इन दिनों देश में हिंदू और मुस्लिम नागरिकों के बीच एक अनकही-सी दीवार खींची जा रही है. जिसका मक़सद केवल वोट पाना है, लेकिन गांधी का यह देश वैमनस्यता की इन कोशिशों को कामयाब नहीं होने देगा. यही अरमान दिल में लेकर ओए अफ़लातून अपनी नई पहल के साथ हाज़िर है, जिसका नाम है- देश का सितारा. जहां हम आपको अपने देश के उन मुस्लिम नागरिकों से मिलवाएंगे, जिन्होंने हिंदुस्तान का नाम रौशन किया और क्या ख़ूब रौशन किया. इसकी चौथी कड़ी में आप जानिए एयर चीफ़ मार्शल इदरीस हसन लतीफ़ को.
भारतीय वायुसेना के इतिहास में कुछ व्यक्तित्व ऐसे हैं, जिन्होंने अपने साहस, नेतृत्व और देशभक्ति से अमिट छाप छोड़ी है. एयर चीफ़ मार्शल इदरीस हसन लतीफ़ उनमें से एक हैं, जिन्होंने वर्ष 1978 से वर्ष 1981 तक भारतीय वायुसेना के प्रमुख (चीफ़ ऑफ़ एयर स्टाफ़) के रूप में सेवा की. वे इस पद को सुशोभित करने वाले देश के पहले मुस्लिम नागरिक थे. मालूम हो कि स्वतंत्रता मिलने के दौरान इदरीस को भी पाकिस्तान की ओर से उनकी सेना में शामिल होने का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन उन्होंने भारत से अपने प्रेम के चलते, पाकिस्तान जाने से मना कर दिया था. उनके जीवन की कहानी न केवल एक सैनिक की वीरता और समर्पण को दर्शाती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि देशप्रेम धर्म और सीमाओं के बंधन से परे होता है.
जन्म और प्रारंभिक जीवन
इदरीस हसन लतीफ़ का जन्म 9 जून, 1923 को हैदराबाद के एक समृद्ध और शिक्षित सुलैमानी बोहरा मुस्लिम परिवार में हुआ था. उनके पिता, हसन लतीफ़, हैदराबाद रियासत के मुख्य अभियंता थे और उन्होंने लंदन के किंग्स कॉलेज तथा हाइडलबर्ग में शिक्षा प्राप्त की थी. उनकी माता का नाम लैला था. सात भाई-बहनों के बीच पले-बढ़े इदरीस का बचपन सुखद और खेल-कूद से भरा था. उन्होंने हैदराबाद के प्रतिष्ठित निज़ाम कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की, जहां उनकी रुचि खेल और शारीरिक गतिविधियों में थी.
जब इदरीस महज़ 17 वर्ष के थे, तब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था. इदरीस ने भारतीय वायुसेना में शामिल होने का निर्णय लिया. वर्ष 1941 में, 17½ वर्ष की आयु में, उन्होंने रॉयल इंडियन एयर फोर्स (RIAF) में आवेदन किया और चयनित हुए. उनकी प्रारंभिक उड़ान प्रशिक्षण बेगमपेट में हुआ, जिसके बाद वे लाहौर के वाल्टन और अंबाला के एडवांस्ड फ्लाइंग स्कूल में प्रशिक्षण के लिए गए. वर्ष 1942 की 26 जनवरी को उन्हें ऐक्टिंग पायलट ऑफ़िसर के रूप में कमीशन प्राप्त हुआ.
वायुसेना में करियर की शुरुआत
इदरीस लतीफ़ की पहली तैनाती कराची में नंबर 2 कोस्टल डिफ़ेंस फ़्लाइट में हुई, जहां उन्होंने वेस्टलैंड वैपिटी और हॉकर ऑडैक्स जैसे पुराने बाइप्लेन विमानों पर अरब सागर के ऊपर पनडुब्बी-रोधी उड़ानें भरीं. वर्ष 1943 में, उन्हें रॉयल एयर फोर्स (RAF) के साथ प्रशिक्षण के लिए यूनाइटेड किंगडम भेजा गया, जहां उन्होंने हॉकर हरिकेन और स्पिटफ़ायर जैसे उस समय के आधुनिक विमानों पर उड़ान भरी. वर्ष 1944 में भारत लौटने के बाद, वे नंबर 3 स्क्वाड्रन IAF में शामिल हुए और बर्मा अभियान में हिस्सा लिया, जहां उन्होंने अराकान मोर्चे पर जापानी सेना के ख़िलाफ़ उड़ानें भरीं.
वर्ष 1946 में, वे लंदन में विजय परेड में भारतीय दल का हिस्सा थे, जहां उनकी मुलाकात ब्रिटिश शाही परिवार से हुई. भारत के विभाजन के समय, उनके मित्र और सहयोगी, स्क्वाड्रन लीडर असगर खान और फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट नूर खान (जो बाद में पाकिस्तान वायुसेना के प्रमुख बने), ने उन्हें पाकिस्तान वायुसेना में शामिल होने के लिए मनाने की कोशिश की. लेकिन इदरीस ने स्पष्ट रूप से कहा कि उनके लिए धर्म और देश अलग हैं और वे भारत के साथ रहना चाहते हैं. यह निर्णय उनके देशप्रेम और दृढ़ता को दर्शाता है.
वायुसेना में योगदान
इदरीस लतीफ़ का करियर चार दशक लंबा रहा, जिसमें उन्होंने कई महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं. वर्ष 1950 में, स्क्वाड्रन लीडर के रूप में, उन्होंने नंबर 4 स्क्वाड्रन IAF की कमान संभाली. उन्होंने गणतंत्र दिवस की पहली परेड में दिल्ली के ऊपर ऐतिहासिक फ़्लाई-पास्ट का नेतृत्व किया, जिसमें 23 विमान I, A, F अक्षरों की आकृति में उड़े.
वर्ष 1955 में, विंग कमांडर के रूप में, उन्होंने इंडोनेशियाई वायुसेना को वैम्पायर जेट लड़ाकू विमान शामिल करने में सहायता प्रदान की. वर्ष 1957 में, उन्होंने वेलिंगटन के डिफ़ेंस सर्विसेज स्टाफ़ कॉलेज में प्रशिक्षण लिया और बाद में मेंटेनेंस कमांड में सीनियर एयर स्टाफ़ और प्रशासनिक अधिकारी के रूप में सेवा दी. वर्ष 1961 से 1965 तक, वे वाशिंगटन डी.सी. में भारतीय दूतावास में एयर अताशे रहे, साथ ही कनाडा में भी यह ज़िम्मेदारी निभाई. एयर अताशे एक वायु सेना अधिकारी होता है, जो राजनयिक मिशन का हिस्सा है. एयर अताशे आमतौर पर विदेश में अपने देश के वायुसेना के प्रमुख का प्रतिनिधित्व करता है.
वर्ष 1965-66 में, उन्होंने पूर्वी वायु कमांड में एयर डिफ़ेंस कमांडर और सीनियर एयर स्टाफ़ ऑफ़िसर के रूप में सेवा दी. वर्ष 1967 में, वे नेशनल डिफ़ेंस कॉलेज गए. वर्ष 1968 से 1970 तक, उन्होंने पुणे के लोहेगांव एयरबेस की कमान संभाली, जहां उन्होंने लड़ाकू, बमवर्षक और परिवहन विमानों सहित विभिन्न विमानों को उड़ाया. वर्ष 1970 में, उन्हें एयर वाइस मार्शल के पद पर प्रोन्नति दी गई और वे एयर मुख्यालय में पहले सहायक चीफ़ ऑफ़ एयर स्टाफ़ (प्लान्स) बने. वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान, उन्होंने फ्रंटलाइन स्क्वाड्रनों का दौरा कर युद्ध की प्रगति और जरूरतों का आकलन किया. उनकी इस भूमिका के लिए उन्हें वर्ष 1971 में परम विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया गया.
वर्ष 1974 में, एयर मार्शल के रूप में, उन्होंने एयर मुख्यालय में प्रशासन के प्रभारी वायु अधिकारी और सेंट्रल एयर कमांड के कमांडर-इन-चीफ़ के रूप में सेवा दी. वर्ष 1975 में, उनके नेतृत्व में वायुसेना ने पटना बाढ़ के दौरान राहत कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें हेलीकॉप्टर पायलटों ने प्रतिदिन 20 उड़ानें भरीं. वर्ष 1977 में, वे वाइस चीफ़ ऑफ़ एयर स्टाफ़ बने और 1 सितंबर, 1978 को चीफ़ ऑफ़ एयर स्टाफ़ नियुक्त हुए.
आधुनिकीकरण और नेतृत्व
चीफ़ ऑफ़ एयर स्टाफ़ के रूप में, इदरीस लतीफ़ ने भारतीय वायुसेना के आधुनिकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने जगुआर स्ट्राइक विमान, मिग-23 और मिग-25 जैसे आधुनिक विमानों को शामिल करने की प्रक्रिया को तेज़ किया. उनकी दूरदर्शिता और रणनीतिक योजना ने वायुसेना को और सशक्त बनाया. वे हमेशा उड़ान के प्रति उत्साही रहे और अपने कार्यकाल के अंत तक जगुआर, मिग-23, मिग-25 और फ्रांस के मिराज-2000 जैसे विमानों को उड़ाया.
सेवानिवृत्ति के बाद भी रहे देश सेवा में सक्रिय
वर्ष 1981 में वायुसेना से सेवानिवृत्त होने के बाद, इदरीस लतीफ़ ने वर्ष 1982 से वर्ष 1985 तक महाराष्ट्र के गवर्नर के रूप में सेवा दी. उन्होंने गोवा, दमन और दीव, तथा दादरा और नगर हवेली के प्रशासक के रूप में भी अतिरिक्त जिम्मेदारी निभाई. वर्ष 1985 से 1988 तक, वे फ्रांस में भारत के राजदूत रहे. सेवानिवृत्ति के बाद, वे हैदराबाद लौट आए और अपनी पत्नी बिल्कीज़ लतीफ़, जो एक प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और पद्म श्री पुरस्कार विजेता थीं, के साथ सामाजिक कार्यों में लगे रहे.
एयर चीफ़ मार्शल इदरीस हसन लतीफ़ का जीवन साहस, नेतृत्व और देशभक्ति का प्रतीक है. उन्होंने न केवल भारतीय वायुसेना को मजबूत किया, बल्कि अपने निर्णयों और कार्यों से यह भी साबित किया कि देशप्रेम किसी धर्म या सीमा से बंधा नहीं होता. विश्व युद्ध, भारत-पाक युद्ध, और बाढ़ राहत कार्यों में उनकी भूमिका ने उन्हें एक सच्चा नायक बनाया. उनकी मृत्यु 30 अप्रैल, 2018 को 94 वर्ष की आयु में हुई, लेकिन उनकी विरासत भारतीय वायुसेना और देशवासियों के दिलों में हमेशा जीवित रहेगी.