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अमर प्रेम: फ़िल्म, जिसने समझाया कि प्रेम किसी तयशुदा परिभाषा में बंधने वाली चीज़ नहीं है

जय राय by जय राय
February 7, 2022
in ओए एंटरटेन्मेंट, ज़रूर पढ़ें, रिव्यूज़
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अमर प्रेम: फ़िल्म, जिसने समझाया कि प्रेम किसी तयशुदा परिभाषा में बंधने वाली चीज़ नहीं है
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विज्ञान कहता है दुनिया गुरुत्वाकर्षण यानी ग्रैविटी के नियम पर टिकी है तो फ़िलॉसफ़ी कहती है प्रेम पर. ग्रैविटी के नियमों को परिभाषित किया जा चुका है, पर प्रेम को परिभाषा की परिधि में बांध पाने का काम बड़े से बड़े सयाना भी नहीं कर पाया है. प्रेम सत्य है, शाश्वत है और अमर है… पर मज़े की बात यह है कि यह भी प्रेम की कोई परिभाषा नहीं है, बल्कि उसको देखने का नज़रिया भर है. आज से पचास साल पहले रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘अमर प्रेम’ का संदेश कुछ ऐसा ही था.

फ़िल्म: अमर प्रेम
कलाकार: राजेश खन्ना, शर्मिला टैगोर, विनोद मेहरा, सुजीत कुमार, मदन पुरी, लीला मिश्रा, अभी भट्टाचार्य, मास्टर बॉबी, और अन्य
निर्देशक: शक्ति सामंत
कहानी: बिभूतिभूषण बंधोपाध्याय
गीत: आनंद बख्शी
संगीत: आर. डी. बर्मन
संवाद: रमेश पंत

वर्ष 1972 में रिलीज़ हुई शक्ति सामंत की फ़िल्म अमर प्रेम आज के दौर में दम तोड़ते हुए मानवीय मूल्यों को फिर से स्थापित करने की कहानी है, जो बताती है कि प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती. प्रेम किसी को भी किसी से भी हो सकता है. प्रेम की कोई उम्र नहीं होती और प्रेम को आप सिर्फ़ रिश्ते में नहीं बांध सकते. राजेश खन्ना, विनोद मेहरा, शर्मिला टैगोर, सुजीत कुमार, ओमप्रकाश की बेहतरीन अदाकारी ने इस फ़िल्म को बॉलिवुड के लिए मील का पत्थर बना दिया. फ़िल्मों के जानकर आज भी इस फ़िल्म की बात करते हैं. शक्ति सामंत और राजेश खन्ना ने एक साथ कुछ अन्य फ़िल्मों में भी काम किया और इनकी सारी फ़िल्मों ने बॉक्स ऑफ़िस पर अच्छा प्रदर्शन किया था. इस फ़िल्म ने भी अच्छी कमाई की और दर्शकों ने इस फ़िल्म के कहानी, गीत-संगीत और अभिनय वाले पहलू को भी ख़ूब सराहा था.

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अमर प्रेम, वर्ष 1970 की बंगाली फ़िल्म निशी पद्मा की हिंदी रीमेक थी. शक्ति सामंत ने अपने एक इंटरव्यू में बताया कि ओरिजनल फ़िल्म निशी पद्मा की कहानी उन्हें बहुत अछी लगी और उससे प्रेरित होकर उन्होंने फ़िल्म अमर प्रेम बनाई थी. उस वक़्त राजेश खन्ना बहुत व्यस्त थे उन्हें कहानी इतनी अच्छी लगी कि इस फ़िल्म के लिए उन्होंने जैसे-तैसे टाइम निकाल ही लिया था. बंगाली और हिंदी दोनों ही फ़िल्मों की स्क्रीनप्ले अरबिंदा मुखर्जी ने लिखी थी. कहानी थी बिभूतिभूषण बंधोपाध्याय की. यह फ़िल्म कहानी के अलावा अपने बेहतरीन गानों के लिए भी जानी जाती है. ज़्यादातर गानों में पुरुष आवाज़ किशोर कुमार की रही. बेहतरीन लिरिक्स ने फ़िल्म को अलग-अलग वक़्त में कहानी को आगे बढ़ाने और दृश्यों को सम्भालने का काम किया है. फ़िल्म की ओपनिंग एस. डी. बर्मन की आवाज़ वाले विदाई गीत ‘डोली में बिठाई के कहार’ से होती है. इस सीन के साथ ही एक बात स्पष्ट हो जाती है कि कहानी बहुत उतार-चढ़ाव से गुज़रने वाली है. दम तोड़ते मानवीय मूल्यों और तक़लीफ़देह रिश्तों की इस कहानी के तीन मुख्य किरदार हैं. पुरुष प्रधान समाज की बेसहारा औरत शर्मिला टैगोर; एक छोटा बच्चा (मास्टर बॉबी) जो अपनी मां के सौतेले व्यवहार से परेशान है, उसे वास्तविक प्रेम की तलाश है और प्रेमविहीन विवाह में फंसे आनंद बाबू (राजेश खन्ना), जिनकी पत्नी को उनसे कोई लगाव नहीं है.
फ़िल्म के शुरुआती दृश्य में एक डोली जाते हुए दिखाया गया है. और उसी सीन में पुष्पा (शर्मिला टैगोर) एक पोटली के साथ अपने मां के घर आते हुए दिखाई देती है. बैक्ग्राउंड में गाना बजता है “डोली में बिठाई के कहार ले आए मोहे सजना के द्वार. मर के बिछड़ना था, अपने सांवरिया से जीते जी बिछड़ना पड़ा” इस गीत की सबसे बेहतरीन लाइन है और पूरी फ़िल्म का नैरेटिव सेट करने में मदद करती है.

पुष्पा अपनी मां को बताती है कि उसके पति ने दूसरी शादी कर ली और उसे मार-पीट कर घर से निकाल दिया. आगे फ़िल्म में पुष्पा और उनकी मां का जीने के लिए पेट भरने का संघर्ष थोड़ी देर चलता है. पुष्पा की पड़ोसन पुष्पा पर उसके देवर को फंसाने का आरोप लगाती है. ग़ुस्से में पुष्पा की मां उससे घर छोड़कर जाने को कहती है. पुष्पा ग़ुस्से में आत्महत्या करने के लिए गांव के तालाब पर जाती है, यहां उसकी मुलाक़ात नेपाल बाबू (मदन पुरी) से होती है. नेपाल बाबू पुष्पा को नौकरी दिलाने के बहाने कलकत्ता के वेश्या बाज़ार में बेच देता है और विडम्बना यह है की पुष्पा को पता ही नहीं कि वह कोठे की मालकिन मौसी (लीला मिश्रा) के हाथों बिक चुकी है. इसी बीच राजेश खन्ना के किरदार आनंद बाबू की एंट्री होती है, जो अपने पत्नी के व्यवहार से ऊब चुका है. उनका ड्राइवर मानसिक शांति की तलाश में उन्हें कोठे पर लेकर आता है. पहले तो आनंद बाबू ड्राइवर को डांटते हैं, फिर जब शर्मिला टैगोर की आवाज़ उनके कानों तक पहुंचती है, तो वहां खिंचे चले जाते हैं, पुष्पा के आवाज़ की तारीफ़ करते हैं और रोज़ आने लगते हैं.
इसी बीच गांव में पुष्पा के पड़ोसी महेश शर्मा (सुजीत कुमार) पुष्पा के घर के सामने रहने आते हैं. पुष्पा उन्हें देखते ही पहचान लेती है लेकिन महेश बाबू पहचानने से इनकार कर देते हैं और कहते हैं कि तुम गांववालों के लिए मर चुकी हो और ऐसे में अगर हम बात ना करें तो ही अच्छा है. इसके बाद वह उन्हें कुछ पैसे देते हुए कहती है कि मां को दे देना, तब महेश बाबू बताते हैं कि तुम्हारी मां मर चुकी है. उसके बाद महेश बाबू के बेटे नंदू का पुष्पा के घर आना-जाना बढ़ जाता है, नंदू को समोसे और जलेबियां बहुत अच्छी लगती हैं तो आनंद बाबू हमेशा नंदू के लिए जलेबी और समोसे लेकर आते हैं. पुष्पा और नंदू के बीच गहरा स्नेह पनपने लगता है.
इस फ़िल्म के डायलॉग एक से बढ़कर एक हैं. एक सीन में जब नेपाल बाबू पुष्पा से उसकी मां को देने के लिए पैसे मांगता है तब आनंद बाबू भी वहा मौजूद होते हैं. आनंद बाबू नेपाल बाबू को कहते हैं कि तुम आदमी हो या जानवर, क्योंकि जानवर भी घास खाते हुए कभी-कभी सिर ऊपर उठाकर ऊपर वाले को देख लेते हैं. तुम्हें ऊपर वाले से डर नहीं लगता क्या? इस फ़िल्म का सबसे अच्छा गाना है ‘कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना’ यह गाना पूरी तरह से भारतीय समाज को आपके सामने रख देता है. समाज के दोगले नज़रिए और लांछन लगाने की प्रवृत्ति पर तीखा प्रहार है यह मधुर गीत.

फ़िल्म में एक बहुत संवेदनशील दृश्य है, जब नंदू बीमार पड़ जाता है और उसके इलाज के लिए महेश बाबू के पास पर्याप्त पैसे नहीं होते. पुष्पा आनंद बाबू से डॉक्टर बुलाकर उसका इलाज कराने के लिए कहती है. डॉक्टर आ जाता है इलाज भी शुरू हो जाता है, तब जाकर महेश बाबू को लगता है की डॉक्टर से जाकर पूछना चाहिए की उन्हें फ़ीस किसने दी. उस वक़्त वो गांव वापस जाने की तैयारी कर रहे होते हैं तो अपनी दूसरी पत्नी (नंदू की सौतेली मां) के लिए घर लौटते हुए साड़ी ख़रीदते हुए डॉक्टर के पास जाते हैं. डिस्पेन्सरी के बाहर खड़े होकर उन्हें किसी की आवाज़ सुनाई देती है, तो दरवाज़े के बाहर खड़े होकर डॉक्टर की बातचीत सुनने की कोशिश करते हैं. डॉक्टर पुष्पा से पूछते हैं कि तुमने नंदू के इलाज़ की फ़ीस दे दी और तुम्हारे पति को कैसे पता नहीं, तब पुष्पा कहती है कि दरअसल मैं उसकी सगी मां नहीं हूं. जब पुष्पा बाहर आती है तब महेश बाबू, पुष्पा को रोकते हुए कहते हैं कि बहन मुझे माफ़ करना मैंने तुम्हें ग़लत समझा. लेकिन मैं तुम्हें श्रद्धा और भक्ति के अलावा कुछ नहीं दे सकता. यह साड़ी रखो परसों भैया दूज है मुझे याद करके पहन लेना. यह दृश्य इतना भावुक कर देता है कि आप ख़ुद को रोने से नहीं रोक पाएंगे. हालांकि सुजीत कुमार के लिए इस स्क्रिप्ट में करने के लिए ज़्यादा काम नहीं है, लेकिन इस एक मौक़े पर वह सारी वाहवाही लूट ले जाते हैं.
गांव लौटने से पहले नंदू पुष्पा से मिलने जाता है जल्दबाज़ी में पुष्पा का पैर कट जाता है नंदू भागकर अपने घर जाता है और वापस आकर पुष्पा के पैर में पट्टी बांधता है. पुष्पा उससे पूछती है कि तू भी आज चला जाएगा और इसके बाद कभी नहीं मिलेगा? जवाब में नंदू कहता है जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तुमसे मिलने आऊंगा और तुमसे अपनी ताबीज़ लूंगा. नंदू श्रद्धा से पुष्पा के पैरों में झुककर प्रणाम करता है. पुष्पा कहती है तू मेरे पैर छू रहा है, जवाब में नंदू कहता है कि मैं तुम्हारे पैर नहीं छुऊंगा तो किसके पैर छुऊंगा? यह दृश्य मानवीय जज़्बात का एक बेहतरीन उदाहरण है, जो आपको बताता है कि हर रिश्ते का नाम नहीं होता और वास्तविक दुनिया में प्यार पाने के लिए आपको प्यार करने भी आना चाहिए.

नंदू अपने गांव से जब कलकत्ता लौटता है तब वह इंजीनियर बन चुका है. घर की तलाश में वह पुष्पा को पूछते हुए उसी मोहल्ले में पहुंच जाता है, जहां पुष्पा उसे पहली बार मिली थी. उसने पुष्पा के घर के सामने रातरानी का एक पौधा लगाया था, जिसे वह खड़ा होकर निहारता रहता है और पुष्पा को याद करता है. नंदू का बेटा बीमार हो जाता है और उसके इलाज के लिए वही डॉक्टर आता है जिसने नंदू को ठीक किया था. इत्तफ़ाक से आनंद बाबू को पुष्पा एक होटल में काम करते हुए मिलती है. उसी होटल में पुष्पा की मुलाक़ात उसके पति से होती है, जो बीमार है और उसकी मौत हो जाती है. डॉक्टर के क्लीनिक में आनंद बाबू की मुलाक़ात जवान हो चुके नंदू से होती है. आनंद बाबू नंदू को लेकर पुष्पा के पास जाते हैं. नंदू पुष्पा को देखकर भावुक हो जाता है अपने ताबीज़ के बारे में पूछता है. आनंद बाबू कहते हैं पुष्पा तुम अपने घर जाओ, तुम्हारा बेटा नंदू तुम्हें लेने आया है. इसके बाद नंदू भी पुष्पा को घर चलने के लिए कहता है. पुष्पा एक क्षण के लिए चौंक जाती लेकिन साथ जाने को तैयार हो जाती है. आनंद बाबू उनके लिए रिक्शा लेकर आते हैं. उस वक़्त उनकी आंख में आंसू होता है. आनंद बाबू पूरी फ़िल्म में कहते हैं ‘आई हेट टीयर्स’, जो कि आगे चलकर राजेश खन्ना के सबसे मशहूर डायलॉग्स में एक बन गया, लेकिन फ़िल्म के आख़िरी सीन में रोते हुए आनंद बाबू के चेहरे पर एक राहत का भाव है. इस तरह से फ़िल्म हैपी एंडिंग के साथ ख़तम होती है. पुष्पा को घर ले जानेवाले नंदू को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि किसी वक़्त में पुष्पा कोठे पर काम करने वाली महिला थी. उनके रिश्ते का कोई नाम नहीं, लेकिन एक-दूसरे के लिए प्यार उन्हें बांधता है. फ़िल्म अमर प्रेम में कई अनकहे प्रेम हैं. नंदू और पुष्पा के प्रेम की चर्चा तो हम कर ही चुके हैं. पुष्पा और आनंद बाबू का प्रेम. महेश बाबू और पुष्पा का प्रेम. कोठे की लड़कियों का आपसी प्रेम. यहां तक कि पुष्पा के मन में अपने बीमार पति और उसे कोठे पर बेचनेवाले और मां के नाम पर झूठ बोलकर उसे ठगनेवाले नेपाल बाबू के लिए भी नफ़रत नहीं है. कुल मिलाकर यह फ़िल्म देखने के बाद हम कह सकते हैं, दुनिया भले गुरुत्वाकर्षण के नियम से घूमती हो, पर यहां का सारा कारोबार चलाने का ज़िम्मा सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम का है.

जय राय

जय राय

जय राय पेशे से भले एक बिज़नेसमैन हों, पर लिखने-पढ़ने में इनकी ख़ास रुचि है. जब लिख-पढ़ नहीं रहे होते तब म्यूज़िक और सिनेमा में डूबे रहते हैं. घंटों तक संगीत-सिनेमा, इकोनॉमी, धर्म, राजनीति पर बात करने की क़ाबिलियत रखनेवाले जय राय आम आदमी की ज़िंदगी से इत्तेफ़ाक रखनेवाले कई मुद्दों पर अपने विचारों से हमें रूबरू कराते रहेंगे. आप पढ़ते रहिए दुनिया को देखने-समझने का उनका अलहदा नज़रिया.

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