गेहूं की जीवनयात्रा का इतना सटीक विश्लेषण आपने शायद ही कहीं पढ़ा हो. कविता गेहूं का अस्थि विसर्जन में युवा कवि अखिलेश श्रीवास्तव मानवता के लिए गेहूं द्वारा की जा रही तपस्या और गेहूं पर हमारी निर्भरता को बयां कर रहे हैं.
खेतों में बालियों का महीना
सूर्य की ओर मुंह कर खड़ा रहना
तपस्या करने जैसा है
उसका धीरे-धीरे पक जाना है
तप कर सोना हो जाने जैसा
चोकर का गेहूं से अलग हो जाना
किसी ऋषि का अपनी त्वचा को
दान कर देने जैसा है
जलते चूल्हे में रोटी का सिकना
गेहूं की अंत्येष्टि है
रोटी के टुकड़े को अपने मुंह में एकसार कर
उसे उदर तक तैरा देना
गेहूं का अस्थि विसर्जन है
इस तरह
तुम्हारी भूख को मिटा देने की ताक़त
वह वरदान है
जिसे गेहूं ने एक पांव पर
छह महीना धूप में खड़े होकर
तप से अर्जित किया है सूर्य से
भूख से
तुम्हारी बिलबिलाहट का ख़त्म हो जाना
गेहूं का मोक्ष है
इस पूरी प्रक्रिया में कोई शोर नहीं है
कोई आवाज़ नहीं है
शांत हो तिरोहित हो जाता
मोक्ष का एक अनिवार्य अवयव है
मैं बहुत वाचाल हूं
बिना चपर चपर की आवाज़ निकाले
एक रोटी तक नहीं खा सकता
कवि: अखिलेश श्रीवास्तव (ईमेल: [email protected])
कविता संग्रह: गेहूं का अस्थि विसर्जन व अन्य कविताएं
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन
Illustration: Pinterest