भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी न केवल शानदार वक्ता थे, बल्कि उम्दा कवि भी थे. उनकी एक कविता ‘अपने ही मन से कुछ बोलें’ जीवन के क्षणभंगुर होने के साथ-साथ अनंत होने की विरोधाभासी फ़िलासफ़ी को बयां कर रही है.
क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएं
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, ख़ुद दरवाज़ा खोलें!
जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहां, कल कहां कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित, प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
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