सदियों तक समाज से दूर रही आबादी को आज़ादी के बाद एकबारगी सभी के साथ, उसी रफ़्तार से चलने के लिए कहा जाता है. चाहते हुए वे लोग पीछे रह जाते हैं. आख़िर क्या है इसका कारण, ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘जूता’ सीधे शब्दों में बयां करती है.
हिकारत भरे शब्द चुभते हैं
त्वचा में
सुई की नोक की तरह
जब वे कहते हैं
साथ चलना है तो क़दम बढ़ाओ
जल्दी-जल्दी
जबकि मेरे लिए क़दम बढ़ाना
पहाड़ पर चढ़ने जैसा है
मेरे पांव ज़ख़्मी हैं
और जूता काट रहा है
वे फिर कहते हैं
साथ चलना है तो क़दम बढ़ाओ
हमारे पीछे-पीछे आओ
मैं कहता हूं
पांव में तक़लीफ़ है
चलना दुश्वार है मेरे लिए
जूता काट रहा है
वे चीख़ते हैं
भाड़ में जाओ
तुम और तुम्हारा जूता
मैं कहना चाहता हूं
मैं भाड़ में नहीं
नरक में जीता हूं
पल-पल मरता हूं
जूता मुझे काटता है
उसका दर्द भी मैं ही जानता हूं
तुम्हारी महानता मेरे लिए स्याह अंधेरा है
वे चमचमाती नक्काशीदार छड़ी से
धकिया कर मुझे
आगे बढ़ जाते हैं
उनका रौद्र रूप
सौम्यता के आवरण में लिपट कर
दार्शनिक मुद्रा में बदल जाता है
और, मेरा आर्तनाद
सिसकियों में
मैं जानता हूं
मेरा दर्द तुम्हारे लिए चींटी जैसा
और तुम्हारा अपना दर्द पहाड़ जैसा
इसीलिए, मेरे और तुम्हारे बीच
एक फ़ासला है
जिसे लम्बाई में नहीं
समय से नापा जाएगा
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