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बोलनेवाले जानवर: दास्तां सभ्यताओं के मिलन की (लेखक: शानी)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
January 29, 2023
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Gulsher-Khan-Shani_Kahaniyan
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संवेदनशील कहानियों के लिए मशहूर लेखक गुलशेर ख़ान शानी ने कहानी ‘बोलनेवाले जानवर’ में दो अलग-अलग परिवेश में रहनेवालों की मुलाक़ात कराया है. एक आदिवासी अंचल के भ्रमण पर गईं मिसेज़ जोन्स की टेक लेकर उन्होंने हमारे सभ्य कहे जानेवाले समाज की मानसिकता पर करारा व्यंग्य किया है.

छोटे डोंगर के पास ही सख्त काली चट्टान, नीला आंचल, बर्फ़ सी उजली धारा और कलगी-लगी घास के सब्ज़ बार्डरवाली माड़िन नदी भी नहीं दिखती. नदी, सरसों की पीली चुन्नटवाले खेतों का दामन वहां कहां है बस, एक छोर से दूसरे छोर तक फैली मौन पहाड़ियों ने एक गोल दायरे में हमें बांध-भर लिया है. सामने की पहाड़ी में हरियाले-से फैलाव के बीच उखड़े हुए जंगलों की जगह चमक रही है-शायद वहां किसी दूसरे गांव वालों के कोसरा के खेत होंगे….
मिसेज़ जोन्स शायद पहाड़ी चढ़ते-चढ़ते थकने लगी थीं, मेरे पीछे रह जाने के कारण जानने के बहाने रुककर लौटीं और मेरी ओर देखकर धूप और कुम्हलाहट से पपड़ाए होंठों से मुस्कराकर बोलीं,‘क्या बात है?’
फिर मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही पास आकर रुकीं, चारों ओर निगाहें चलाईं और गर्दन से झूलते बाइनाकुलर को आंखों से लगाकर, जिधर मैं देख रहा था, उधर देखने लगीं.
मिस्टर जोन्स गांव के लोगों से बातें करते हुए बहुत आगे निकल गए थे. हम लोग पीछे रह गए, यह देखकर वह ज़रा रुके और पलटकर आवाज़ दी. आंखों से बाइनाकुलर हटाकर, बड़े ही उत्साहवर्धक लहजे में मिसेज़ जोन्स मुझसे बोलीं,‘थकिए मत, अब सामने ही खेत है.’
और दाहिना हाथ बढ़ाकर मुझे अपने साथ ले लिया.
लेकिन खेत आने में अभी भी देर थी. देखता हूं कि मिस्टर जोन्स की सांस तक अभी नहीं भरी, लेकिन मैं थक रहा हूं और मिसेज़ जोन्स के पांव अब आड़े-टेढ़े पड़ने लगे हैं. धूप की सारी चमक उनके स्कर्ट से अलगी-अलगी साफ़, उजली और गठी हुई पिंडलियों पर लोट रही है. पोनी टेल स्टाइल में बंधे उनके भूरे-भूरे सूखे बाल अधर में टंगे हुए हैं. सफ़ेद नायलॉन की उनकी शर्ट का कलर रह-रहकर गर्दन के पास खुलने और मुड़ने लगता है… मिसेज़ जोन्स गाढ़े नीले रंग के हैड-स्कार्फ़ और अमरीकन पैटर्न के चश्मे में कितनी भली लगती हैं.
सामने बांसों का जंगल दूर-दूर तक चला गया था. उनमें रंग-बिरंगे पंखों वाले जंगली परिंदों की चहचहाहट हम लोगों की आहट सुन थोड़ी देर के लिए थमी और मिसेज़ जोन्स के पहुंचते-न-पहुंचते बांस के नुकीले पत्तों और डगालियों को एकबारगी कंपाती उड़ गई.
आगे खेत था. सरसों की तरह बारीक़ दोनों वाले कोसरा की झुकी-झुकी बालियां ढलान से लेकर पहाड़ी के चढ़ाव तक फैली हुई थीं. जगह-जगह उड़द के सूखे पौधों का ढेर, अधकटे पेड़ों के सिरों पर लदा हुआ था और जिर्रा भाजी के नन्हे पौधों में लगे खट्टे फूलों की सुर्क कलगियां हिल-हिलकर खींचती थीं.
खेत के सिर पर बनी झोंपड़ी के पास पहुंचकर मिस्टर जोन्स रुके और उनके रुकने के साथ ही उनके साथ के एक गांव वाले ने ज़रा आगे बढ़कर जंगल में चारों ओर मुंह करके आवाज़ लगानी शुरू कर दी. आवाज़ सुनसान जंगल में गूंजती हुई पहाड़ियों से टकराई और लौट आई. मिसेज़ जोन्स वहां पहुंचकर शाल के पेड़ की छांव में बैठ गईं और चारों ओर देख, एक तृप्ति का सांस लेती हुई बोलीं,‘आई लव दिस कंट्री!’
उस बात का समर्थन मिस्टर जोन्स ने केवल मुस्कराकर किया और पास खड़े स्कूल मास्टर से पूछने लगे,‘हम लोग तो ठीक अबूझमाड़ में हैं न?’
‘नहीं यह तो छोर का एक गांव है.’
स्कूल मास्टर पिछले आठ-दस बरसों से उस क्षेत्र में रह रहा है. शायद उन लोगों के जीवन को बहुत निकट से जानता है. बहुत-सी बातें बताएगा-इन लोगों की खेती कहां. मैदानी भाग में हल चलाकर खेती करना न तो उन्हें आता है न ही करते हैं. घने से घने जंगल में रहना और ऊंची से ऊंची पहाड़ी में कोसरा बुनना.
पहले पहाड़ी के जंगल जलाकर साफ़ किए जाते हैं फिर कुदाली-फावड़ों से धरती को साफ़ कर कोसरा की खेती कर ली जाती है. अधिक हुआ तो उड़द की दाल. साग के लिए जिर्रा भाजी का खट्टा शोरबा काफ़ी है. आज इस पहाड़ी पर खेती है तो नीचे का आठ झोंपड़ी वाला गांव भी बसा है. दो बरस बाद आकर देखिए तो यह पहाड़ी छोड़ लोग दूसरी जगह चले जाएंगे और यह गांव ख़ाली हो जाएगा. मिसेज़ जोन्स को इन बातों से कोई दिलचस्पी न थी, उकताकर वह उठीं, थोड़ी दूर तक टहलती रहीं फिर आंखों में बाइनाकुलर चढ़ा लिया. थकावट से मेरी टांगें और लपकें दोनों भारी होने लगीं. छांव में बैठा. दरख़्त के तने से टिकटे ही सो जाऊंगा यह डर होते हुए भी अपने को संभाल नहीं पाया. तन-मन दोनों स्वप्निल होने लगे…
थोड़ी देर पहले जब नीचे के गांव में आए तो मिसेज़ जोन्स सबके आगे थीं. उनके स्वभाव में अजीव बात है. मन प्रसन्न होता है, और मूड में होती हैं तो बच्चों सी शरारत और चंचलता उनमें भर जाती है लेकिन किसी बात पर खिन्न होती हैं तो मिस्टर जोन्स भी बातें करने की साहस नहीं कर पाते. दोनों की रुचियों में समानता नहीं. अक्सर मिस्टर जोन्स एड्जस्ट करते दिखाई देते हैं. मिसेज़ जोन्स कलाकार हैं. उन्हें प्रकृति का सौंदर्य चाहिए. सुंदर और सजीव लैंड-स्केप के लिए एक जगह वह कई-कई घंटे बिता देना चाहती थीं, पर उनके मिस्टर की बात और है. अपने देश से इतनी दूर बस्तर की प्रकृति पर मुग्ध होकर-नहीं, एंथ्रापालाजिस्ट की हैसियत से लोगों की और आकर्षित होकर आए थे.
अबूझमाड़ में दोपहर को गांव गांव नहीं, श्मशान हो जाता है. सड़क से कोई तीन मील जंगल में घुसने के बाद एक ऊंची जगह पर चार-आठ झोंपड़ियां दिखीं-यही गांव था. फूस और बांस की कमानियों की सभी झोपड़ियों के सामने केवल एक ही आंगन था जिसके एक ओर लकड़ी की एक डोंगी पड़ी हुई थी. उसके पास ही एक मोटी सूअरनी अपने छह-सात पिल्लों के इर्द-गिर्द गिरी लेटी थी. तीसरी झोंपड़ी के ठीक दरवाज़े के सामने एकदम नंगी और धूल में सनी पांच-सात बरस की दो लड़कियां खेल रही थीं. मिसेज़ जोन्स को दूर से ही देखकर वे एकाएक उठीं और घबराकर एक ओर के जंगल में तेज़ी से घुस गईं. मिसेज़ जोन्स की आंखों में कोई तरल-सी ममता घिर आई. स्नेहिल दृष्टि से बच्चों की ओर ताकते हुए वह मुस्कराईं लेकिन मिसेज़ जोन्स के होंठों के अगले भार में एख कठोर-सा सूखापन घिर आया. निर्विकार स्वर में पूछने लगीं कि वे बच्चे उन्हें देखते ही क्यों भाग खड़े हुए? जवाब में सब केवल हंसने लगे.
लौकी की बेलें सभी झोंपड़ियों पर छाई थीं और पिछले आंगन के मंडप भर में फैली-बिखरी सेम की लताओं में नन्हे और प्यारे बैंगनी फूल सज रहे थे. कुछ दूर पर सलपी का बड़ा पेड़ खड़ा था जिसकी गर्दन में चंगी मटकी में रिसकर रस भर रहा था. उसके पास से ही सरककर सरसों के पीले खेतों का आंचल कोई तोरई के फूल की तरह लहराता था और इन सबकी पृष्ठभूमि में कोहरा-ढंपी नीली-नीली पहाड़ियों का जादू-भरा दायरा…
मिसेज़ जोन्स मोह में भरी खड़ी ह गईं. थोड़ी देर तक मंत्र-मुग्ध सी निहारती रहीं फिर पास के एक टीले पर जा कैमरे का एक स्नेप लेकर, राइटिंग-बोर्ड के एक कागज में पेन से स्केच खींचने लगीं. मिस्टर जोन्स ने कहा,‘पूरा गांव ख़ाली है, सब लोग कहां गए?’
‘दिन में लोग गांव में नहीं मिलते. सुबह होते ही पहाड़ी पर चढ़े जाते हैं और वहां से शाम के पहले नहीं लौटते.’
मिसेज़ जोन्स ने टीले से ही स्केच खींचते-खींचते रुककर पूछा,‘इनके खेत कहां हैं?’
‘पहाड़ी में ही तो खेत होते हैं.’ कहकर स्कूल मास्टर ने सामने की एक पहाड़ी के एक उखड़े हुए भाग की ओर इशारा कर दिया जो वहां से ऐसे दिखता था जैसे ऊंची-ऊंची घास के मैदान के बीच थोड़ी सी जगह किसी ने छील दी हो.
‘चार माह ही जी तोड़कर ये लोग काम करते हैं. बाकी आठ माह पुरुष जंगल-जंगल शिकार करते भटकते हैं और औरतें जंगल में कंद-मूल और महुए के फूल इकट्ठे करती हैं.’
मिसेज़ जोन्स वहां से उठकर एक झोंपड़ी के पास तक उठकर चली गई थीं. दरवाज़े की दराज से भीतर झांकती हुईं अनायास ही पुकार उठीं,‘यह देखो तो क्या है?’
झोंपड़ी के भीतर देखने को क्या था? बाहर खड़े रहकर पहाड़ियों, सलपी के पेड़ और सरसों के पीले खेतों के बैकग्राउंड में फोटो लेना या स्केच खींचना अच्छा लगता है, पर भीतर देखने पर सुंदरता के बदले कुरूपता झांकती है. आदमी आज भी ऐसा जीवन जीता है.
मैंने मिसेज़ जोन्स का साथ दिया. कुछ नहीं, बांस की एक-दो चटाइयां, उन पर एक-दो चिथड़े (शायद वह बिस्तर था), दो-तीन माटी की काली-काली हांडियां, दीवार से लटका एक मांदर (बड़ा ढोल) और कुछ सूखी तूंबियां…
लेकिन मिसेज़ जोन्स कुछ और दिखा रही थीं, जहां चूल्हा था उसके ठीक ऊपर धुएं से अंटा एक बांस छुंचा हुआ था और उसमें मांस की बड़ी-बड़ी बोटियां सूखने के लिए लटक रही थीं.
मैंने कहा,‘यह गाय का मांस है, सुखाया जा रहा है.’
मिसेज़ जोन्स शायद आश्चर्य प्रकट करतीं लेकिन तभी उस मोटी सूअरनी का एक पिल्ला भटककर उनके पास तक आ गया था और उनके लौटते ही तेज़ी से भागा. ख़ुशी से उछलकर उस पिल्ले की ओर देखती हुई बोलीं,‘लुक एट दैट पपी!’
मिसेज़ जोन्स जानवरों को बहुत प्यार करती हैं. जहां भी जाती हैं दो-एक कुत्ते-बिल्ली या बंदर अपने गिर्द ज़रूर समेट लेती हैं. अपने खाने में से भी आधा निकालकर वह उन जानवरों को दे डालती हैं भले ही वह मरियल या बीमार कुत्ते ही क्यों न हों.
जिधर वह पिल्ला भागा था-मिसेज़ जोन्स उधर ललचाई दृष्टि से ताक रही थीं. उनका बस चलता तो दौड़कर उसे पकड़ लेतीं और बड़े प्यार से उसे गोद में बिठाकर चुमकारतीं, सहलातीं और शायद उसके नर्म जिस्म पर अपने गाल तक धर देतीं.
लेकिन मिस्टर जोन्स कह रहे थे कि अब पहाड़ी पर चलना चाहिए. इससे उनके खेतों का देखना तो होगा ही, गांव के सभी लोगों से भेंट भी हो जाएगी. सुनकर वहां से मिसेज़ जोन्स बच्चों की तरह दौड़ी हुई आईं और सबसे आगे अपने के कर, पुलकती हुई बोलीं,‘तो लो, पहाड़ी पर चढ़ने के लिए सबसे पहले मैं तैयार हूं.’
पहाड़ी की चढ़ाई लगभग एक मील की थी. आधा फासला मिसेज़ जोन्स गुनगुनाती हुई तय कर गईं
एंड सम आई नो,
बैक टू हर आई विल गो,
ऑर माई हार्ट इट क्राइज़
फ़ॉर योर लव डार्क आइज़!
बड़े ही सुरीले कंठ से निकला कोई रूसी लोक-गीत, शायद कोई प्रेम का वेदनामय गीत… मेरी बरौनियों की छांह में वह स्वर अपनी सारी कोशिश और मिठास के लिए घुल रहा है…
अकस्मात पास की झाड़ी में सूखे पत्ते तड़-तड़ टूटने लगे, बांस की नुकीली टहनियां थरथराईं, छेदावरी कांटे का नाजुक पौधा कई बार कांपा, जिर्रा के सुर्ख फूल हिले… हिले और एक गेहुंएं रंग की भरपूर जवान औरत बांस की झाड़ी के पास आकर खड़ी हो गई-मांसल और खुली. गर्दन, कांधे, उरोज और नाभि तक अनढपी. कमर के नीचे का कपड़ा केवल बालिश्त-भर के भाग को ही ढंकता था. तभी पटेल आया, गांव के आठ-दस लोग इधर-उधर से सिमटते दिखाई दिए और मिसेज़ जोन्स ने मुझे आवाज़ दी.
कच्चे पपीते के बिखरे बीज धूप में कैसे झलमलाते हैं? शायद बनजामी के दांतों की तरह जब वह गर्दन पीछे डालकर हंसती है… हंसती है और जब हंसी झेल नहीं पाती तो अपने उरोजों पर बांहों की कैंची बनाकर थकी-थकाई-सी बैठ जाती है. खीरे का रंग पकने के बाद बनजामी के जिस्म की तरह ही तो होता है न? ऐसे ही गदराया-गदराया मांस और रस से भरपूर. उसमें नाख़ून गड़ा दो तो क्या ख़ून उछल आएगा? बरगद के छांव की सारी मानता बनजामी ने शायद अपने बालों में समेट ली है. तेल से चमकाकर कितना कस लिया है. उसके लाल मूंगों, कौड़ियों, कककुए और किसी जंगली नीले फूल से सजे और दाहिने कान की तरफ़ झुके टेढ़े जूड़े को देखकर मुझे अनायास ही किसी लोकगीत की पंक्तियां आद आती हैं
कान खाई खोसा नी बांध रानी,
मैं मारोंदे अगनि-बान!
(प्रियतमे, कान पर झुका हुआ टेढ़ा और कामोत्तेजक जूड़ा मत बांध, मुझसे नहीं रहा जाता. कहीं तेरे तीर मुझे घायल न कर दें!)
चील के बादामी फल की तरह भरे पपोटों से निकली पलकें छेदावरी कांटे-सी होती हैं, फिर बनजामी के छेदावरी का एक पौधा अपने कान में क्यों खोंस रखा है? जिर्रा की कोई नस छिटककर उसकी पुतलियों में डोर बन गई है. भारी-भारी देखती हुईं मिस्टर जोन्स, मिसेज़ जोन्स और फिर मेरी पत्तल पर ठहर जाती हैं और उन कांटों से लहू-लुहान करती हुई पूछती हैं,‘और दूं? और दूं?’
मिसेज़ जोन्स कोसरा का रेत मिला भर्ता खा रही हैं-उनसे नहीं खाया जाता. जिर्रा का इतना खट्टा शोरबा भी हलक के नीचे नहीं उतरता. लेकिन मिस्टर जोन्स एंथ्रपालाजिस्ट हैं. इन्हीं आदिम जातियों के बीच रहकर उन्हें काम करना है.
उनका खाना वह सबसे पहले खाने के अभ्यस्त हो जाना चाहते हैं. कोसरा के बारीक़ दानों और रेत के रंगों में अंतर नहीं होता. उन्हें चुनकर अलग-अलग करना कठिन है. रेत समेत चबाने पर भी मिस्टर जोन्स के चेहरे पर शिकन नहीं अलबत्ता मिसेज़ जोन्स बरबस मुस्करा रही हैं.
कुछ देर पहले जब जली हुई अंगीठी के राख फैले ढेर के पास तीन पत्तल बिछे और खाना बन जाने की सूचना के साथ हमें ले चलने के लिए बनजामी निकट आ खड़ी हुई तो मिसेज़ जोन्स ने भरपूर आंखों से बनजामी की ओर देखा और तत्काल ही अपने पर नजरें फिसलाती दूसरी और ताकने लगी. मिसेज़ जोन्स पूरी तरह क्यों नहीं देख पाईं? शायद उन्हें लगा हो कि बनजामी एक जवान लड़की है और इतने सारे पुरुषों के बीच इतने कम कपड़ों में-लगभग-नंगी खड़ी है.
सबने उठकर बनजामी का पीछा किया और राख बिखरी अंगीठी के पास आए. मिसेज़ जोन्स के पूछने पर मैं बताता हूं कि बनजामी पहाड़ी के नीचे वाले गांव की लड़की है. बाप नही है अकेली बूढ़ी मां है अतः खेत का सारा काम अकेले करती है. किसी ने बताया कि बनजामी के लिए ही मारवी परलकोट की पहाड़ियों का सांवला, बलिष्ठ और हंसमुख मारवी क्या हर जगह मिल सकेगा? फिर सात महीने में दिन-रात साथ रहकर भी मारवी बनजामी को जीत क्यों नहीं पा रहा? बनजामी के मन में क्या कोई और है?
अंगीठी तक मारवी भी मेरे साथ आया. देखता हूं कि बनजामी से अधिक संकोच शायद मारवी में है. जब वह निकट होती है तो पलक उठाकर बनजामी की ओर देखते मारवी से नहीं बनता लेकिन जब ज़रा दूर हो जाती है तो एकटक ताकता है. शायद कायर है.
सजे हुए पत्तल के पास पहुंचकर मिसेज़ जोन रुक गईं. अंगीठी के एक ओर बिल्कुल जर्जर बुढ़िया बैठी हुई थी. उसी के पास शायद उसकी बहू थी. तेईस से अधिक की नहीं होगी. एक बच्चा जनकर ही बूढ़ी हो रही थी. याज से उसका दाहिना पांव गल रहा था. अपने बीमार बच्चे का मुंह खुले स्तन में देकर वह वनजामी और स्वस्थ लोगों की ओर कैसी निगाहों से देखती थी?
मिसेज़ जोन्स ने केवल क्षणकाल के लिए उधर देखा फिर अपने पति की ओर शिकायत-भरी आंखों से देखने लगीं,‘यहां कैसे खाया जाएगा?’
खाने के दौरान मारवी को टटोलने के लिए पूछता हूं,‘मारवी, घोटुल जाते हो?’
‘हां’
‘और वनजामी?’
‘वह भी जाती है.’
‘तुम दोनों साथ-साथ नाचते हो?’
‘हां.’
‘घोटुल में वनजामी तुम्हारे साथ सोती है?’
‘नहीं,’ मारवी झेंपकर हंसने लगता है,‘नाचने के बाद घर चली जाती है.’
मैं कहता हूं,‘मारवी, जब तुम वनजामी को इतना प्यार करते हो तो उसे लेकर भाग क्यों नहीं जाते?’
उस बात का जवाब उसके पास नहीं, बस हंसता है.
दोपहर की सांस उखड़ चुकी थी. बदली के एक टुकड़े ने इधर छांह कर दी लेकिन दूसरी तरफ़ की पहाड़ी में फैली रौशनी का आंचल और तेजी से लकलकाने लगा. मेरे बार-बार आग्रह करने पर बड़े ही संकोच-सहित मारवी ने एक गीत गाया लेकिन गीत की पंक्ति सुनकर ही वनजामी उठ कर चल दी.
ताना नारे बेदो इन्दार
किस टोपी अवकोर?
लेयोर जोगी रुपे बापीयो
बिसीर कोडो लादोयो
कारेला कारेलागा
पाउर रूगोय अवकोकोए
तनाय नारे बेदोय
उसाय बेने आका
(वह किस गांव की है जिसका चेहरा आग की तरह दमकता है? उसने जोगी की तरह वेश तो बदल लिया है लेकिन उसका तेज छिपाए नहीं छिपता. उसके मोहाच्छन कर देने वाले करेले के प्यारे-प्यारे फूल. उसका सुंदर मुख यूं दहकता है जैसे सियाड़ी की घनी बेल में फैले हुए नर्म चिकने और कोमल पत्तों पर सूरज की रश्मियां चिलचिलाती हैं. नहीं, उसकी तरह, गांव में और कौन है?)
नीचे उतरने में देर न थी. सारा सामान जो पिछले दो-तीन घंटों से बिखरा हुआ था, समेटा जाने लगा. थोड़ी देर के बाद वहां के हरे-हरे दरख्तों और नीली पहाड़ियों पर सुरमई आंचल डालकर कोई पलकों में खुमारआलूद नशा घोलेगा. उस आंचल को आहिस्ते-आहिस्ते सरकाकर यहीं कहीं से-आंगन में सूखते धान-सा चांद जब अनायास ठिठक जाएगा तो यह पहाड़ी कैसी लगेगी?
सब विदा देने आए-पटेल, मारवी, जर्जर बुढ़िया, खेत में इधर-उधर फैले लोग, याज पीड़ित औरत और उसका बीमार बच्चा लेकिन वनजामी दिखाई न दी. जाते-जाते सब लोगों से घिरकर मुझे अनायास कुछ स्मरण आया, मैंने जोन्स से कहा,‘ये लोग बख्शीश मांगते हैं.’
मिस्टर जोन्स के कुछ कहने से पहले ही मिसेज़ जोन्स ने मेरी ओर आश्चर्य से देखते हुए पूछा,‘किस बात की?’
उस बात का जवाब देना मेरे लिए कठिन हो गया.
मिस्टर जोन्स ने पूछा,‘इन दो-चार रुपयों का ये लोग क्या करेंगे?’
‘सब मिलकर शराब पीएंगे.’ स्कूल मास्टर ने कहा. तत्काल मिसेज़ जोन्स बोलीं,‘यह तो अच्छी बात नहीं,’ उनके होंठों पर वही सूखी कठोरता घिर आई. मुझसे कहने लगीं,‘हमें पैसा देना अखर रहा है, यह बात नहीं. आप ख़ुद सोचिए न, यूं मांगकर पीना और पैसे बरबाद करना क्या अच्छा लगता है?’
मैं कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं. यह सब उन्हें समझा नहीं सकता. सोचता हूं अभी थोड़ी देर पहले मिसेज़ जोन्स इन लोगों की कितनी प्रशंसा कर रही थीं-इनकी सादगी, व्यवहार, भोलापन और मेहमाननवाज़ी की… और अब क्या हो गया?
मिस्टर जोन्स को कुछ न कहकर धीरे से मुस्कराते हुए रुपए निकालते देख उनके होंठों का सूखापन और गहरा हो गया. रुपए लेकर सलाम करते लोगों की ओर एक बार भी देखे या सलाम का जवाब दिए बिना वह तेज़ी से पलटीं और नीचे उतरने लगीं. याज वाली औरत की गोद में बच्चे को देखकर मैं सोचता हूं कि सूअरनी का पिल्ला इस बच्चे से निश्चय ही ख़ूबसूरत होगा नहीं तो मिसेज़ जोन्स इसे प्यार क्यों नहीं करतीं.

Illustrations: Pinterest

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