अमूमन बहुत कम फ़िल्में देखने वालों में से होने के बावजूद यदि कुछ क़रीबी लोग कोई फ़िल्म देखने को कहते हैं तो देख भी लिया करती हूं. द ग्रेट इंडियन किचन के बारे में कुछ लोगों ने कहा तो फ़िल्म देख ली. सामान्य-सी जीवन की दिनचर्या को दिखाते हुए फ़िल्म कितना कुछ बयां कर जाती है, यह बात फ़िल्म देखने के लंबे समय बाद तक ज़हन में चलती रहती है.
यूं तो पितृसत्तात्मकता पर कई कोणों से कई तरह की बातें की जा चुकी हैं, लेकिन द ग्रेट इंडियन किचन की प्रोटेगनिस्ट की ज़िंदगी को पर्दे पर देखते हुए आप पितृसत्तात्मकता की छांह में आम महिलाओं की ज़िंदगी को देखने लग जाते हैं कि किस तरह उनका जीवन केवल और केवल खाना पकाने के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है. खाना पकाना अच्छा काम है, अपने घर के सदस्यों को सही पोषण देने के लिए यह काम घर के लोगों के द्वारा किए जाने की न तो मैं विरोधी हूं, न कोई और महिला होगी और ना ही इस फ़िल्म की नायिका ने ही उसका विरोध किया, लेकिन केवल महिला सदस्यों के लिए ही इसका तय कर दिया जाना और उसमें पुरुषों का कोई सहयोग न होना, जबकि वे ख़ाली बैठे-बैठे ऊंघते रहें, कई-कई बार खटकता रहा. कितनी आसानी से इस काम को महिलाओं के पाले में डालकर पितृसत्तात्मकता परे हट गई? इस फ़िल्म को घर में मौजूद पुरुष, फिर चाहे वो आपके पिता हों, भाई हों, पति हों या फिर बेटा के साथ देखें या उन्हें देखने को कहें, ताकि महिलाओं के किचन में अकेले खटते रहने की अहमियत को वे समझ सकें.
एक दूसरी बात, जो इस फ़िल्म में बड़े उभरकर सामने आई है वो है घर के पुरुषों द्वारा किसी महिला को ही दूसरी महिला के सामने बेहतर बनाकर प्रस्तुत कर देना और इस तरह उस महिला को इस बात का एहसास दिलाना कि वो कहीं न कहीं तो कमतर है, कहीं न कहीं तो ग़लत है… इस तरह एक महिला को दूसरे से बेहतर दिखाकर दूसरी महिला का मनोबल तोड़ना आख़िर ग़लत ही तो है. और ये इतनी सहजता से चलता चला आ रहा है कि ऐसी महिला जो ख़ुद को इस चक्र से आज़ाद करना चाहे, वह भी ख़ुद को दोषी मानकर इसी चक्र में फंसी रह जाए. और जिस महिला को बेहतर बताया जा रहा है, वो अपनी बेहतरी को ही सबकुछ मानकर इस चक्र से बाहर निकलने के बारे में सोचने भी न पाए. यह बात महिलाओं के अपने बारे में सोचने के लिए किसी ट्रैप से कम नहीं.
आज भी हमारे देश में महिलाओं के पीरियड्स के समय उन्हें अलग-थलग बैठाने, ज़मीन पर सुलाने, अलग बर्तनों में खाना परोसने जैसी कुप्रथाएं जारी हैं. जिनका विरोध करने का साहस जुटाना भी महिलाओं के लिए हिम्मत का काम है. यह फ़िल्म बैक्ग्राउंड में हल्के से केरल के शबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विषय को भी इस तरह छूती चलती है कि आप यह सोचने को बाध्य हो जाते हैं कि आख़िर हम सनातनी होने का दावा करने वाले लोग, जो प्राकृतिक नियमों को माननेवाले हैं, महिलाओं के प्राकृतिक ऋतुचक्र को लेकर इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हैं?
फ़िल्म इस बात को भी दिखाती चलती है कि आज के समय में भी पत्नी तो पढ़ी-लिखी ही चाहिए, लेकिन विवाह को लेकर उसकी समझ न के बराबर हो यह उम्मीद भी अरेंज्ड मैरिजेज़ में रखी जाती है. शादी के बाद यदि पत्नी, पति से यह बात साफ़ कह दे कि वह सेक्शुअल संबंधों से पहले फ़ोरप्ले चाहती है तो पति उसे शक़ की निगाहों से देखता है. यह किसी भी शिक्षित महिला के बर्दाश्त के बाहर की चीज़ है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति, फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष, शिक्षा के साथ एक ही दिशा में विकसित नहीं होता, समग्रता में विकसित होता है. हर क्षेत्र का ज्ञान अर्जित करता है और सेक्स के बारे में तो शादी से पहले ही जानकारी जुटा लेना चाहता है. यह बात हम कब स्वीकार कर पाएंगे?
और सबसे आख़िरी व ज़रूरी बात ये कि आज भी यदि लड़कियां ख़ुद पर हो रहे दमन का विरोध करें तो उसे दबाने का पहला आदेश उनके अपने घरों से, उनके अपने माता-पिता की ओर से आता है. अपने ही घर के लोगों के प्रतिरोध को झेलते हुए, एक ऐसे रिश्ते में बंधी महिला, जो उस रिश्ते के भीतर ही घुट रही होती है, उस रिश्ते को तोड़कर सामान्य ज़िंदगी बिताने का हौसला भी नहीं जुटा पाती. हालांकि फ़िल्म की नायिका शादी को निभाने की हर कोशिश के बाद हार जाने पर भी अपना हौसला नहीं खोती और वह घर छोड़कर निकल जाती है, अपने पैरों पर खड़े होने… अपनी ज़िंदगी जीने. लेकिन हमारे देश में कितनी महिलाएं ऐसे हौसले वाली हैं? और यदि उनमें से कोई यह हिम्मत जुटाती है तो हमें उसके साथ खड़ा होना चाहिए. फ़िल्म के अंत में जहां नायिका अपने पैरों पर खड़ी होने का हौसला जुटा रही है, वहीं उसके पति की शादी एक दूसरी लड़की से हो जाती है… यह भी एक सच है, एक चक्र है.
इस कम बजट की, कम डायलॉग्स वाली और थोड़े में बहुत कुछ कह जानेवाली फ़िल्म के लेखक, निर्देशक जियो बेबी हैं और मुख्य कलाकार हैं निमिषा सजयन व सूरज वेन्जारामूडु. इस फ़िल्म की सिनैमेटोग्राफ़ी, जो सालु के थॉमस की है, भी कमाल की है. यदि आप माता-पिता यानी पैरेंट्स हैं, चाहे लड़की के या लड़के के… तब तो आपका यह फ़िल्म देखना अनिवार्य ही है, ताकि इस दुष्चक्र को तोड़ने में और समानता लाने में आप अपनी भूमिका निभा सकें.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट