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क्या आप लोकतंत्र को बनाए रखने में ईमानदारी से भागीदारी कर रहे हैं?

राजनीतिक पार्टियों की जगह लोक हित को तरजीह देना ही नागरिकों की लोकतांत्रिक परिपक्वता का संकेत है

भावना प्रकाश by भावना प्रकाश
January 12, 2023
in ज़रूर पढ़ें, नज़रिया, सुर्ख़ियों में
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क्या आप लोकतंत्र को बनाए रखने में ईमानदारी से भागीदारी कर रहे हैं?

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इस बात से तो आप भी इत्तफ़ाक रखेंगे कि लोकतंत्र में मज़बूती लाने का काम स्वस्थ समीक्षा ही करती है, फिर चाहे वो राजनीति की हो, मीडिया की हो या फिर आम लोगों के एकत्रित व्यवहार की हो. देश में बीते दशकभर में हुई राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं व उनकी प्रतिक्रियाओं के आकलन से सराबोर इस आलेख में भावना प्रकाश आपको जिस बात पर सोचने को कह रही हैं, वह है- लोकतंत्र में आम आदमी किस तरह सही भूमिका निभा सकता है या उसे निभानी चाहिए. इसे पढ़ कर आप ख़ुद तय कीजिए कि लोकतंत्र को बनाए रखने में आप कितनी भागीदारी कर रहे हैं.

इन चुनावों में भारतीय लोकतंत्र में एक नए दल ने राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल किया. तो इस दल के अभ्युदय से जुड़े कुछ दिलचस्प तथ्यों को एक क़िस्से की तरह कहना प्रासंगिक लग रहा है, क्योंकि इससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं.

आपको याद होगा कि इस दल का और आम नागरिक के जीवन में सोशल मीडिया की सर्वव्यापी उपस्थिति का उदय एक साथ हुआ था. ये पहला दल था, जिसने संसाधनो के अभाव में सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया. सड़कों की सफ़ाई करके, पेड़ लगाकर चंदा एकत्र किया, फिर जिन्होंने चंदा दिया उन्हीं के क्षेत्र की सड़के दुरुस्त करके और अन्य काम करके इन सबके वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिए. नतीजा ये निकला कि अभूतपूर्व और आश्चर्यजनक रूप से इन्हें दिल्ली विधानसभा में 28 सीट्स मिल गईं और ये सरकार बनाने में कामयाब हो गए. ज़ाहिर था कि चुनाव जीतने के नए तरीक़ों से मिली विजय ने मौलिक प्रयोगों के लिए इन्हें प्रोत्साहित किया और इन्होंने मौलिक प्रयोगों की झड़ी लगा दी.

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पहला सार्थक और महत्त्वपूर्ण प्रयोग था वीआईपी कल्चर का त्याग. इनके आम नगरिक की तरह रहने और बिन सुरक्षा चलने के नए प्रयोग को इतनी लोकप्रियता मिली कि इससे सत्ता पक्षों की नींद उड़ गई. मीडिया ने न केवल उन दिनों इनके इस प्रयोग की विस्तार से चर्चा की, बल्कि इनके बहाने उड़ीसा के मुख्यमंत्री का सादा जीवन और त्याग, गोआ के मुख्यमंत्री का आम नागरिक की तरह रहना भी सामने लाया जाने लगा. बहुत से ऐसे आंकड़े सामने आने लगे और लोगों का ध्यान खींचने में सफल रहे जिनमें वीआईपी की सुविधाओं और सुरक्षा पर होने वाले ख़र्च और आम नागरिक की सुरक्षा और सुविधाओं पर होने वाले ख़र्च के दो से तीन सौ गुना के आसपास के अंतर दर्शाए गए थे. नतीजा ये निकला कि वीआईपी कल्चर से उपजे नुक़सान के प्रति लोगो की जागरूकता सोशल मीडिया पर भी प्रतिबिंबित होने लगी.

सत्ता पक्षों को भी लगने लगा होगा कि यदि जनता जागरूक हो गई तो उन्हें राजसी ठाठ से अलविदा कहना पड़ सकता है. लेकिन इससे बढ़कर उन्हें चिंता होनी स्वाभाविक थी कि कहीं ये नया राष्ट्रीय दल उनसे उनके पैरो के नीचे की ज़मीन न खींच ले. इसीलिए चंद स्थापित नेताओं ने भी आम नागरिक की तरह रहने का नाटक ही सही, शुरू कर दिया.

तभी इस पार्टी ने एक और प्रयोग किया. जनता दरबार लगाया जो असफल साबित हुआ. सुबह दरबार लगा, दिन में खबर आई कि वहां सुनियोजित प्रबंध न होने के कारण अफ़रा-तफ़री मच गई और रात तक हमने ये तय कर लिया कि नई पार्टी को सरकार चलाना नहीं आता है. कोशिश और असफलता की इस घटना का यह त्वरित और हास्यास्पद मूल्यांकन लोगों को इतना भाया कि इससे समाचार चैनलों की टीआरपी बढ़ गई.

पर इसे लोकतंत्र दुर्भाग्य कहा जाना चाहिए कि इससे सत्ता पक्ष की उड़ी नींद को तो जैसे इस नई आफ़त से निपटने की पहेली का हल मिल गया. फिर क्या था, यह रोज़ का सिलसिला हो गया. यही नहीं, सोशल मीडिया नाम के नए हथियार को भी अब तक सत्ता पक्ष समझ ही चुके थे. आनन-फानन में जनता के हाथ में आए इस ब्रह्मास्त्र को उसी के विनाश के लिए इस्तेमाल करने की रणनीति तैयार हो गई. और इसका पहला निशाना इस नवागंतुक दल के मौलिक प्रयोग बने.

ये प्रयोग करते गए, चाहे वो पानी माफिया पर नकेल कसने की कोशिश हो, या सादगी से सबके बीच चलने पर किसी के मुंह पर स्याही फेंक देने या थप्पड़ मार देने की घटना. आईटी सेल में नव रोज़गार पाए प्रतिभावान छात्रों को मीम बनाने के मौक़े मिलते गए. यहां आगे बढ़ने से पहले एक बात कहना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि किसी भी राजनीतिक दल की समीक्षा मीडिया का कर्तव्य है और विपक्ष का अधिकार. इसलिए ‘मीम्स’ बनवाने वाले विपक्षी दलों को या असफल प्रयोगों पर इन्हें कटघरे में खड़ा करने वाले मीडिया को दोषी ठहराना मेरा उद्देश्य नहीं है. मेरा मंतव्य इन मीम्स को फैला कर अपने पांवो पर कुल्हाड़ी मारने वाले आम नागरिकों के सामने ये प्रश्न रखना है कि इससे हमें क्या मिलता है?

हां, तो बात यहीं तक नहीं रुकी. हम सब जानते हैं कि लोकपाल क़ानून के लिए इस दल के संयोजक और अन्य कई लोग अनशन तक पर बैठ चुके थे. तो जब इनकी फ़ाइल रिजेक्ट की गई तो इन्होंने धरने पर बैठने का मौलिक प्रयोग किया और अपने कथनानुसार इस्तीफ़ा भी दे दिया. फिर क्या था, जनता, विपक्ष, मीडिया और इन सबसे बढ़कर सोशल मीडिया की सम्मिलित आपाधापी से यह पार्टी नितांत अनाड़ी और अनुभवहीन साबित हो तो गई, लेकिन रोज़-रोज़ की चिकचिक से यह प्रश्न उठना स्वाभाविक हो गया कि सरकार चलाना आख़िर कहते किसे हैं?

तभी लोकसभ चुनाव हुए और इस दल ने पूरे भारत से ऐसे उम्मीदवारों को ढूंढ़ कर खड़ा करने का प्रयोग कर डाला, जिनमें से अधिकतर बरसों से समाजसेवा के साथ जुड़े हुए किसी दिशा विशेष में शिद्दत से कोई विकास कार्य करने में लगे थे. लेकिन उन सबकी ज़मानत तक जब्त हो गई. ये असफल प्रयोग लोकतंत्र का सबसे बड़ा नुक़सान था.

क्या किसी समस्या के समाधान के लिए तत्परता दिखाना या प्रयोग करके जोखिम उठाना इतना अस्वीकार्य होना चाहिए? दूसरी ओर समाधान ढूंढ़ने के प्रति उपेक्षा का रवैया हमें विरोध करने के लिए क्यों नहीं उकसा पाता? क्यों इस देश का आम नागरिक ‘एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म’ के वो आंकड़े शेयर करना तो दूर पढ़ना तक पसंद नहीं करता, जिनमें लिखा होता है कि कितने सांसदों पर गम्भीर आरोप है? और वही नगरिक केजरीवाल के इस्तीफ़े पर यों नाराज़ हुआ जैसे इससे उसका कोई व्यक्तिगत नुकसान हो गया हो?

प्रश्न न तब ये होना चाहिए था, न अब ये होना चाहिए कि नवागंतुक पार्टी ‘आप’ या कोई भी पार्टी अपना स्थान बनाएगी या खोएगी. लोकतंत्र के हित में प्रश्न हमेशा से ये होना चाहिए कि हम कब एक स्वस्थ लोकतंत्र बनाकर पार्टियों को अपने हित में स्वीकारना या नकारना सीख पाएंगे. हम कब ये सीख पाएंगे कि महत्त्वपूर्ण ये नहीं है कि चुनाव में कोई पार्टी जीत या हार रही है. महत्त्वपूर्ण ये है कि वो जिन तरीक़ों को अपनाकर जीत या हार रही है, वो सही हैं या नहीं. और यदि सही नहीं हैं तो इसमें वोटर कैसे अपनी सही भूमिका निभाकर पार्टियों के चुनाव लड़ने के तरीक़ों को सही कर सकता है. और ये तब होगा जब हम किसी पार्टी की जीत या हार को नहीं, बल्कि इस प्रश्न को सबसे महत्त्वपूर्ण मान पाएंगे कि अमुक पार्टी के उत्थान या पतन से हमें (देश को) फ़ायदा हो रहा है या नुक़सान. हम कब नेताओं के ‘फ़ैन’ होने के बजाए उनके ‘समीक्षक’ की भूमिका में ख़ुद को देखना सीख पाएंगे? और कब ये समझ पाएंगे कि सोशल मीडिया पर किसी का मज़ाक बनाए जाने वाले मीम को शेयर करके हम किसी की मुद्दों से भटकाने की साज़िश का शिकार हो रहे हैं और इस प्रकार हम मज़ाक अमुक व्यक्ति का नहीं अपना बना रहे हैं.

उन दिनों एक ‘मीम’ था, जिसमें नवागंतुक पार्टी में मनीष सिसोदिया अरविंद केजरीवाल से कह रहे हैं कि उतनी तो सीट्स भी नहीं मिली जितने तुमने थप्पड़ पड़वा दिए’ हम ये मीम शेयर कर रहे थे और हंस रहे थे. राहुल गांधी को ‘पप्पू’ कहकर बेवकूफ़ साबित करने वाले मीम्स की तो सोशल मीडिया पर जाने कबसे भरमार है. ध्यातव्य है राहुल गांधी वो व्यक्ति हैं, जिसने अब तक कभी किसी राज्य के मुख्यमंत्री या किसी मंत्री तक का कार्यभार तक नहीं संभाला कि हम उसके किसी निर्णय को जनहित में होने या न होने के तराजू पर रख भी पाएं. फिर भी उन्होंने हर जगह कांग्रेस की हार की नैतिक ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ओढ़ी है. और आजकल ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर न केवल वो आम जनता से मिलकर उनके साथ एक आम इनसान की तरह जुड़कर उनके सुख-दुख साझा करने का सराहनीय कार्य कर रहे हैं, बल्कि इस दौरान पत्रकारों को भी खुलकर उपलब्ध हो रहे हैं. और हम हंस रहे हैं, लेकिन किस पर? आप समझ रहे हैं कि आप नवागंतुक पार्टी या राहुल गांधी पर हंस रहे हैं? नहीं आप लोकतंत्र पर हंस रहे हैं और इस तरह से आप ख़ुद पर हंस रहे हैं. आप अपने हाथ आए एक ब्रह्मास्त्र को अपने ही ऊपर इस्तेमाल होने दे रहे हैं. कैसे? आइए समझते हैं..

democracy
अस्सी के दशक की एक कॉमेडी फ़िल्म थी मिस्टर नटवर लाल. जिसमें नायक अमिताभ बच्चन गफ़लत में शेर के पीछे भागने लगते हैं. उन्हें मसीहा समझने वाले उन्हें चिल्लाकर वापस बुलाते हैं और इस बात का आभार प्रकट करने लगते हैं कि उन्होंने गांव वालों की खातिर अपनी जान ख़तरे में डाली. इस पर नायक का ज़मीर जाग जाता है और वो गांव वालों की सहायता के लिए भावनात्मक तौर पर बाध्य हो जाता है. प्रेमचंद की एक कहानी ‘जेवर का बक्सा’ में भी कुछ ऐसा ही दिखाया गया है. एक साहूकार ये जानते हुए कि जेवर का बक्सा उनके मुंशी ने चुराया है, अपने बरसों से वफादार रहे मुंशी की तारीफ़ कर-करके उनका ज़मीर जगाते हैं. मुंशी आत्मग्लानि बर्दाश्त नहीं कर पाते और वो बक्सा वापस रख देते हैं.

इन उदाहरणों से सीखें तो करना तो हमे ये चाहिए था कि वीआईपी कल्चर का त्याग करने वाले नेताओं को हम इतना सिर पर चढ़ा लेते कि अगर मीम्स के मुताबिक़, वो सच में केवल सहानुभूति अर्जित करने या दिखावे के लिए भी ऐसा कर रहे होते तो सच में वही जीवन और कार्यशैली अपनाने को बाध्य हो जाते. जबकि हमने इसका उलटा किया. इन बातों का इतना मज़ाक बनाया कि अगर उनकी मंशा सही भी रही होगी तो भी उन्होंने यही सीखा कि इन तरीक़ों से पब्लिक का मन नहीं जीता जा सकता. लोकसभा चुनावों खड़े किए गए समाजसेवियों की करारी हार से इन्होंने ये सीखा कि जनता समाज-सेवा कर रहे लोगों को वोट देने के योग्य नहीं समझती. अगर स्वयं को राजनीति में स्थापित करना है तो टिकट देने के लिए जिताऊ उम्मीदवार ढूंढ़ने होंगे, चाहे वो आपराधिक पृष्ठभूमि के हों या धन का बल झोंकने की क्षमता रखने वाले. और ये हमारा नुक़सान था.

यही नहीं, इनके सफ़ाई करके या चंदे से सड़क बनाकर या पेड़ लगाकर चुनाव प्रचार करने के वीडियोज़ को हम सराहना दे पाते, यदि आम नागरिक इन तरीक़ों को प्रोत्साहित कर ले जाते तो चुनाव प्रचार पर होने वाला अपव्यय तो बुरी तरह हतोत्साहित होता ही विलासी नेताओं को ये संदेश भी जाता कि सादगी से रहने की, अपनी ग़लतियों को खुल कर स्वीकार करने की, चाहे थप्पड़ मारो, मुंह पर स्याही पोतो, पर बिन सुरक्षा चलते रहने और संवाद की कोशिश कायम रखने की जीवनशैली लोगों पसंद आ रही है. ये लोकतंत्र की जीत होती. तब लाखों ऐसे लोगो के राजनीति में आने का रास्ता खुलता, जिनके पास समाधान हैं, पर साहस की कमी है. पर हम उन पर हंसकर ख़ुद को समझदार समझते रहे. आज इस पार्टी ने अपने वो तरीक़े छोड़कर पुरानी स्थापित पार्टियों के तरीक़ों से ही प्रचार करके राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर लिया है. तो इनके समर्थक ख़ुश हो सकते हैं और विरोधी आग-बबूला होकर ये इलज़ाम लगाते दिखाई देते हैं कि राजनीति बदलने आए थे, ख़ुद बदल गए. तो अब ये बात करना समीचीन हो गया है कि ये अगर बदल गए हैं तो इनके बदलने के लिए हम कितने दोषी हैं. यदि हम कोशिशों का उपहास उड़ाने की और गुनाहों को उपेक्षित करने की मानसिकता को बदल पाएं तो ये समाज के लिए हितकर अवश्य होगा.

एक बार सोचिए, जिन्हें हम अव्वल दर्जे का बेवकूफ़ कहकर सोशल मीडिया पर मनोरंजन कर रहे हैं उन्होंने ऐसा किया क्या है? विधान सभा की नियुक्ति क़ानून बनाने के लिए होती है तो कोई नया क़ानून बनाने की ज़िद पर अड़ना असंवैधानिक है या दूसरे की आंख में काली मिर्च झोंकना? यदि हम कोई काम नहीं कर पा रहे हैं तो उसका स्वीकार बहादुरी है या सारी सुरक्षा अपने लिए जोड़कर जनता को मरने के लिए छोड़ देना? विचार करिए कि क्या हम भ्रष्टाचार की शृंखला को नहीं जानते? बड़े व्यापारी चुनाव के समय पार्टियों को चंदे देते हैं, जिनके बदले में अपने लाभ सुनिश्चित करते हैं. चुनावी चंदों की ज़रूरत के आगे मजबूर नेताओं को उनके हित साधने ही पड़ते हैं. ऐसे में कोई अगर थप्पड़ खाकर सहानुभूति अर्जित करके चुनाव प्रचार का रास्ता चुनता है तो सोचिए इसमें हमारा अहित कैसे है?

आंकड़ों के अनुसार पार्टियों का चुनाव प्रचार पर हुआ ख़र्च बढ़ता ही जा रहा है. सत्ताधारी पार्टी का हवाई यात्राओं का ख़र्च और ब्रांड पर हुआ ख़र्च सबसे ज़्यादा होता है. जीत प्रवक्ताओं की वक्तृत्व कला और उस धनबल पर आश्रित होने लगी है, जो प्रचार पर लगता है. विज्ञापन और ‘एंटी कैन्वसिंग’ के मनोवैज्ञानिक प्रभावों की जीत चुनाव प्रचार में धनबल को ही नहीं प्रोत्साहित करती, बल्कि घोषणापत्र पर बहस की अनुपयोगिता के रूप में तार्किक बहस की अवहेलना को भी बल देती है. नेताओं की मंहगी जीवनशैली के प्रति जनता की स्वीकार्यता सुनिश्चित करती है और हर उस इंसान को राजनीति में आने के लिए हतोत्साहित करती है, जो योग्य है पर उसके पास धन नहीं. और इन सबसे घातक ये कि नई आने वाली पार्टी इससे ये सीखती है कि अगर चुनाव जीतना है तो धनबल का सहारा लेना और ख़ुद को मुक्का ठोंककर सही साबित करना आना, काम करने से ज्यादा ज़रूरी है. स्थापित पार्टियां जानती हैं कि मतदाता नेता को भी एक ‘प्रोडक्ट’ समझते हैं और विज्ञापन देखकर वोट देते हैं. इसीलिए स्लोगन बनाने और मुद्दों को टालने की प्रवृत्ति चुनावों में बढ़ती जा रही है.

महान विचारक बट्रेंड रसेल का एक प्रसिद्ध कथन है -‘the harm that good man do’. भले लोग बुराई का मुक़ाबला न करके जो पलायनवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं, उसका फ़ायदा हमेशा से अपराधी उठाते आए हैं. लेकिन क्या हमने सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? चुनाव लड़ने आज कोई भला आदमी क्यों नहीं आता? क्योंकि वह जानता है कि किसी नेता को इस तरह से ‘प्रोजेक्ट’ करने के लिए जितने धन की आवश्यकता होती है वो नैतिक ढंग से कमाकर ख़र्च करना संभव ही नहीं है. हार से मिलने वाले उपहास या अपमान से भी बुद्दिजीवी वर्ग बहुत डरता है. इसी कथन से हम चुनावो में एक आम नागरिक के पास सोशल मीडिया नाम के हथियार की भूमिका को समझ सकते हैं. हमारी सोशल मीडिया पर उम्मीदवारों और उनके कैन्वसिंग के तरीक़ों के प्रति स्वीकार्यता या विरोध से ही तो वे सीखेंगे कि उन्हें कैन्वसिंग कैसे करनी है.

सारांश यह कि हम किसी का भी मज़ाक बनाने या अंधी प्रशंसा करने के बजाय राजनीति में स्वस्थ प्रतियोगिता की अहमियत समझें. ये समझें कि विपक्ष का सुदृढ़ होना और साथ ही नए लोगों का मौलिक प्रयोगों द्वारा चुनाव लड़कर राजनीति में आने की कोशिश करने का साहस स्थापित सत्ताओं को अहंकारी और निरंकुश बनने से रोकने के लिए आवश्यक और सम्माननीय है. किसी के भी प्रति अच्छी या बुरी धारणा बना लेने से ‘फ़्लोटिंग वोट्स’ कम होते जाते हैं और ये तो आप मानते ही होंगे कि विश्व में जहां भी ‘ट्रू डेमोक्रेसी’ है, सौ प्रतिशत वोट्स ‘फ़्लोटिग’ होने के कारण ही है. ऐसा तभी संभव है जब वोटर सभी राजनीतिक पार्टियों पर तीखी नज़र रखें और उनकी अच्छाइयों और कमियों दोनो को सोशल मीडिया पर शेयर करें. किसी पर भी बना ‘मीम’ या उपहास स्वस्थ तार्किक बहस का और इस तरह से लोकतंत्र की समृद्धि का रास्ता बंद कर देता है. किसी को ज़्यादा भाव न देने और उनमें प्रतियोगिता जगाकर रखने में हमारा हित है.

फ़ोटो: फ्रीपिक, फ्रीपिक

 

 

 

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भावना प्रकाश

भावना, हिंदी साहित्य में पोस्ट ग्रैजुएट हैं. उन्होंने 10 वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया है. उन्हें बचपन से ही लेखन, थिएटर और नृत्य का शौक़ रहा है. उन्होंने कई नृत्यनाटिकाओं, नुक्कड़ नाटकों और नाटकों में न सिर्फ़ ख़ुद भाग लिया है, बल्कि अध्यापन के दौरान बच्चों को भी इनमें शामिल किया, प्रोत्साहित किया. उनकी कहानियां और आलेख नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में न सिर्फ़ प्रकाशित, बल्कि पुरस्कृत भी होते रहे हैं. लेखन और शिक्षा दोनों ही क्षेत्रों में प्राप्त कई पुरस्कारों में उनके दिल क़रीब है शिक्षा के क्षेत्र में नवीन प्रयोगों को लागू करने पर छात्रों में आए उल्लेखनीय सकारात्मक बदलावों के लिए मिला पुरस्कार. फ़िलहाल वे स्वतंत्र लेखन कर रही हैं और उन्होंने बच्चों को हिंदी सिखाने के लिए अपना यूट्यूब चैनल भी बनाया है.

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