युवा कवि अखिलेश श्रीवास्तव अपनी कविताओं को उन सवालों पर, तथ्यों पर केंद्रित रखते हैं, जिनके बारे में हम सब जानते हैं, पर बातचीत करने से कतराते हैं. कई बार इसका कारण कुछ न कर पाने की हमारी हताशा होती है तो कई बार वह गिल्ट भी कि हम सक्षम होकर भी कुछ कर नहीं रहे. इस कविता में भ्रूण हत्या पर पुरुषों से उन्होंने तीखे सवाल पूछे हैं.
रात्रि के तीसरे पहर में
उसकी लटों से खेलना
मेरे लिए आग तापने जैसा है
उसके लिए है राख हो जाने जैसा
उसका प्रेम उर्ध्वाकार होकर
यज्ञ की अग्नि बनना चाहता है
जबकि मेरा प्रेम चाहता है
क्षैतिज हो जाना
वह मां हो जाना चाहती है
पर कुंती होना नहीं
मैं आमादा हूं सूर्य बन जाने को
पर पिता होना नहीं चाहता
मां और पिता का संबंध
एक प्रयोग है कई बार
जबकि पिता होने व बन जाने के बीच
एक स्वीकृति ज़रूरी है
यह सुश्रुत का देश है
रूह व अजन्मे मांस को यूं अलग करता है
कि मां तक को ख़बर नहीं होती
भ्रूण हत्या
कोख में अवैध खनन जैसा है
घोषणा पत्र पर पिता के हस्ताक्षर हैं
किसी ठेकेदार के हस्ताक्षर जैसे
अजन्मा शिशु बालू जैसा है
दुनिया में
स्त्री के मां बन जाने की संख्या
पुरुष के पिता बन जाने की संख्या से
कई गुना ज़्यादा है
कवि: अखिलेश श्रीवास्तव (ईमेल: [email protected])
कविता संग्रह: गेहूं का अस्थि विसर्जन व अन्य कविताएं
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन
Illustration: Pinterest