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कालू भंगी: कहानी, जो कहानी तो नहीं है (लेखक: कृष्ण चंदर)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
October 5, 2021
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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कालू भंगी: कहानी, जो कहानी तो नहीं है (लेखक: कृष्ण चंदर)
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कहानियां भी अपने किरदारों के कुछ पैमाने तय करती हैं, उर्दू में लिखनेवाले कहानीकार कृष्ण चंदर ने कालू भंगी नामक एक कहानी में इस विडंबना को दिल को छील देनेवाले व्यंग्यों के ज़रिए बयां किया है. वे बताते हैं, उन्हें कालू भंगी के बारे में लिखने में इतनी मुश्क़िल क्यों हुई? उसकी कहानी शुरू करने में उन्होंने रुचि क्यों नहीं ली? यह बताते हुए वे कालू भंगी का पूरा चित्र हमारे सामने पेश कर देते हैं.

मैंने इससे पहले हज़ार बार कालू भंगी के बारे में लिखना चाहा है लेकिन मेरा क़लम हर बार ये सोच कर रुक गया है कि कालू भंगी के मुताल्लिक़ लिखा ही क्या जा सकता है. मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से मैंने उसकी ज़िंदगी को देखने, परखने, समझने की कोशिश की है, लेकिन कहीं वो टेढ़ी लकीर दिखाई नहीं देती, जिससे दिलचस्प अफ़साना मुरत्तिब हो सकता है. दिलचस्प होना तो दरकिनार कोई सीधा सादा अफ़साना, बे-कैफ़ ओ बे-रंग, बे-जान मुरक़्क़ा भी तो नहीं लिखा जा सकता है. कालू भंगी के मुताल्लिक़, फिर ना जाने क्या बात है, हर अफ़साने के शुरू में मेरे ज़हन में कालू भंगी आन खड़ा होता है और मुझसे मुस्कुरा कर पूछता है,“छोटे साहब मुझ पर कहानी नहीं लिखोगे? कितने साल हो गए तुम्हें लिखते हुए?”
“आठ साल”
“कितनी कहानियां लिखीं तुमने?”
“साठ और दो बासठ.”
“मुझमें क्या बुराई है छोटे साहब. तुम मेरे मुताल्लिक़ क्यों नहीं लिखते? देखो कब से मैं इस कहानी के इंतिज़ार में खड़ा हूं. तुम्हारे ज़हन के एक कोने में मुद्दत से हाथ बांधे खड़ा हूं, छोटे साहब, में तो तुम्हारा पुराना हलालख़ोर हूं, कालू भंगी, आख़िर तुम मेरे मुताल्लिक़ क्यों नहीं लिखते?”
और मैं कुछ जवाब नहीं दे सकता. इस क़दर सीधी सपाट ज़िंदगी रही है कालू भंगी की कि मैं कुछ भी तो नहीं लिख सकता उसके मुताल्लिक़. ये नहीं कि मैं उसके बारे में कुछ लिखना नहीं चाहता, दरअस्ल मैं कालू भंगी के मुताल्लिक़ लिखने का इरादा एक मुद्दत से कर रहा हूं, लेकिन कभी लिख नहीं सका, हज़ार कोशिश के बावजूद नहीं लिख सका, इसलिए आज तक कालू भंगी अपनी पुरानी झाड़ू लिए, अपने बड़े-बड़े नंगे घुटने लिए, अपने फटे-फटे खुरदुरे बद हैबत पांव लिए, अपनी सूखी टांगों पर उभरी दरारें लिए, अपने कूल्हों की उभरी उभरी हड्डियां लिए, अपने भूके पेट और उसकी ख़ुश्क जिल्द की स्याह सिलवटें लिए, अपने मुरझाए हुए सीने पर गर्द-आलूद बालों की झाड़ियां लिए, अपने सिकुड़े-सिकुड़े होंटों, फैले-फैले नथुनों, झुर्रियों वाले गाल और अपनी आंखों के नीम-तारीक गड्ढों के ऊपर नंगी चंदिया उभारे मेरे ज़हन के कोने में खड़ा है.
अब तक कई किरदार आए और अपनी ज़िंदगी बता कर, अपनी एहमियत जता कर, अपनी ड्रामाईयत ज़हन नशीन कराके चले गए. हसीन औरतें, ख़ूबसूरत तख़य्युली हयूले, उसकी चार-दीवारी में अपने दिए जला कर चले गए, लेकिन कालू भंगी बदस्तूर अपनी झाड़ू संभाले इसी तरह खड़ा है. उसने इस घर के अंदर आने वाले हर किरदार को देखा है, उसे रोते हुए गिड़गिड़ाते हुए, मुहब्बत करते हुए नफ़रत करते हुए, सोते हुए, जागते हुए, क़हक़हे लगाते हुए, तक़रीर करते हुए, ज़िंदगी के हर रंग में, हर नहज से हर मंज़िल में देखा है, बचपन से बुढ़ापे से मौत तक, उसने हर अजनबी को इस घर के दरवाज़े के अंदर झांकते देखा है और उसे अंदर आते हुए देखकर उसके लिए रास्ता साफ़ कर दिया है. वो ख़ुद परे हट गया है एक भंगी की तरह हट कर खड़ा हो गया है, हत्ता ये कि दास्तान शुरू हो कर ख़त्म भी हो गई है, हत्ता ये कि किरदार और तमाशाई दोनों रुख़स्त हो गए हैं, लेकिन कालू भंगी उसके बाद भी वहीं खड़ा है. अब सिर्फ़ एक क़दम उसने आगे बढ़ा लिया है, और ज़हन के मर्कज़ में आ गया है, ताकि मैं उसे अच्छी तरह देख लूं. उसकी नंगी चन्दिया चमक रही है और होंटों पर एक ख़ामोश सवाल है, एक अर्से से मैं उसे देख रहा हूं, समझ में नहीं आता क्या लिखूंगा उसके बारे में, लेकिन आज ये भूत ऐसे मानेगा नहीं, उसे कई सालों तक टाला है, आज उसे भी अल-विदा कह दें.

मैं सात बरस का था जब मैंने कालू भंगी को पहली बार देखा. उसके बीस बरस बाद जब वो मेरा, मैंने उसे उसी हालत में देखा. कोई फ़र्क़ ना था, वही घुटने, वही पांव, वही रंगत, वही चेहरा, वही चन्दिया, वही टूटे हुए दांत, वही झाड़ू जो ऐसा मालूम होता था. मां के पेट से उठा चला आ रहा है. कालू भंगी की झाड़ू उसके जिस्म का एक हिस्सा मालूम होती थी, वो हर-रोज़ मरीज़ों का बोल-ओ-बराज़ साफ़ करता था. डिस्पेंसरी में फ़िनायल छिड़कता था, फिर डॉक्टर साहब और कम्पाउन्डर साहब के बंगलों में सफ़ाई का काम करता था, कम्पाउन्डर साहब की बकरी और डॉक्टर साहब की गाय को चराने के लिए जंगल में ले जाता, और दिन ढलते ही उन्हें वापस हस्पताल में ले आता और मवेशी ख़ाने में बांध कर अपना खाना तैयार करता और उसे खा कर सो जाता. बीस साल से उसे मैं यही काम करते हुए देख रहा था. हर-रोज़, बिला नाग़ा उस अर्से में वो कभी एक दिन के लिए भी बीमार नहीं हुआ. ये अम्र ताज्जुबख़ेज़ ज़रूर था, लेकिन इतना भी नहीं कि महज़ इसी के लिए एक कहानी लिखी जाए, ख़ैर ये कहानी तो ज़बरदस्ती लिखवाई जा रही है. आठ साल से मैं उसे टालता आया हूं, लेकिन ये शख़्स नहीं माना. ज़बरदस्ती से काम ले रहा है ये ज़ुल्म मुझ पर भी है और आप पर भी.
मुझ पर इसलिए कि मुझे लिखना पड़ रहा है, आप पर इसलिए कि आपको उसे पढ़ना पड़ रहा है. हालांकि इसमें कोई ऐसी बात नहीं जिसके लिए उसके मुताल्लिक़ इतनी सिरदर्दी मोल ली जाए, मगर क्या किया जाए कालू भंगी की ख़ामोश निगाहों के अंदर इक ऐसी खिंची-खिंची सी मिल्तज्याना काविश है, इक ऐसी मजबूर बे-ज़बां है, इक ऐसी महबूस गहराई है कि मुझे उसके मुताल्लिक़ लिखना पड़ रहा है और लिखते-लिखते ये भी सोचता हूं कि उसकी ज़िंदगी के मुताल्लिक़ क्या लिखूंगा मैं.
कोई पहलू भी तो ऐसा नहीं जो दिलचस्प हो, कोई कोना ऐसा नहीं जो तारीक हो, कोई ज़ाविया ऐसा नहीं जो मक़नातीसी कशिश का हामिल हो, हां आठ साल से मुतवातिर मेरे ज़हन में खड़ा है ना जाने क्यों. उसमें इसकी हट-धर्मी के सिवा और तो मुझे कुछ नज़र नहीं आता. जब मैंने आंगी के अफ़साने में चांदनी के खलियान सजाए थे और यरक़ानियत के रूमानी नज़रिए से दुनिया को देखा था. उस वक़्त भी ये वहीं खड़ा था जब मैंने रूमानियत से आगे सफ़र इख़्तियार किया और हुस्न और हैवान की बूक़लमूं कैफ़ियतें देखता हुआ टूटे हुए तारों को छूने लगा उस वक़्त भी ये वहीं था. जब मैंने बालकोनी से झांक कर अन्न-दाताओं की ग़ुर्बत देखी, और पंजाब की सर-ज़मीन पर ख़ून की नदियां बहती देखकर अपने वहशी होने का इल्म हासिल किया उस वक़्त भी ये वहीं मेरे ज़हन के दरवाज़े पर खड़ा था… गुम-सुम… मगर अब ये जाएगा ज़रूर. अब के उसे जाना ही पड़ेगा, अब मैं उसके बारे में लिख रहा हूं. लिल्लाह उस की बे-कैफ़, बेरंग, फीकी-सीठी कहानी भी सुन लीजिए ताकि ये यहां से दूर दफ़ान हो जाए, और मुझे उसके ग़लीज़ क़ुर्ब से निजात मिले, और अगर आज भी मैंने उसके बारे में ना लिखा, और आपने उसे पढ़ा तो ये आठ साल बाद भी यहीं जमा रहेगा और मुम्किन है ज़िंदगी-भर यहीं खड़ा रहे.
लेकिन परेशानी तो ये है कि उसके बारे में क्या लिखा जा सकता है. कालू भंगी के मां बाप भंगी थे, और जहां तक मेरा ख़्याल है उसके सारे आबा-ओ-अजदाद भंगी थे और सैकड़ों बरस से यहीं रहते चले आए थे. इसी तरह, इसी हालत में, फिर कालू भंगी ने शादी ना की थी, उसने कभी इश्क़ न किया था, उसने कभी दूर दराज़ का सफ़र नहीं किया था, हद तो ये है कि वो कभी अपने गांव से बाहर नहीं गया था, वो दिन-भर अपना काम करता और रात को सो जाता. और सुबह उठ कर फिर अपने काम में मसरूफ़ हो जाता बचपन ही से वो इसी तरह करता चला आया था.

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हां कालू भंगी में एक बात ज़रूर दिलचस्प थी. और वो ये कि उसे अपनी नंगी चन्दिया पर किसी जानवर, मसलन गाय या भैंस की ज़बान फिराए से बड़ा लुत्फ़ हासिल होता था. अक्सर दोपहर के वक़्त मैंने उसे देखा है कि नीले आसमान तले, सब्ज़ घास के मख़मलीं फ़र्श पर खुली धूप में वो हस्पताल के क़रीब एक खेत की मेंढ़ पर उकड़ूं बैठा है, और गाय उसका सर चाट रही है. बार-बार, और वो वहीं अपना सर चटवाता-चटवाता ऊंघ-ऊंघ कर सो गया है, उसे इस तरह सोते देखकर मेरे दिल में मुसर्रत का एक अजीब सा एहसास उजागर होने लगता था. और कायनात के थके-थके ग़ुनूदगी आमेज़ आफ़ाक़ी हुस्न का गुमां होने लगता था. मैंने अपनी छोटी सी ज़िंदगी में दुनिया की हसीन तरीन औरतें, फूलों के ताज़ा-तरीन ग़ुंचे, कायनात के ख़ूबसूरत तरीन मनाज़िर देखे हैं लेकिन ना जाने क्यों ऐसी मासूमियत, ऐसा हुस्न, ऐसा सुकून किसी नज़र में नहीं देखा जितना उस नज़र में कि जब मैं सात बरस का था. वो खेत बहुत बड़ा और वसीअ दिखाई देता था और आसमान बहुत नीला और साफ़, और कालू भंगी की चन्दिया शीशे की तरह चमकती थी, और गाय की ज़बान आहिस्ता-आहिस्ता उसकी चन्दिया चाटती हुई. उसे गोया सहलाती हुई कसर-कसर की ख़्वाबीदा आवाज़ पैदा करती जाती थी. जी चाहता था मैं भी इसी तरह अपना सर झुका के इस गाय के नीचे बैठ जाऊं और ऊंघता-ऊंघता सो जाऊं. एक दफ़ा मैंने ऐसा करने की कोशिश भी की तो वालिद साहब ने मुझे वो पीटा वो पीटा, और मुझसे ज़्यादा ग़रीब कालू भंगी को वो पीटा कि मैं ख़ुद डर के मारे चीख़ने लगा कि कालू भंगी कहीं उनकी ठोकरों से मर ना जाए. लेकिन कालू भंगी को इतनी मार ख़ाके भी कुछ ना हुआ, दूसरे रोज़ वो बदस्तूर झाड़ू देने के लिए हमारे बंगले में मौजूद था.
कालू भंगी को जानवरों से बड़ा लगाव था. हमारी गाय तो उस पर जान छिड़कती थी और कम्पाउन्डर साहब की बकरी भी, हालांकि बकरी बड़ी बेवफ़ा होती है, औरत से भी बढ़के, लेकिन कालू भंगी की बात और थी, उन दोनों जानवरों को पानी पिलाए तो कालू भंगी, चारा खिलाए तो कालू भंगी, जंगल में चराए तो कालू भंगी, और रात को मवेशी ख़ाने में बांधे तो कालू भंगी, वो उसके एक-एक इशारे को इस तरह समझ जातीं जिस तरह कोई इन्सान किसी इन्सान के बच्चे की बातें समझता है मैं कई बार कालू भंगी के पीछे गया हूं, जंगल में रास्ते में वो उन्हें बिल्कुल खुला छोड़ देता है, लेकिन फिर भी गाय और बकरी दोनों उसके साथ क़दम से क़दम मिलाए चले आतीं थीं, गोया तीन दोस्त सैर करने निकले हैं, रास्ते में गाय ने सब्ज़ घास देखकर मुंह मारा तो बकरी भी झाड़ी से पत्तियां खाने लगती और कालू भंगी है कि संभ्लवे तोड़-तोड़ के खा रहा है. बकरी के मुंह में डाल रहा है और ख़ुद भी खा रहा है, और आप बातें कर रहा है और उनसे भी बराबर बातें किए जा रहा है. वो दोनों जानवर भी कभी ग़ुर्रा कर, कभी कान फट-फटा कर, कभी पांव हिलाकर, कभी दुम दबा कर, कभी नाच कर, कभी गा कर, हर तरह से उसकी गुफ़्तगू में शरीक हो रहे हैं.
अपनी समझ में तो कुछ नहीं आता था कि ये लोग क्या बातें करते थे फिर चंद लम्हों के बाद कालू भंगी आगे चलने लगता तो गाय भी चरना छोड़ देती और बकरी भी झाड़ी से परे हट जाती और कालू भंगी के साथ-साथ चलने लगती. आगे कहीं छोटी सी नदी आती या कोई नन्हा-नन्हा चश्मा तो कालू भंगी वहीं बैठ जाता बल्कि लेट कर वहीं चश्मे की सतह से अपने होंट मिला देता और जानवरों की तरह पानी पीने लगता, और इसी तरह वो दोनों जानवर भी पानी पीने लगते, क्योंकि बेचारे इन्सान तो नहीं थे कि ओक से पी सकते. उसके बाद अगर कालू भंगी सब्ज़े पर लेट जाता तो बकरी भी उसकी टांगों के पास अपनी टांगें सुकेड़ कर, दुआइया अंदाज़ में बैठ जाती और गाय तो इस अंदाज़ से उसके क़रीब हो बैठती कि मुझे ऐसा मालूम होता कि वो कालू भंगी की बीवी है और अभी-अभी खाना पका के फ़ारिग़ हुई है उसकी हर निगाह में और चेहरे के हर उतार चढ़ाओं में इक सुकून आमेज़ गृहस्ती अंदाज़ झलकने लगता, और जब वो जुगाली करने लगती तो मुझे मालूम होता गोया कोई बड़ी सुघड़ बीवी क्रोशिया लिए सूज़न-कारी में मसरूफ़ है और कालू भंगी के लिये स्वेटर बुन रही है.
इस गाय और बकरी के इलावा एक लंगड़ा कुत्ता था, जो कालू भंगी का बड़ा दोस्त था. वो लंगड़ा था और इसलिए दूसरे कुत्तों के साथ ज़्यादा वो चल फिर ना सकता था और अक्सर अपने लंगड़े होने की वजह से दूसरे कुत्तों से पिटता और भूका रहता और ज़ख़्मी रहता. कालू भंगी अक्सर उस की तीमार-दारी और ख़ातिर-ओ-तवाज़ो में लगा रहता. कभी तो साबुन से उसे नहलाता, कभी उसकी चीचड़ियां दूर करता, उसके ज़ख़्मों पर मरहम लगाता, उसे मक्की की रोटी का सूखा टुकड़ा देता लेकिन ये कुत्ता बड़ा ख़ुद-ग़र्ज़ जानवर था. दिन में सिर्फ़ दो मर्तबा कालू भंगी से मिलता, दोपहर को और शाम को, और खाना ख़ाके और ज़ख़्मों पर मरहम लगवा के फिर घूमने के लिए चला जाता. कालू भंगी और इस लंगड़े कुत्ते की मुलाक़ात बड़ी मुख़्तसर होती थी, और बड़ी दिलचस्प, मुझे तो वो कुत्ता एक आंख ना भाता था लेकिन कालू भंगी उसे हमेशा बड़े तपाक से मिलता था.
इसके इलावा कालू भंगी की जंगल के हर जानवर चरिंद और परिंद से शनासाई थी रास्ते में उसके पांव में कोई कीड़ा आ जाता तो वो उसे उठा कर झाड़ी पर रख देता, कहीं कोई नेवला बोलने लगता तो ये उसकी बोली में उसका जवाब देता. तीतर, रट गल्ला, गटारी, लाल चिड़ा, सब्ज मक्खी, हर परिंदे की ज़बान वो जानता था. इस लिहाज़ से वो राहुल शंकर तामीन से भी बड़ा पण्डित था. कम-अज़-कम मेरे जैसे सात बरस के बच्चे की नज़रों में तो वो मुझे अपने मां-बाप से भी अच्छा मालूम होता था. और फिर वो मक्की का भुट्टा ऐसे मज़े का तैयार करता था, और आग पर उसे इस तरह मद्धम आंच में भूनता था कि मक्की का हर दाना कुन्दन बन जाता और ज़ायक़े में शहद का मज़ा देता, और ख़ुश्बू भी ऐसी सोंधी-सोंधी, मीठी-मीठी, जैसे धरती की सांस.
निहायत आहिस्ता-आहिस्ता बड़े सुकून से, बड़ी मश्शाक़ी से वो भुट्टे को हर तरफ़ से देख देखकर उसे भूनता था, जैसे वो बरसों से इस भुट्टे को जानता था. एक दोस्त की तरह वो भुट्टे से बातें करता, उतनी नरमी और मेहरबानी और शफ़क़त से उससे पेश आता गोया वो भुट्टा उसका अपना रिश्तेदार या सगा भाई था. और लोग भी भुट्टा भूनते थे मगर वो बात कहां. इस क़दर कच्चे बद-ज़ाइक़ा और मामूली से भुट्टे होते थे वो कि उन्हें बस मक्की का भुट्टा ही कहा जा सकता है लेकिन कालू भंगी के हाथों में पहुंच के वही भुट्टा कुछ का कुछ हो जाता और जब वो आग पर सिंक के बिलकुल तैयार हो जाता तो बिलकुल इक नई-नवेली दुल्हन की तरह उरूसी लिबास पहने सुनहरा-सुनहरा नज़र आता. मेरे ख़्याल मैं ख़ुद भुट्टे को ये अंदाज़ा हो जाता था कि कालू उससे कितनी मुहब्बत करता है वर्ना मुहब्बत के बग़ैर उस बे-जान शैय में इतनी रानाई कैसे पैदा हो सकती थी. मुझे कालू भंगी के हाथ के सेंके हुए भुट्टे खाने में बड़ा मज़ा आता था, और में उन्हें बड़े मज़े में छुप-छुप के खाता था. एक दफ़ा पकड़ा गया तो बड़ी ठुकाई हुई, बुरी तरह, बेचारा कालू भंगी भी पिटा मगर दूसरे दिन वो फिर बंगले पर झाड़ू लिए उसी तरह हाज़िर था.

और बस कालू भंगी के मुताल्लिक़ और कोई दिलचस्प बात याद नहीं आ रही. मैं बचपन से जवानी में आया और कालू भंगी इसी तरह रहा. मेरे लिए अब वो कम दिलचस्प हो गया था. बल्कि यूं कहीए कि मुझे अब उससे किसी तरह की दिलचस्पी न रही थी. हां कभी-कभी उसका किरदार मुझा अपनी तरफ़ खींचता. ये उन दिनों की बात है जब मैंने नया-नया लिखना शुरू किया था मैं मुतालए के लिए उससे सवाल पूछता और नोट लेने के लिए फ़ाउंटेन पेन और पैड साथ रख लेता.
“कालू भंगी तुम्हारी ज़िंदगी में कोई ख़ास बात है?”
“कैसी छोटे साहब?”
“कोई ख़ास बात, अजीब, अनोखी, नई”
“नहीं छोटे साहब” (यहां तक तो मुशाहिदा सिफ़र रहा. अब आगे चलिए…)
“अच्छा तुम ये बताओ तुम तनख़्वाह लेकर क्या करते हो?” हमने दूसरा सवाल पूछा.
“तनख़्वाह लेकर क्या करता हो…” वो सोचने लगा. “आठ रुपए मिलते हैं मुझे” फिर वो उंगलियों पर गिनने लगता “चार रुपए का आटा लाता हूं, एक रुपए का नमक, एक रुपए का तंबाकू, आठ आने की चाय, चार आने का गुड़, चार आने का मसाला, कितने रुपए हो गए छोटे साहब?”
“सात रुपए”
“हां सात रुपए. हर महीने एक रुपया बनिए को देता हूं. उससे कपड़े सिलवाने के लिए रुपए कर्ज़ लेता हूं ना, साल में दो जोड़े तो चाहिए, कम्बल तो मेरे पास है, ख़ैर, लेकिन दो जोड़े तो चाहिए, और छोटे साहब, कहीं बड़े साहब एक रुपया तनख़्वाह में बढ़ा दें तो मज़ा आ जाए.”
“वो कैसे”
“घी लाऊंगा एक रुपए का, और मक्की के पराठे खाऊंगा कभी पराठे नहीं खाए मालिक, बड़ा जी चाहता है?”
अब बोलिए इन आठ रूपयों पर कोई क्या अफ़साना लिखे?

फिर जब मेरी शादी हो गई, जब रातें जवान और चमकदार होने लगतीं और क़ुरीब के जंगल से शहद और कस्तूरी और जंगली गुलाब की ख़ुशबूएं आने लगतीं और हिरन चौकड़ीयां भरते हुए दिखाई देते और तारे झुकते-झुकते कानों में सरगोशियां करने लगते और किसी के रसीले होंट आने वाले बोसों का ख़्याल करके कांपने लगते, उस वक़्त भी मैं कालू भंगी के मुताल्लिक़ कुछ लिखना चाहता और पेंसिल, काग़ज़ ले के उसके पास जाता.
“कालू भंगी तुमने ब्याह नहीं किया?”
“नहीं छोटे साहब.”
“क्यों?”
“इस इलाक़े में मैं ही एक भंगी हूं. और दूर-दूर तक कोई भंगी नहीं है छोटे साहब. फिर हमारी शादी कैसे हो सकती है!” (लीजिए ये रास्ता भी बंद हुआ)
“तुम्हारा जी नहीं चाहता कालू भंगी?” मैंने दुबारा कोशिश कर के कुछ कुरेदना चाहा…
“क्या साहब?”
“इश्क़ करने के लिए जी चाहता है तुम्हारा? शायद किसी से मुहब्बत की होगी तुमने, जभी तुमने अब तक शादी नहीं की.”
“इश्क़ क्या होता है छोटे साहब?”
“औरत से इश्क़ करते हैं लोग.”
“इश्क़ कैसे करते हैं साहब? शादी तो ज़रूर करते हैं सब लोग, बड़े लोग इश्क़ भी करते होंगे छोटे साहब. मगर हमने नहीं सुना वो जो कुछ आप कह रहे हैं. रही शादी की बात, वो मैंने आपको बता दी, शादी क्यों नहीं की मैंने, कैसे होती शादी मेरी, आप बताइए?” (हम क्या बताएं ख़ाक…)
“तुम्हें अफ़सोस नहीं कालू भंगी?”
“किस बात का अफ़सोस छोटे साहब?”
मैंने हार कर उसके मुताल्लिक़ लिखने का ख़्याल छोड़ दिया.

आठ साल हुए कालू भंगी मर गया. वो जो कभी बीमार नहीं हुआ था अचानक ऐसा बीमार पड़ा कि फिर कभी बिस्तर-ए-अलालत से ना उठा, उसे हस्पताल में मरीज़ रखवा दिया था. वो अलग वॉर्ड में रहता था, कम्पाउन्डर दूर से उसके हल्क़ में दवा उंडेल देता. और एक चपरासी उसके लिए खाना रख आता, वो अपने बर्तन ख़ुद साफ़ करता, अपना बिस्तर ख़ुद साफ़ करता, अपना बोल-ओ-बराज़ ख़ुद साफ़ करता. और जब वो मर गया तो उसकी लाश को पुलिस वालों ने ठिकाने लगा दिया. क्योंकि उसका कोई वारिस ना था, वो हमारे हां बीस साल से रहता था, लेकिन हम कोई उसके रिश्ते दार थोड़ी थे, इसलिए उसकी आख़िरी तनख़्वाह भी ब-हक़-ए-सरकार ज़ब्त हो गई, क्योंकि उसका वारिस ना था. और जब वो मरा उस रोज़ भी कोई ख़ास बात ना हुई. रोज़ की तरह उस रोज़ भी हस्पताल खुला, डॉक्टर साहब ने नुस्खे़ लिखे, कम्पाउन्डर ने तैयार किए, मरीज़ों ने दवा ली और घर लौट गए. फिर रोज़ की तरह हस्पताल भी बंद हुआ और घर आकर हम सबने आराम से खाना खाया, रेडियो सुना, और लिहाफ़ ओढ़ कर सो गए. सुबह उठे तो पता चला कि पुलिस वालों ने अज़-राह-ए-करम कालू भंगी की लाश ठिकाने लगवा दी. अलबत्ता डॉक्टर साहब की गाय ने और कम्पाउन्डर साहब की बकरी ने दो रोज़ तक कुछ ना खाया ना पिया, और वॉर्ड के बाहर खड़े-खड़े बेकार चिल्लाती रहीं, जानवरों की ज़ात है ना आख़िर.
अरे तू फिर झाड़ू देकर आन पहुंचा आख़िर क्या चाहता है? बता रे.
कालू भंगी अभी तक वहीं खड़ा है.

क्यों भई, अब तो मैंने सब कुछ लिख दिया, वो सब कुछ जो मैं तुम्हारी बाबत जानता हूं, अब भी यहीं खड़े हो, परेशान कर रहे हो, लिल्लाह चले जाओ, क्या मुझसे कुछ छूट गया है, कोई भूल हो गई है? तुम्हारा नाम, कालू भंगी… काम, भंगी, इस इलाक़े से कभी बाहर नहीं गए, शादी नहीं की, इश्क़ नहीं लड़ाया, ज़िंदगी में कोई हंगामी बात नहीं हुई, कोई अचम्भा, मोजिज़ा नहीं हुआ, जैसे महबूबा के होंटों में होता है, अपने बच्चे के प्यार में होता है, ग़ालिब के कलाम में होता है, कुछ भी तो नहीं हुआ तुम्हारी ज़िंदगी में, फिर मैं क्या लिखूं, और क्या लिखूं? तुम्हारी तनख़्वाह आठ रुपए, चार रुपए का आटा, एक रुपए का नमक, एक रुपए का तंबाकू, आठ आने की चाय, चार आने का गुड़, चार आने का मसाला, सात रुपए, और एक रुपया बनीए का, आठ रुपए हो गए, मगर आठ रुपए में कहानी नहीं होती, आजकल तो पच्चीस, पचास, सौ में नहीं होती, मगर आठ रुपए में तो शर्तिया कोई कहानी नहीं हो सकती, फिर मैं क्या लिख सकता हूं तुम्हारे बारे में.

अब ख़िलजी ही को ले लो, हस्पताल में कम्पाउन्डर है. बत्तीस रुपए तनख़्वाह पाता है, विरासत से निचले मुतवस्सित तबक़े के मां-बाप मिले थे, जिन्होंने मिडल तक पढ़ा दिया, फिर ख़िलजी ने कम्पाउन्डर का इम्तिहान पास कर लिया, वो जवान है, उसके चेहरे पर रंगत है, ये जवानी ये रंगत कुछ चाहती है, वो सफ़ेद लट्ठे की शलवार पहन सकता है, क़मीस पर कलफ़ लगा सकता है, बालों में ख़ुश्बूदार तेल लगा कर कंघी कर सकता है, सरकार ने उसे रहने के लिए एक छोटा सा बंगला नुमा क्वाॉर्टर भी दे रखा है, डॉक्टर चूक जाए तो फ़ीस भी झाड़ लेता है. और ख़ूबसूरत मरीज़ाओं से इश्क़ भी कर लेता है, वो नूरां और ख़िलजी का वाक़िया तुम्हें याद होगा, नूरां भतिया से आई थी, सोलह-सतरह बरस की अल्हड़ जवानी, चार कोस से सिनेमा के रंगीन इश्तिहार की तरह नज़र आ जाती थी. बड़ी बेवक़ूफ़ थी वो अपने गांव के दो नौजवानों का इश्क़ क़ुबूल किए बैठी थी. जब नंबरदार का लड़का सामने आ जाता तो उसकी हो जाती और जब पटवारी का लड़का दिखाई देता तो उसका दिल उसकी तरफ़ माइल होने लगता और वो कोई फ़ैसला ही नहीं कर सकती थी. बिल-उमूम इश्क़ को लोग एक बिलकुल वाज़ेह, क़ाते’अ, यक़ीनी अम्र समझते हैं. दर हाल ये के ये इश्क़ अक्सर बड़ा मुत्ज़बज़ुब, ग़ैर यक़ीनी, गो-म-गो हालत का हामिल होता है, यानी इश्क़ इससे भी है और इससे भी है, और फिर शायद कहीं नहीं है और है भी. तो इस क़दर वक़्ती, गिरगिटी हंगामे, कि इधर नज़र चूकी उधर इश्क़ ग़ायब, सच्चाई ज़रूर होती है, लेकिन अबदीयत मफ़क़ूद होती है.
इसीलिए तो नूरां कोई फ़ैसला नहीं कर पाती थी. उसका दिल नंबरदार के बेटे के लिए भी धड़कता था और पटवारी के पूत के लिए भी, उसके होंट नंबरदार के बेटे के होंटों से मिल जाने के लिए बेताब हो उठते और पटवारी के पूत की आंखों में आंखें डालते ही उसका दिल यूं कांपने लगता, जैसे चारों तरफ़ समुद्र हो, चारों तरफ़ लहरें हों, और एक अकेली कश्ती हो और नाज़ुक सी पतवार हो और चारों तरफ़ कोई न हो, और कश्ती डोलने लगे, हौले हौले डोलती जाए, और नाज़ुक सी पतवार नाज़ुक से हाथों से चलती-चलती थम जाए, और सांस रुकते-रुकते रुक सी जाए, और आंखें झुकती-झुकती झुक सी जाएं, और ज़ुल्फ़ें बिखरती-बिखरती सी जाएं, और लहरें घूम-घूम कर घूमती हुई मालूम दें, और बड़े-बड़े दायरे फैलते-फैलते जाएं और फिर चारों तरफ़ सन्नाटा फैल जाए और दिल एक दम धक से रह जाए. और कोई एक अपनी बाहों में भींच ले, हाय, पटवारी के बेटे को देखने से ऐसी हालत होती थी नूरां की, और वो कोई फ़ैसला ना कर सकती थी.
नंबरदार का बेटा, पटवारी का बेटा, पटवारी का बेटा, नंबरदार का बेटा, वो दोनों को ज़बान दे चुकी थी, दोनों से शादी करने का इक़रार कर चुकी थी, दोनों पर मर मिटी थी. नतीजा ये हुआ कि वो आपस में लड़ते-लड़ते लहू-लुहान हो गए. और जब जवानी का बहुत सा लहू रगों से निकल गया, उन्हें अपनी बेवक़ूफ़ी पर बड़ा ग़ुस्सा आया, और पहले नंबरदार का बेटा नूरां के पास पहुंचा और अपनी छुरी से उसे हलाक करना चाहा और नूरां के बाज़ू पर ज़ख़्म आ गए, और फिर पटवारी का पूत आया और उसने उसकी जान लेनी चाही, और नूरां के पांव पर ज़ख़्म आ गए मगर वो बच गई, क्योंकि वो बर-वक़्त हस्पताल लाई गई थी, और यहां उसका इलाज शुरू हो गया.
आख़िर हस्पताल वाले भी इन्सान होते हैं, ख़ूबसूरती दिलों पर-असर करती है, इंजेक्शन की तरह, थोड़ा बहुत उसका असर ज़रूर होता है. किसी पर कम, किसी पर ज़्यादा, डॉक्टर साहब पर कम था, कम्पाउन्डर पर ज़्यादा था. नूरां की तीमारदारी में ख़िलजी दिल-ओ-जान से लगा रहा. नूरां से पहले बेगमां, बेगमां से पहले रेशमां, और रेशमां से पहले जानकी के साथ भी ऐसा ही हुआ था, मगर वो ख़िलजी के नाकाम मुआशक़े थे क्योंकि वो औरतें ब्याही हुई थीं, रेशमां का तो एक बच्चा भी था, बच्चों के इलावा मां-बाप थे, और ख़ाविंद थे और खाविंदों की दुश्मन निगाहें थीं. जो गोया ख़िलजी के सीने के अंदर घुसके उसकी ख़्वाहिशों के आख़िरी कोने तक पहुंच जाना चाहती थीं. ख़िलजी क्या कर सकता था, मजबूर होके रह जाता, उसने बेगमां से इश्क़ किया, रेशमां से और जानकी से भी, वो हर-रोज़ बेगमां के भाई को मिठाई खिलाता, रेशमां के नन्हे बेटे को दिन भर उठाए फिरता था, जानकी को फूलों से बड़ी मुहब्बत थी, वो हर-रोज़ सुबह उठ के मुंह अंधेरे जंगल की तरफ़ चला जाता और ख़ूबसूरत लाला के गुच्छे तोड़ कर उसके लिए लाता. बेहतरीन दवाएं, बेहतरीन ग़िज़ाएं, बेहतरीन तीमार-दारी, लेकिन वक़्त आने पर जब बेगमां अच्छी हुई तो रोते-रोते अपने ख़ाविंद के साथ चली गई, और जब रेशमां अच्छी हुई तो अपने बेटे को लेकर चली गई. और जानकी अच्छी हुई तो चलते वक़्त उसने ख़िलजी के दिए हुए फूल अपने सीने से लगाए, उसकी आंखें डबडबा आईं और फिर उसने अपने ख़ाविंद का हाथ थाम लिया और चलते-चलते घाटी की ओट में ग़ायब हो गई. घाटी के आख़िरी किनारे पर पहुंच कर उसने मुड़कर ख़िलजी की तरफ़ देखा, और ख़िलजी मुंह फेर कर वॉर्ड की दीवार से लग के रोने लगा.
रेशमां के रुख़स्त होते वक़्त भी वो इसी तरह रोया था. बेगमां के जाते वक़्त भी इसी शिद्दत, इसी ख़ुलूस, इसी अज़ीय्यत के कर्बनाक एहसास से मजबूर हो कर रोया था. लेकिन ख़िलजी के लिए ना रेशमां रुकी, ना बेगमां, ना जानकी, और फिर अब कितने सालों के बाद नूरां आई थी. और उसका दिल उसी तरह धड़कने लगा था. और ये धड़कन रोज़-ब-रोज़ बढ़ती चली जाती थी, शुरू-शुरू में तो नूरां की हालत ग़ैर थी, उसका बचना मुहाल था मगर ख़िलजी की अनथक कोशिशों से ज़ख़्म भरते चले गए, पीप कम होती गई, सड़ांध दूर होती गई, सूजन ग़ायब होती गई, नूरां की आंखों में चमक और उसके सपीद चेहरे पर सेहत की सुर्ख़ी आती गई और जिस रोज़ ख़िलजी ने उसके बाज़ुओं की पट्टी उतारी तो नूरां बे-इख़्तियार इक इज़हार-ए-तशक्कुर के साथ उसके सीने से लिपट कर रोने लगी और जब उसके पांव की पट्टी उतरी तो उसने पांव में मेहंदी रचाई और हाथों पर और आंखों में काजल लगाया और ज़ुल्फ़ें संवारीं तो ख़िलजी का दिल मुसर्रत से चौकड़ियां भरने लगा.
नूरां ख़िलजी को दिल दे बैठी थी. उसने ख़िलजी से शादी का वाअदा कर लिया था. नंबरदार का बेटा और पटवारी का बेटा दोनों बारी-बारी कई दफ़ा उसे देखने के लिए, उससे माफ़ी मांगने के लिए, उससे शादी का पैमान करने के लिए हस्पताल आए थे, और नूरां उन्हें देखकर हर बार घबरा जाती, कांपने लगती, मुड़-मुड़ के देखने लगती, और उस वक़्त तक उसे चैन ना आता जब तलक वो लोग चले ना जाते, और ख़िलजी उसके हाथ को अपने हाथ में न ले लेता, और जब वो बिलकुल अच्छी हो गई तो सारा गांव, उसका अपना गांव उसे देखने के लिए उमड़ पड़ा. गांव की छोरी अच्छी हो गई थी, डॉक्टर साहब और कम्पाउन्डर साहब की मेहरबानी से, और नूरां के मां-बाप बिछे जाते थे, और आज तो नंबरदार भी आया था. और पटवारी भी, और वो दोनों ख़र-दिमाग़ लड़के भी जो अब नूरां को देख देखकर अपने किए पर पशेमान हो रहे थे और फिर नूरां ने अपनी मां का सहारा लिया, और काजल में तैरती हुई डब-डबाई आंखों से ख़िलजी की तरफ़ देखा. और चुप-चाप अपने गांव चली गई. सारा गांव उसे लेने के लिए आया था और उसके क़दमों के पीछे-पीछे नंबरदार के बेटे और पटवारी के बेटे के क़दम थे और ये क़दम और दूसरे क़दम और दूसरे क़दम और सैकड़ों क़दम जो नूरां के साथ चल रहे थे, ख़िलजी के सीने की घाटी पर से गुज़रते गए, और पीछे एक धुंधली गर्द-ओ-ग़ुबार से अटी रहगुज़र छोड़ गए. और कोई वॉर्ड की दीवार के साथ लग के सिसकियां लेने लगा.
बड़ी ख़ूबसूरत रूमानी ज़िंदगी थी ख़िलजी की, ख़िलजी जो मिडल पास था, बत्तीस रुपए तनख़्वाह पाता था. पंद्रह बीस ऊपर से कमा लेता था ख़िलजी जो जवान था, जो मुहब्बत करता था, जो इक छोटे से बंगले में रहता था, जो अच्छे अदीबों के अफ़साने पढ़ता था और इश्क़ में रोता था. किस क़दर दिलचस्प और रूमानी और पुर-कैफ़ ज़िंदगी थी ख़िलजी की. लेकिन कालू भंगी के मुताल्लिक़ में क्या कह सकता हूं, सिवाए इसके कि कालू भंगी ने बेगमां की लहू और पीप से भरी हुई पट्टियां धोईं, कालू भंगी ने बेगमां का बोल-ओ-बुराज़ साफ़ किया, कालू भंगी ने रेशमां की ग़लीज़ पट्टियां साफ़ कीं. कालू भंगी रेशमां के बेटे को मक्की के भुट्टे खिलाता था. कालू भंगी ने जानकी की गंदी पट्टियां धोईं और हर-रोज़ उसके कमरे में फ़िनाइल छिड़कता रहा, और शाम से पहले वार्ड की खिड़की बंद करता रहा, और आतिशदान में लकड़ियां जलाता रहा ताकि जानकी को सर्दी ना लगे. कालू भंगी नूरां का पाख़ाना उठाता रहा.
तीन माह दस रोज़ तक कालू भंगी ने रेशमां को जाते हुए देखा, उसने बेगमां को जाते हुए देखा, उसने जानकी को जाते हुए देखा, उसने नूरां को जाते हुए देखा था. लेकिन वो कभी दीवार से लग कर नहीं रोया, वो पहले तो दो एक लम्हों के लिए हैरान हो जाता, फिर उसी हैरत से अपना सर खुजाने लगता और जब कोई बात उसकी समझ में ना आती तो वो हस्पताल के नीचे खेतों में चला जाता और गाय से अपनी चन्दिया चटवाने लगता. लेकिन इसका ज़िक्र तो मैं पहले कर चुका हूं फिर और क्या लिखूं तुम्हारे बारे में कालू भंगी. सब कुछ तो कह दिया जो कुछ कहना था, जो कुछ तुम रहे हो, तुम्हारी तनख़्वाह बत्तीस रुपए होती, तुम मिडल पास या फ़ेल होते, तुम में कुछ कल्चर, तहज़ीब, कुछ थोड़ी सी इन्सानी मुसर्रत और इस मुसर्रत की बुलंदी मिली होती तो मैं तुम्हारे मुताल्लिक़ कोई कहानी लिखता. अब तुम्हारे आठ रुपए में, मैं क्या कहानी लिखूं. हर बार इन आठ रूपों को उलट-फेर के देखता हूं चार रुपए का आटा, एक रुपए का नमक, एक रुपए का तंबाकू, आठ आने की चाय, चार आने का गुड़, चार आने का मसाला, सात रुपए, और एक रुपया बनिए का. आठ रुपए हो गए, कैसे कहानी बनेगी तुम्हारी कालू भंगी? तुम्हारा अफ़साना मुझसे नहीं लिखा जाएगा. चले जाओ देखो मैं तुम्हारे सामने हाथ जोड़ता हूं.
मगर अफ़सोस अभी तक यहीं खड़ा है. अपने उखड़े पीले पीले गंदे दांत निकाले अपनी फूटी हंसी हंस रहा है.

तो ऐसे नहीं जाएगा अच्छा भई अब मैं फिर अपनी यादों की राख कुरेदता हूं शायद अब तेरे लिए मुझे बत्तीस रूपों से नीचे उतरना पड़ेगा. और बख़्तियार चपरासी का आसरा लेना पड़ेगा. बख़्तियार चपरासी को पंद्रह रुपए तनख़्वाह मिलती है और जब कभी वो डॉक्टर या कम्पाउन्डर या वैक्सीनेटर के हमराह दौरे पर जाता है तो उसे डबल भत्ता और सफ़र ख़र्च भी मिलता है. फिर गांव में उसकी अपनी ज़मीन भी है और एक छोटा सा मकान भी है जिसके तीन तरफ़ चीड़ के बुलंद-ओ-बाला दरख़्त हैं और चौथी तरफ़ एक ख़ूबसूरत सा बाग़ीचा है, जो उसकी बीवी ने लगाया है. उसमें उसने कड़म का साग बोया है और पालक और मूल़ियां और शलगम और सब्ज़ मिर्चें और कद्दू, जो गरमियों की धूप में सुखाय जाते हैं. और सर्दियों में जब बर्फ़ पड़ती है और सब्ज़ा मर जाता है तो खाए जाते हैं. बख़्तियार की बीवी ये सब कुछ जानती है, बख़्तियार के तीन बच्चे हैं, उसकी बूढ़ी मां है जो हमेशा अपनी बहू से झगड़ा करती रहती है, एक दफ़ा बख़्तियार की मां अपनी बहू से झगड़ा करके घर से चली गई थी, उस रोज़ गहरा अब्र आसमान पर छाया हुआ था और पाले के मारे दांत बज रहे थे, और घर से बख़्तियार का बड़ा लड़का मां के चले जाने की ख़बर ले कर दौड़ता दौड़ता हस्पताल आया था और बख़्तियार उसी वक़्त अपनी मां को वापिस लाने के लिए कालू भंगी को साथ लेकर चल दिया था. वो दिन-भर जंगल में उसे ढूंढ़ते रहे. वो और कालू भंगी और बख़्तियार की बीवी जो अब अपने किए पर पशेमां थी. अपनी सास को ऊंची आवाज़ें दे-दे कर रोती जाती थी. आसमान अब्र आलूद था, और सर्दी से हाथ पांव शल हुए जाते थे, और पांव तले चीड़ के ख़ुश्क झूमर फ़िस्ले जाते थे, फिर बारिश शुरू हो गई, फिर करीड़ी पड़ने लगी और फिर चारों तरफ़ गहरी ख़ामोशी छा गई, और जैसे एक गहरी मौत ने अपने दरवाज़े खोल दिए हों, और बर्फ़ की परियों को क़तार अन्दर क़तार बाहर ज़मीन पर भेज दिया हो, बर्फ़ के गाले ज़मीन पर गिरते गए, साकिन, ख़ामोश, बे-आवाज़, सपीद मख़मल, घाटियों, वादीयों, चोटियों पर फैल गई.
“अम्मां” बख़्तियार की बीवी ज़ोर से चिल्लाई.
“अम्मां” बख़्तियार चिल्लाया.
“अम्मां” कालू भंगी ने आवाज़ दी.
जंगल गूंज के ख़ामोश हो गया.
फिर कालू भंगी ने कहा,“मेरा ख़्याल है वो नक्कर गई होगी तुम्हारे मामू के पास.”
नक्कर के दो कोस उधर उन्हें बख़्तियार की अम्मां मिली. बर्फ़ गिर रही थी और वो चली जा रही थी. गिरती, पड़ती, लुढ़कती, थमती, हापंती, कांपती. आगे बढ़ती चली जा रही थी और जब बख़्तियार ने उसे पकड़ा तो उसने एक लम्हे के लिए मुज़ाहमत की, फिर वो उसके बाज़ुओं में गिर कर बेहोश हो गई, और बख़्तियार की बीवी ने उसे थाम लिया और रास्ते भर वो उसे बारी-बारी से उठाते चले आए, बख़्तियार और कालू भंगी और जब वो लोग वापस घर पहुंचे तो बिलकुल अंधेरा हो चुका था. उन्हें वापिस घर आते देखकर बच्चे रोने लगे, और कालू भंगी एक तरफ़ होके खड़ा हो गया. और अपना सर खुजाने लगा, और इधर-उधर देखने लगा. फिर उसने आहिस्ता से दरवाज़ा खोला, और वहां से चला आया. हां बख़्तियार की ज़िंदगी में भी अफ़साने हैं, छोटे-छोटे ख़ूबसूरत अफ़साने, मगर कालू भंगी… मैं तुम्हारे मुताल्लिक़ और क्या लिख सकता हूं. मैं हस्पताल के हर शख़्स के बारे में कुछ ना कुछ ज़रूर लिख सकता हूं, लेकिन तुम्हारे मुताल्लिक़ इतना कुछ कुरेदने के बाद भी समझ में नहीं आता कि तुम्हारा क्या किया जाए, ख़ुदा के लिए अब तो चले जाओ बहुत सता लिया तुमने.

लेकिन मुझे मालूम है, ये नहीं जाएगा. इसी तरह मेरे ज़हन पर सवार रहेगा. और मेरे अफ़्सानों में अपनी ग़लीज़ झाड़ू लिए खड़ा रहेगा, अब मैं समझता हूं तू क्या चाहता है, तू वो कहानी सुनना चाहता है जो हुई नहीं लेकिन हो सकती थी, मैं तेरे पांव से शुरू करता हूं. सुन, तू चाहता है न कि कोई तेरे गंदे खुरदरे पांव धो डाले. धो-धो कर उनसे ग़लाज़त दूर करे उनकी ब्याइयों पर मरहम लगाए. तू चाहता है, तेरे घुटनों की उभरी हुई हड्डियां गोश्त में छिप जाएं, तेरी रानों में ताक़त और सख़्ती आ जाए. तेरे पेट की मुरझाई हुई सिलवटें ग़ायब हो जाएं. तेरे कमज़ोर सीने के गर्द-ओ-ग़ुबार से अटे हुए बाल ग़ायब हो जाएं. तू चाहता है कोई तेरे होंटों में रस डाल दे, उन्हें गोयाई बख़्श दे. तेरी आंखों में चमक डाल दे, तेरे गालों में लहू भर दे, तेरी चन्दिया को घने बालों की ज़ुल्फ़ें अता करे, तुझे इक मुसफ़्फ़ा लिबास दे-दे, तेरे इर्द-गिर्द एक छोटी सी चार-दीवारी खड़ी कर दे, हसीन, मुसफ़्फ़ा, पाकीज़ा. उसमें तेरी बीवी राज करे, तेरे बच्चे क़ह-क़हे लगाते फिरें, जो कुछ तू चाहता है, वो मैं नहीं कर सकता. मैं तेरे टूटे-फूटे दांतों की रोती हुई हंसी पहचानता हूं.
जब तू गाय से अपना सर चटवाता है, मुझे मालूम है तू अपने तख़य्युल में अपनी बीवी को देखता है जो तेरे बालों में अपनी उंगलियां फेर कर तेरा सर सहला रही है हत्ता कि तेरी आंखें बंद हो जाती हैं तेरा सर झुक जाता है और तू उसकी मेहरबान आग़ोश में सो जाता है और जब तू आहिस्ता-आहिस्ता आग पर मेरे लिए मक्की का भुट्टा सेंकता है और मुझे जिस मुहब्बत से और शफ़क़त से वो भुट्टा खिलाता है तो अपने ज़हन की पिनहाई में उस नन्हे बच्चे को देख रहा होता है जो तेरा बेटा नहीं है. जो अभी नहीं आया, जो तेरी ज़िंदगी में कभी नहीं आएगा, लेकिन जिससे तूने एक शफ़ीक़ बाप की तरह प्यार किया है, तूने उसे गोदियों में खिलाया है, उसका मुंह चूमा है, उसे अपने कंधे पर बिठा कर जहां भर में घुमाया है, देख लो ये है मेरा बेटा, ये है मेरा बेटा, और जब ये सब कुछ तुझे नहीं मिला तो सबसे अलग हो कर खड़ा हो गया और हैरत से अपना सर खुजाने लगा, और तेरी उंगलियां ला-शऊरी अंदाज़ में गिनने लगीं… एक, दो, तीन, चार, पांच, छः, सात, आठ. आठ रुपए…
मैं तेरी वो कहानी जानता हूं जो हो सकती थी, लेकिन हो ना सकी, क्योंकि मैं अफ़्साना निगार हूं. मैं इक नई कहानी गढ़ सकता हूं, इक नया इन्सान नहीं घढ़ सकता. उसके लिए मैं अकेला काफ़ी नहीं हूं, उसके लिए अफ़्साना निगार और उसका पढ़ने वाला, और डॉक्टर, और कम्पाउन्डर, और बख़्तियार और गांव के पटवारी और नंबरदार और दुकानदार और हाकिम और सियासत दां, और मज़दूर और खेतों में काम करने वाले किसान हर शख़्स की, लाखों, करोड़ों अरबों आदमियों की इकट्ठी मदद चाहिए. मैं अकेला मजबूर हूं, कुछ नहीं कर सकूंगा. जब तक हम सब मिलकर एक दूसरे की मदद ना करेंगे, ये काम ना होगा, और तू इसी तरह अपनी झाडू लिए मेरे ज़हन के दरवाज़े पर खड़ा रहेगा, और मैं कोई अज़ीम अफ़साना न लिख सकूंगा. जिसमें इन्सानी रूह की मुकम्मल मुसर्रत झलक उठे. कोई मुअम्मार अज़ीम इमारत ना तामीर कर सकेगा, जिसमें हमारी क़ौम की अज़मत अपनी बुलंदियां छू ले, और कोई ऐसा गीत न गा सकेगा जिसकी पहनाइयों मैं कायनात की आफ़ाक़ियत छलक-छलक जाए.
ये भरपूर ज़िंदगी मुम्किन नहीं जब तक तू झाड़ू लिए यहां खड़ा है.
अच्छा है खड़ा रह. फिर शायद वो दिन कभी आ जाए कि कोई तुझसे तेरी झाड़ू छुड़ा दे, और तेरे हाथों को नरमी से थाम कर तुझे क़ौस-ए-क़ज़ह के उस पार ले जाए.

Illustration: Pinterest

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