विज्ञान का एक प्रतिपादित सिद्धांत है,‘‘ऊर्जा का ना तो निर्माण किया जा सकता है और ना ही इसका विनाश। इसे बस सिर्फ़ विभिन्न प्रकारों में रूपांतरित किया जा सकता है।’’ कहने और सुनने के लिए यह भौतिक विज्ञान का सिद्धांत है, किंतु यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
मानव मस्तिष्क लगातार प्रवाहित हो रही ऊर्जा को पकड़ने और उसे विभिन्न सकारात्मक और नकारात्मक रूपों में परिवर्तित करने तथा संप्रेषित करने का साधन है। चलिए शुरुआत सुबह से करते हैं। आप उठते हैं, तरोताज़ा महसूस कर रहे हैं, जीवनसाथी, माता-पिता या बच्चों को मुस्कान के साथ गुड मॉर्निंग, सुप्रभात, हरिओम, सलाम वालेकुम, सत् श्री अकाल या किसी भी सकारात्मक तरीक़े का अभिवादन करते हैं। इससे आप अपने ही नहीं, उनके भी दिन की अच्छी शुरुआत कर सकते हैं। वहीं अगर आप झुंझलाते हुए बिस्तर से उठते हैं और सामने जो दिखता है उसे नज़रअंदाज़ करने या खीझे हुए तरीक़े से देखते हैं तो स्वाभाविक है आप अपनी झुंझलाहट और खीझ उसके अंदर भी ट्रान्सफ़र कर देते हैं। आपका तो पता नहीं, पर उसका दिन शर्तिया ख़राब हो जाएगा। तो आप चाहें न चाहें, आप ऊर्जा का ट्रान्सफ़ार्मर हैं। यह ऊर्जा सकारात्मक हो सकती है और नकारात्मक भी।
करना ही है तो सकारात्मकता संप्रेषित करें
मैं शिक्षक बनने के पहले पंद्रह वर्षों तक पत्रकार के तौर पर काम करता रहा। लोगों से मिलना-जुलना, उनको सुनना, उनके जीवन के बारे में जानना, लिखना मेरा काम था। कई बार कुछ लोगों से मिलकर, उनसे बातचीत करके मन प्रसन्नता से भर जाता। मस्तिष्क ऊर्जा से इतना लबालब हो जाता कि लगता शरीर भी हल्का और पुनर्नवा हो गया है। ऐसे ऊर्जा के स्रोतों से मिलने के बाद हम ख़ुद ऊर्जा संप्रेषित करने लग जाते हैं। वहीं कुछ लोगों से मिलने के बाद दिल बैठ जाता था। उन्होंने भले ही हमारा कोई नुक़सान न किया हो, हमें कोई अपशब्द न कहे हों, पर उनसे आनेवाली नकारात्मक ऊर्जा कहीं न कहीं हमारे अंदर भी नकारात्मकता भरने लगती है। मुझे यक़ीन है, ऐसी दोनों तरह की स्थितियों से आप सभी कभी न कभी ज़रूर दो-चार हुए होंगे।
तो हमें करना क्या चाहिए? हमें सकारात्मक ऊर्जा का ट्रान्सफ़ार्मर बनना चाहिए। सकारात्मकता की चलती-फिरती दुकान। और ऐसा करना बेहद सरल और अत्यंत अल्प अभ्यास से भी संभव है। मसलन आप एक शिक्षक हैं, कक्षा में जाएं तो सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर हो कर जाएं ताकि आपको देखते ही बच्चे सकारात्मक ऊर्जा से भर जाएं। आप बस स्टार्टर का काम कर दें, बच्चे पूरे माहौल में सकारात्मक ऊर्जा भर देंगे। उसके बाद आपकी कक्षा में जो होगा, वह अद्भुत ही होगा। आप लेखक हैं, पत्रकार हैं तो अपने लेखन में कुछ शब्द ऐसे जोड़ दें, जिससे पढ़ने वाला सकारात्मक महसूस करे। आप किसी हेल्पडेस्क या फ्रंट ऑफ़िस में बैठे हैं तो जो आप से होकर गुज़रे उसमें अपनी सच्ची मुस्कान से सकात्मक ऊर्जा प्रवाहित कर दें। जो भी आपके संपर्क में आए, यह आपकी ज़िम्मेदारी बनती है उसे कुछ सकारात्मक और काम का दें। आप देखेंगे जल्द ही आप वह माध्यम बन जाएंगे, जिसके द्वारा सकात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है।
कैसे जगाएं, यह ऊर्जा?
जैसा कि लेख के शुरू में ही बताया गया है कि ऊर्जा का निर्माण नहीं किया जाता, इसे सिर्फ़ रूपांतरित किया जा सकता है। तो इसे जगाने के लिए आपको बहुत कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि इसे महसूस करने और स्वीकार करने की आवश्यकता है। इसका पहला चरण है, हमारे साथ जो कुछ भी हो रहा हो, चाहे अच्छा या बुरा, वैसे अच्छा या बुरा इन शब्दों में चीज़ों को परिभाषित करना उचित तो नहीं है, पर जो भी हो रहा है, वह सब हमारे निर्णयों के चलते हो रहा होता है। तो आप जिस भी स्थिति में ख़ुद को पाते हैं, उस स्थिति को स्वीकार करें। यदि आपको अच्छा लग रहा है तो उसे बनाए रखने के लिए जो भी कर सकते हों करने का प्रयास करें। यदि आपको लगे कि मुझे इस स्थिति से निकलना है तो सकारात्मक प्रयास करें, बिना किसी तरह का रोना रोए। अपनी ओर से चीज़ों को ठीक करने की कोशिश करें। हां, मन की शांति को बनाए रखें, दूसरों के कहे से प्रभावित हुए बिना ऐसा कर पाना कठिन ज़रूर है, पर अभ्यास से संभव अवश्य है। अपने निर्णयों से प्यार करना सीखें। उनके परिणामों की ज़िम्मेदारी को स्वीकार करना शुरू करें। आप पाएंगे कि आपके निर्णय आपको ख़ुशहाली और सकारात्मकता की ओर ले जाएंगे।
पत्रकारिता छोड़कर जब मैंने पढ़ाना शुरू किया तब शुरुआती दिनों में लोगों को यह बताते हुए सहज नहीं रहता था कि मैंने पत्रकारिता छोड़ दी है। जब भी इस संदर्भ में बात निकलती तो कह देता पार्टटाइम पढ़ा रहा हूं, बाक़ी लिखना तो चल ही रहा है। क्या लिख रहा हूं, कितना लिख रहा हूं, यह तो मैं ख़ुद ही जानता था! सो ऐसी हर बातचीत के बाद उदास महसूस करता। दिमाग़ी रूप से थका हुआ, झेंपा हुआ भी। लगता कि निरर्थक काम कर रहा हूं। धीरे-धीरे मैंने यह महसूस करना शुरू किया कि कक्षा में मेरी मौजूदगी से बच्चों को अच्छा लगता है। उनको अच्छा लगता देख, मुझे भी अच्छा लगने लगा। अच्छा लगने का यह भाव मेरे अंदर सकारात्मकता और सार्थकता का भाव जगाने लगा। और मुझे अपने काम से प्यार होने लगा। यही प्यार उस ऊर्जा का स्रोत है, जिसे मैं न केवल महसूस करता हूं, बल्कि यथासंभव संप्रेषित करता हूं।
मुझे यह सोचकर आत्मसंतुष्टि होती है कि जब मैं लिखता था तो यह नहीं जानता था कि कितने लोग उसे देखते हैं, कितने पढ़ेते हैं, और अंततः कितने समझते हैं। पर जब मैं कक्षा में होता हूं तो जानता हूं हर एक बच्चा सुनता है, समझने की कोशिश करता है और कुछ न कुछ सीखकर जाता है और मुझे भी सिखाता है। मैं बच्चों से हमेशा कहता हूं, आए हो तो कुछ लेकर जाओ, देकर जाओ।
जब आप किसी को कॉन्शियस अर्थात सजग हो कर देना चाहते हैं तो उसे अच्छाई ही देंगे। सामनेवाले से अच्छाई की ही सीख लेंगे।
तो यह अब आपको तय करना है कि आप अपनी ऊर्जा को किस रूप में रूपांतरित तथा संप्रेषित करना चाहते हैं?
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