भव्यता के बाहुबली एसएस राजामौली की फ़िल्में अपने लार्जर दैन लाइफ़ ट्रीटमेंट और बेहतरीन मनोरंजन के लिए जानी जाती हैं. लंबे समय से रिलीज़ की प्रतीक्षा कर रही फ़िल्म आरआरआर यानी रौद्रम् रणम् रुधिरम् से कुछ ऐसी ही उम्मीद थी. आइए जानें, आरआरआर इन उम्मीदों पर किस हद तक खरी उतर पाई? और बॉक्स ऑफ़िस पर रूल कर रही कश्मीर फ़ाइल्स को टक्कर देने का कितना दम रखती है?
फ़िल्म: आरआरआर
सितारे: रामचरण, जूनियर एनटीआर, आलिया भट्ट, अजय देवगन, श्रिया सरन, मकरंद देशपांडे और अन्य
निर्देशक: एसएस राजामौली
सिनेमैटोग्राफ़ी: केके सेंथिल कुमार
रन टाइम: 187 मिनट
रेटिंग: 3.5/5 स्टार
ऐसे दौर में जहां, एक तरफ़ देशभक्ति के नाम पर कथित तौर पर नफ़रत का पोषण करनेवाली, एक फ़िल्म लगातार बॉक्स ऑफ़िस पर रूल कर रही है, उस वक़्त देशभक्ति के एकदम से अलग कलेवर की फ़िल्म का आना सुखद कहा जा सकता है. देशभक्ति धर्म और जाति से ऊपर उठने के बाद पैदा होनेवाला जज़्बा है. एसएस राजामौली इसी संदेश को फ़िल्म आरआरआर में अपने अंदाज़ में प्रस्तुत कर रहे हैं. निर्देशक ने फ़िल्म के शुरुआती कुछ दृश्यों में यह स्पष्ट कर दिया है कि यह एक धर्मनिरपेक्ष सोच को लेकर चलनेवाली कहानी है. उन्होंने आज़ादी की कहानी दिखाई है, तो सारे धर्मों में भाईचारा भी.
फ़िल्म की कहानी ग़ुलाम भारत से शुरू होती है. अंग्रेज़ों के ज़ुल्मों-सितम अपने चरम पर थे. मुठ्ठीभर अंग्रेज़ बहुसंख्यक भारतीयों की जान की क़ीमत अपने बंदूक की गोली से भी कम समझते थे. उन्हें लगता था कि भारतीयों को गोली मारकर ख़त्म करना, अपनी गोली बर्बाद करने जैसा है. वे अपनी ख़िलाफ़त करनेवालों को गोलियों से नहीं मारते थे, बल्कि उनपर कोड़े बरसाए जाते थे. उन्हें तड़पा-तड़पा के मारा जाता था. आप समझ सकते हैं कि जब ऐसा ज़ुल्म से भरा माहौल हो तो कुछ हीरो ज़रूर पैदा होते हैं. फ़िल्मी अंदाज़ में ज़ुल्म की दास्तां और ख़त्म करनेवाले वीरों की यशगाथा है राजामौली की फ़िल्म आरआरआर.
कहानी के दो वीर हैं राम (रामचरण) और भीम (जूनियर एनटीआर). यह दोनों अलग-अलग परिवेश में पले बढ़े हैं, राम के पिता बाबा (अजय देवगन) क्रांतिकारी थे. देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करते हुए, उनकी जान चली जाती है. राम तय करता है कि वह अंग्रेज़ों के बीच रह कर ही, ख़ुद को पहले मज़बूत बनाएगा, फिर यह अपने पिता का अधूरा संघर्ष आगे बढ़ाएगा. राम के ही समानांतर एक और कहानी चल रही है, जो कहानी है आदिवासी क्रांतिकारी भीम की. भीम के गांव की एक लड़की को अंग्रेज़ बंधक बना कर ले गए हैं. भीम उसे वापस लाने की कसम खाता है. परिस्थितियां राम और भीम को एक-दूसरे के सामने लाकर खड़ा कर देती हैं. आगे के घटनाक्रम अंग्रेज़ों से उनके संघर्ष और आज़ादी की लड़ाई को बयां करते हैं.
कुल मिलाकर एक प्रॉमिसिंग प्लॉट होने के बावजूद फ़िल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है कहानी में नई और अलहदा घटनाओं का न होना. निर्देशक ने कहानी कहने के लिए एक तरह से घिसे-पिटे रास्तों से गुज़रते हैं, जिससे कहानी में काफ़ी दोहराव देखने मिलता है. आपको लगता है कि कहानी में कुछ बड़े ट्विस्ट होंगे, लेकिन नहीं होते. सब कुछ स्वाभाविक-सा लगता है, जबकि कहानी में पूरी गुंजाइश थी. काफ़ी घटनाएं जोड़ी जा सकती थीं. फ़िल्म कुछ जगह लॉजिकल नहीं लगती. फ़िल्म का गीत-संगीत वाला विभाग भी औसत ही है. नाचो नाचो सॉन्ग आपको थिरकने पर मजबूर करेगा, पर इसके अलावा दूसरे गाने आए, गए जैसे ही हैं. बावजूद इन कमियों के आरआरआर एक दर्शनीय फ़िल्म है. फ़िल्म की भव्यता देखते बनती है. कई ऐक्शन सीक्वेंस तो बाकमाल हैं. जिनमें शेरों के साथ वाले ऐक्शन सीन, फ़िल्म के क्लाइमेक्स वाला सीन और दोनों का एक-दूसरे के कंधे पर बिठा कर किया गया ऐक्शन, एकदम अलग अनुभव है. इन्हें छोटे पर्दे पर अनुभव कर पाना बेहद मुश्क़िल है. कहानी के औसत होने के बावजूद फ़िल्म ज़मीनी बातें करती है. लार्जर दैन लाइफ़ होते हुए भी आम दर्शक को अपनी लग सकती है. वह कहानी से जुड़ाव महसूस कर सकता है. यही निर्देशक की सबसे बड़ी सफलता है.
अब अभिनय की बात करें तो इस बड़ी फ़िल्म के लिए रामचरण और जूनियर एनटीआर की मेहनत नज़र आती है. दोनों ही अपने-अपने किरदारों में बिल्कुल फ़िट नज़र आते हैं. ऐक्शन सीक्वेंस में दोनों आकर्षक लगते हैं. कठिन ऐक्शन सीक्वेंस को दोनों ने सहजता और सरलता से निभाया है. दोनों की मासूमियत भी आकर्षित करती है. आरआरआर को आलिया भट्ट की पहली तेलुगू फ़िल्म के तौर पर प्रचारित किया जा रहा था, लेकिन अफ़सोस कि फ़िल्म में उनके करने के लिए कुछ भी नहीं था. अजय देवगन बेहद कम समय के लिए स्क्रीन पर आते हैं, लेकिन वह मज़बूती से अपनी मौजदूगी दर्शाते हैं. श्रिया सरन और मकरंद देशपांडे जैसे कलाकारों के लिए भी फ़िल्म में करने को कुछ ख़ास नहीं था.
कुल मिलाकर आरआरआर में एसएस राजामौली ने एक सिम्पल कहानी को बड़े कैनवास, भव्य विज़ुअल एक्सपीरियंस के साथ प्रेज़ेंट करने की कोशिश की है. फ़िल्म थोड़ी लंबी हो गई है. दूसरा हाफ़ बोर करता-सा लगता है. कहानी की कमी को के के सेंथिल कुमार ने कैमरे के अपने काम से बख़ूबी पूरा किया है. फ़िल्म विज़ुअल एक्सपीरिएंस के लिहाज़ से आरआरआर बिल्कुल बोर नहीं करेगी. फ़िल्म की भव्यता में भी एक सिम्पल और ठोस संदेश है कि हर हाल में इंसानियत का ज़िंदा रहना ज़रूरी है. अच्छाई या बुराई एकतरफ़ा नहीं हो सकती. ज़िंदगी की कहानी कभी ब्लैक ऐंड वाइट नहीं हो सकती, जैसा कि इस समय की सबसे चर्चित और बॉक्स-ऑफ़िस पर सफलता के नए झंडे गाड़ रही फ़िल्म कश्मीर फ़ाइल्स में बताने की कोशिश की गई है. ज़िंदगी में हमेशा ग्रे शेड का स्कोप रहता ही है.