आज हमें जानेमाने लेखक अशोक पांडे मिलवा रहे हैं ऐथ्लीट एलिज़ाबेथ उर्फ़ बेट्टी रॉबिन्सन की शख़्सियत से. उन्होंने न सिर्फ़ ओलंपिक खेलों में महज़ 16 वर्ष की उम्र में 100 मीटर की पहली रेस जीती, बल्कि एक हवाई दुर्घटना में अपने पैरों में आई गंभीर चोट से उबरने के बाद भी ओलंपिक की 4 गुणा 100 मीटर की रिले रेस में जीत का हिस्सा बनीं.
पंद्रह साल की एलिज़ाबेथ को हर रोज़ स्कूल से घर जाने वाली ट्रेन पकड़नी होती थी. सहेलियों के साथ की वजह से अक्सर देर हो जाया करती. ट्रेन बहुत कम समय के लिए स्टेशन पर थमती थी. उसे पकड़ने के लिए बिजली की गति से भागती आती ऐलिज़ाबेथ को देखना उसके बायोलॉजी अध्यापक चार्ल्स प्राइस को आकर्षित करता था, जो ख़ुद भी हर रोज़ उसी ट्रेन से चलता था. प्राइस एक ज़माने में ऐथ्लीट रह चुका था. एक दिन उसने अपनी स्टॉपवॉच पर ऐलिज़ाबेथ के भागने की रफ़्तार नापी तो वह दंग रह गया.
उसके कहने पर ऐलिज़ाबेथ ने बाक़ायदा दौड़ना शुरू किया और उसकी प्रतिभा का ऐसा डंका बजना शुरू हुआ कि कुछ ही माह बाद वह एक इनडोर प्रतियोगिता में 100 मीटर रेस की अमेरिकी चैम्पियन हेलेन फ़िल्की के साथ दौड़ रही थी. इस बार वह दूसरे नंबर पर रही, लेकिन तीन महीने बाद उसके न सिर्फ़ फ़िल्की को परास्त किया, नया वर्ल्ड रेकॉर्ड भी बना डाला.
उसका तीसरा बड़ा कॉम्पिटिशन उसी बरस एम्सटर्डम ओलंपिक की सूरत में था, जब 100 मीटर की रेस के फ़ाइनल के लिए क्वालिफ़ाई करने वाली वह इकलौती अमेरिकी बनी. उल्लेखनीय है कि उस साल पहली बार महिलाओं को ओलंपिक के एथलेटिक्स में भाग लेने की अनुमति मिली थी. ऐलिज़ाबेथ ने रेस जीती और कुल सोलह साल की आयु में पहली 100 मीटर चैम्पियन बनी.
अमेरिका वापसी में उसका ऐतिहासिक स्वागत हुआ और सुनहरे बॉबकट बालों वाली दुबली सी ऐलिज़ाबेथ रॉबिन्सन अमेरिका की चहेती ऐथ्लीट बन गई. यह 1928 का साल था. उसने अगले ओलंपिक के लिए तैयारी करना शुरू कर दिया. वह जब भी भागती कोई नया कीर्तिमान रचती.
वर्ष 1931 के जून महीने में वह रिश्ते के अपने एक भाई विल के छोटे प्राइवेट जहाज़ में उड़ान भर रही थी, जब 600 मीटर की ऊंचाई पर जहाज़ क्रैश हो गया. जहाज़ नाक की सीध में नीचे गिरा और एक दलदल में धंस गया. बचाव करने वालों ने दोनों को अचेत पाया. जिस आदमी ने ऐलिज़ाबेथ को उठाया उसे लगा वह मर गई है.
उसने उसे अपनी गाड़ी की डिक्की में डाला और अस्पताल ले लाने के बजाय अंडरटेकर के पास ले गया. मृत देह की अंतिम तैयारी करने वाले को अंडरटेकर कहा जाता है. उसने एलिज़ाबेथ की देह में कुछ हरकत महसूस की और उसे अस्पताल पहुंचाया. उसकी टांग, कूल्हे और बांह की हड्डियों का कचूमर बन गया था लेकिन वह बच गई. विल को भी गंभीर चोटें आई थीं और कुछ समय बाद उसका पैर काटना पड़ा.
अस्पताल से छुट्टी देते हुए ऐलिज़ाबेथ को डॉक्टरों ने बताया कि वह कुछ समय के बाद ही चल सकेगी. उसकी चाल में एक लचक भी आ जानी थी. डॉक्टरों ने यह भी कहा फिर से दौड़ने के लिए उसे नया जन्म लेना होगा. ओलंपिक में एक और मैडल जीतने का एलिज़ाबेथ का सपना ध्वस्त हो गया.
धीरे-धीरे ऐलिज़ाबेथ ने बैसाखियों के चलना शुरू किया. कुछ माह बाद बैसाखियां छोड़ उसने चलना शुरू किया. फिर हल्की रफ़्तार में दौड़ना. चार साल बाद वह बाक़ायदा दौड़ रही थी. घुटने में आई चोट ने उसे 100 मीटर दौड़ के लिए अयोग्य बना दिया था, क्योंकि दौड़ की शुरुआत में जिस तरह धावकों को झुककर अपनी पोज़ीशन लेनी होती, वह वैसा नहीं कर पाती थी. अमेरिकी ओलंपिक संघ ने उसे 4 गुणा 100 मीटर की रिले रेस के लिए चुन लिया.
बर्लिन में 8 अगस्त 1936 को हुई इस रेस के फ़ाइनल में अमेरिका का मुक़ाबला मेज़बान जर्मनी से था. दूसरे राउंड तक जर्मनी की लड़कियां आगे चल रही थीं. तीसरे राउंड में ऐलिज़ाबेथ ने जर्मन प्रतिद्वंद्वी को पीछे छोड़कर लीड हासिल कर ली और आख़िरी राउंड के लिए हेलेन स्टीफ़न्स को बेटन थमाया. अमेरिकी टीम ने गोल्ड जीता. ऐलिज़ाबेथ उर्फ़ बेट्टी रॉबिन्सन का यह दूसरा ओलंपिक गोल्ड मैडल खेल इतिहास की सबसे बेशक़ीमती उपलब्धियों में गिना जाता है.
इसके बाद ऐलिज़ाबेथ ने ट्रैक से संन्यास ले लिया और धीरे-धीरे लोग उसे भूलने लगे. चालीस साल बाद वर्ष 1977 में उसे अमेरिकन हॉल ऑफ़ फ़ेम में जगह मिली. हालांकि ख़ुद ऐलिज़ाबेथ ने कभी किसी तरह की कोई बात सार्वजनिक रूप से नहीं की लेकिन उसके परिजनों को लगता था कि अमेरिकी सरकार और उसके खेल संगठनों ने एक चैम्पियन को वह इज्ज़त नहीं दी जिसकी वह हक़दार थी.
बहरहाल उन्नीस साल और बीते. वर्ष 1996 में, जब वह डेनवर में रह रही थी, अटलांटा ओलंपिक खेलों की मशाल उसके शहर से गुज़री. कृशकाय हो चुकी ऐलिज़ाबेथ रॉबिन्सन को कुछ दूर तक उसे लेकर दौड़ने का अनुरोध किया गया. ओलंपिक एसोसियेशन ने उसकी ख़राब हालत को देखने हुए सहायकों की व्यवस्था कर रखी थी, लेकिन उसने किसी भी तरह की मदद लेने से इनकार कर दिया.
डेनवर की सड़कों भारी ओलंपिक मशाल को हाथों में उठाए 84 बरस की उस अम्मा को जिस-जिस पुराने खेलप्रेमी ने देखा उसे उसके चेहरे पर वर्ष 1928 में ओलंपिक गोल्ड जीतने वाली, कटे बालों वाली उसी विनम्र किशोरी की झलक नज़र आई, जिसे मौत भी पराजित नहीं कर सकी थी.
फ़ोटो साभार: गूगल