कुछ ज़िंदगियों के मुक्कदर में दर्द ही दर्द होता है. ऐसे ही दर्द को समेटती है मुनव्वर राना की गज़ल.
आंखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया
मैंने दिए को आंधी की मर्ज़ी पे रख दिया
आओ तुम्हें दिखाते हैं अंजामे-ज़िंदगी
सिक्का ये कह के रेल की पटरी पे रख दिया
फिर भी न दूर हो सकी आंखों से बेवगी
मेंहदी ने सारा ख़ून हथेली पे रख दिया
दुनिया क्या ख़बर इसे कहते हैं शायरी
मैंने शकर के दाने को चींटी पे रख दिया
अंदर की टूट-फूट छिपाने के वास्ते
जलते हुए चराग़ को खिड़की पे रख दिया
घर की ज़रूरतों के लिए अपनी उम्र को
बच्चे ने कारख़ाने की चिमनी पे रख दिया
पिछला निशान जलने का मौजूद था तो फिर
क्यों हमने हाथ जलते अंगीठी पे रख दिया
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