुका था. वह काम वासना से भरी हुई लड़की के मज़े भी बख़ूबी जानता था. कई लड़कियों के नर्म और नाज़ुक लेकिन सख़्त स्तनों से अपना सीना मिलाकर वह कई रातें गुज़ार चुका था. वह ऐसी बिलकुल अल्हड़ लड़कियों के साथ भी रह चुका था जो उसके साथ लिपट कर घर की वे सारी बातें सुना दिया करती थीं जो किसी ग़ैर कानों के लिए नहीं होतीं. वो ऐसी कमीनी लड़कियों से भी जिस्मानी रिश्ता कायम कर चुका था जो सारी मेहनत ख़ुद करती थीं और उसे कोई तक़लीफ़ नहीं देती थीं. उसे कई सामाजिक रूप से बदचलन लड़की और बदचलन औरत का भी अनुभव था जिसे वह बहुत ही रुहानी मानता था.
लेकिन यह घाटन की लड़की, जो इमली के पेड़ के नीचे भीगी हुई खड़ी थी और जिसे उसने इशारे से ऊपर बुला लिया था, बिलकुल भिन्न किस्म की लड़की थी.
सारी रात रणधीर को उसके जिस्म से एक अजीब किस्म की बू आती रही. इस बू को, जो एक ही समय में ख़ुशबू थी और बदबू भी, वह सारी रात पीता रहा. उसकी बगलों से, उसकी छातियों से, उसके बालों से, उसकी चमड़ी से, उसके जवान जिस्म के हर हिस्से से यह जो बदबू भी थी और ख़ुशबू भी, रणधीर के पूरे शरीर में बस गई थी. सारी रात वह सोचता रहा था कि यह घाटन लड़की बिलकुल क़रीब हो कर भी हरगिज़ इतनी क़रीब नहीं होती, अगर उसके जिस्म से यह बू न उड़ती. यह बू उसके मन-मस्तिष्क की हर सल्वट में रेंग रही थी. उसके तमाम नए-पुराने अनुभवों में रच-बस गई थी.
उस बू ने उस लड़की और रणधीर को जैसे एक-दूसरे से एकाकार कर दिया था. दोनों एक-दूसरे में समा गए थे. उन अनंत गहराइयों में उतर गए थे जहां पहुंच कर इंसान एक ख़ालिस इंसान की संतुष्टि से सराबोर होता है. ऐसी संतुष्टि, जो क्षणिक होने पर भी अनंत थी. लगातार बदलती हुई होने पर भी दृढ़ और स्थायी थी, दोनों एक ऐसा जवाब बन गए थे, जो आसमान के नीले शून्य में उड़ते रहने पर भी दिखाई देता रहे.
उस बू को, जो उस घाटन लड़की के अंग-अंग से फूट रही थी, रणधीर बख़ूबी समझता था, लेकिन समझे हुए भी वह इनका विश्लेषण नहीं कर सकता था. जिस तरह कभी मिट्टी पर पानी छिड़कने से सोंधी-सोंधी बू निकलती है, लेकिन नहीं, वह बू कुछ और ही तरह की थी. उसमें लेवेंडर और इत्र की मिलावट नहीं थी, वह बिलकुल असली थी, औरत और मर्द के शारीरिक संबंध की तरह असली और पवित्र.
रणधीर को पसीने की बू से सख़्त नफ़रत थी. नहाने के बाद वह हमेशा बगलों वगैरह में पाउडर छिड़कता था या कोई ऐसी दवा इस्तेमाल करता था, जिससे वह बदबू जाती रहे, लेकिन ताज्जुब है कि उसने कई बार, हां कई बार, उस घाटन लड़की की बालों भरी बगलों का चुम्मा लिया. उसने चूमा और उसे बिलकुल घिन नहीं आई, बल्कि एक अजीब कि़स्म की तुष्टि का एहसास हुआ. रणधीर को ऐसा लगता था कि वह इस बू को जानता है, पहचानता है, उसका अर्थ भी पहचानता है, लेकिन किसी को समझा नहीं सकता.
***
बरसात के यही दिन थे. यूं ही खिड़की के बाहर जब उसने देखा तो पीपल के पत्ते उसी तरह नहा रहे थे. हवा में फड़फड़ाहटें घुली हुई थी. अंधेरा थ, लेकिन उसमें दबी-दबी धुंधली-सी रोशनी समाई हुई थी. जैसे बारिश की बूंदों के सौ सितरों का हल्का-हल्का गुब्बारा नीचे उतर आया हो. बरसात के यही दिन थे, जब रणधीर के उस कमरे में सागौन का सिर्फ़ एक ही पलंग था. लेकिन अब उस से सटा हुआ एक और पलंग भी था और कोने में एक नई ड्रेसिंग टेबल भी मौजूद थी. दिन यही बरसात के थे. मौसम भी बिलकुल वैसा ही था. बारिश की बूंदों के साथ सितारों की रोशनी का हल्का-हल्का गुब्बार उसी तरह उतर रहा था, लेकिन वातावरण में हिना की तेज ख़ुशबू बसी हुई थी. दूसरा पलंग ख़ाली था. इस पलंग पर रणधीर औंधे मुंह लेटा खिड़की के बाहर पीपल के झुमते हुए पत्तों का नाच देख रहा था.
एक गोरी-चिट्टी लड़की अपने नंगे जिस्म को चादर से छुपाने की नाकाम कोशिश करते करते रणधीर के और भी क़रीब आ गई थी. उसकी सुर्ख़ रेशमी सलवार दूसरे पलंग पर पड़ी थी जिसके गहरे सुर्ख रंग के हजार्बंद का एक फुंदना नीचे लटक रहा था. पलंग पर उसके दूसरे कपड़े भी पड़े थे. सुनहरी फूलदार जम्फर, अंगिया, जांधिया और मचलती जवानी की वह पुकार, जो रणधीर ने घाटन लड़की के बदन की बू में सूंघी थी. वह पुकार, जो दूध के प्यासे बच्चे के रोने से ज़्यादा आनंदमयी होती है. वह पुकार जो स्वप्न के दायरे से निकल कर खामोश हो गई थी.
रणधीर खिड़की के बाहर देख रहा था. उसके बिलकुल क़रीब पीपल के नहाए हुए पत्ते झूम रहे थे. वह उनकी मस्तीभरी कम्पन के उस पार कहीं बहुत दूर देखने की कोशिश कर रहा था, जहां गठीले बादलों में अजीब किस्म की रोशनी घुली हुई दिखाई दे रही थी. ठीक वैसे ही जैसे उस घाटन लड़की के सीने में उसे नजर आई थी ऐसी रोशनी जो पुरैसरार गुफ़्तगू की तरह दबी लेकिन स्पष्ट थी.
रणधीर के पहलू में एक गोरी-चिट्टी लड़की, जिसका जिस्म दूध और घी में गुंथे आटे की तरह मुलायम था, उस जवान औरत की उरोजों में मक्खान सी नज़ाकत थी. लेटी थी. उसके नींद में मस्त जवान लड़की के मस्त नंगे बदन से हिना के इत्र की ख़ूशबू आ रही थी जो अब थकी-थकी सी मालूम होती थी. रणधीर को यह दम तोड़ती और जुनून की हद तक पहुंची हुई ख़ुशबू बहुत बुरी मालूम हुई. उसमें कुछ खटास थी, एक अजीब किस्म की खटास, जैसे बदहजमी में होती है, उदास, बेरंग, बेचैन.
रणधीर ने अपने पहलू में लेटी हुई लड़की को देखा. जिस तरह फटे हुए दूध के बेरंग पानी में सफ़ेद मुर्दा फुटकियां तैरने लगती हैं, उसी तरह इस लड़की के दूधिया जिस्म पर ख़राशें और धब्बे तैर रहे थे और… हिना की ऊटपटांग ख़ुशबू. दरअसल रणधीर के मन-मस्तिष्क में वह बू बसी हुई थी, जो घाटन लड़की के जिस्म से बिना किसी बहरी कोशिश के स्वयं निकल रही थी. वह बू जो हिना के इत्र से कहीं ज़्यादा हल्की-फुल्की और रस में डूबी हुई थी, जिसमें सूंघे जाने की कोशिश शामिल नहीम थी. वह ख़ुद-ब-ख़ुद नाक के रास्ते अंदर घुस अपनी सही मंजिल पर पहुंच जाती थी.
लड़की के स्याह बालों में चांदी के बुरादे के कण की तह जमे हुए थे. चेहरे पर पाउडर, सुर्खी और चांदी के बुरादे के इन कणों ने मिल-जुल कर एक अजीब रंग पैदा कर दिया था. बेनाम सा उड़ा-उड़ा रंग और उसके गोरे सीने पर कच्चे रंग की अंगिया ने जगह-जगह सुर्ख़ ध्ब्बे बना दिए थे.
लड़की की छातियां दूध की तरह सफ़ेद थी. उनमें हल्का-हल्का नीलापन भी थी. बगलों में बाल मुंड़े हुए थे, जिसकी वजह से वहां सुरमई गुब्बार सा पैदा हो गया था. रणधीर लड़की की तरफ़ देख-देख्कर कई बार सोच चुका था, क्यों ऐसा नहीं लगता, जैसे मैंने अभी-अभी कीलें उखाड़कर उसे लकड़ी के बंद बक्से से निकाला हो? अमूमन किताबों और चीनी के बर्तनों पर जैसी हल्की हल्की खराशें पड़ जाती हैं, ठीक उसी प्रकार उस लड़की के नंगी जवान जिस्म पर भी कई निशान थी.
जब रणधीर ने उसके तंग और चुस्त अंगिया की डोरियां खोली थी तो उसकी पीठ और सामने सीने पर नर्म-नर्म गोश्त की झुर्रियां सी दिखाई दी थी और कमर के चारों तरफ़ कस्कर बांधे हुए इजार्बद का निशान भी. वज़नी और नुकीले नेक्लेस से उसके सीने पर कई जगह खराशें पड़ गई थीं, जैसे नाख़ूनों से बड़े ज़ोर से खुजलाया गया हो.
बरसात के यही दिन थे, पीपल के नर्म-नर्म पत्तों पर बारिश की बूंदें गिरने से वैसी ही आवाज़ पैदा हो रही थी, जैसी रणधीर उस दिन सारी रात सुनता रहा था. मौसम बेहद सुहाना था. ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी. उसमें हिना के इत्र की तेज़ ख़ुशबू घुली हुई थी.
रणधीर के हाथ देर तक उस गोरी लड़की के कच्चे दूध की तरह सफ़ेद स्तनों पर हवा के झोंकों की तरह फिरते रहे थे. उसकी अंगुलियों ने उस गोरे गोरे बदन में कई चिनगारियां दौड़ती हुई महसूस की थीं. उस नाज़ुक बदन में कई जगहों पर सिमटे हुए कंपन का भी उसे पता चला था. जब उसने अपना सीना उसके सीना के साथ मिलाया तो रणधीर के जिस्म के हर रोंगटे ने उस लड़की के बदन के छिड़े तारों की भी आवाज़ सुनी थी, मगर वह आवाज़ कहां थी?
रणधीर ने आख़िरी कोशिश के तौर पर उस लड़की के दूधिया जिस्म पर हाथ फेरा, लेकिन उसे कोई कंपकंपी महसूस नहीं हुई. उसकी नई नवेली दुल्हन, जो कमशीन कली थी, जो फ़र्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट की बेटी थी और जो अपने कॉलेज के सैकड़ों दिलों की धड़कन थी, रणधीर की किसी भी चेतना को छू न सकी. वह हिना की ख़ुशबू में उस बू को तलाश रहा था, जो इन्हीं दिनों जब खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते बारिश में नहा रहे थे, उस घाटन लड़की के मैले बदन से आई थी.

Illustration: Pinterest

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