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ओए अफ़लातून
Home ज़रूर पढ़ें

आइए उलझी हुई जलेबी का इतिहास सुलझाएं

कनुप्रिया गुप्ता by कनुप्रिया गुप्ता
April 23, 2021
in ज़रूर पढ़ें, ज़ायका, फ़ूड प्लस
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आइए उलझी हुई जलेबी का इतिहास सुलझाएं
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गुड़ सीं मीठा है बोसा तुझ लब का
इस जलेबी में क़ंद ओ शक्कर है
तेरे होंठों का चुम्बन गुड़ से भी मीठा है, इसमें जलेबी सी मिठास और शक्कर है… भारत की राष्ट्रीय मिठाई (अघोषित) के बारे में फ़ाएज़ देहलवी ने जब लिखा होगा तो कैसी मोहब्बत रही होगी उनके ज़हन में और क्या ही जलेबी के लिए प्रेम रहा होगा, जो महबूबा के होंठों की तुलना जलेबी से की होगी.
-कनुप्रिया गुप्ता

लम्बे समय पहले एडिबल ऑयल धारा का एक विज्ञापन आया था जिसमें बच्चा घर छोड़कर जा रहा है पीछे से आवाज़ आती है ‘आज तो मम्मी जलेबी बना रही है’ और ये सुनकर बच्चा रुक जाता है कहता है,‘ठीक है जलेबी खाकर ही जाऊंगा.’ कितने लोगों की यादों के संदूक में जमा हुआ होगा ये विज्ञापन. सच पूछिए तो एक पूरी पीढ़ी का नास्टेल्जिया है ये विज्ञापन.
मैदा, दही, केसरिया या पीला रंग और शक्कर से मिलकर बनाई जाने वाली ये मिठाई जब घी से भरी कढ़ेलियों (जलेबी तलने का लोहे का बरतन कुछ-कुछ फ्राय पैन जैसा, पर तले से समतल) में छनती है तो आसपास से गुज़रने वाले लोगों के क़दम अपने आप ही ख़ुशबू की दिशा में मुड़ जाते हैं. जलेबी जिस हद तक भारतीय (ख़ासकर उत्तर और मध्यभारतीय ) भोजन का हिस्सा बन गई उसे देखकर लगता है कि जैसे जन्मों-जन्म से ये यहां खाई जाती रही होगी, पर ऐसा है नहीं. जलेबी जितनी ख़ुद उलझी हुई है उसकी कहानी भी उतनी ही उलझी हुई है.

जलेबी इतिहास के झरोखे से
हम जो चाव से खाते हैं वो जलेबी हमारी अपनी नहीं है, हालांकि जो जलेबी हमारी है, वो तो हमारी ही है… है न उलझी हुई बात? होगी भी क्यों नहीं, जिसकी बात हो रही है वो ख़ुद भी तो उलझी हुई है. तो सुनिए जनाब क़िस्सा-ए-जलेबी… ये तक़रीबन 500 साल (मध्यकाल ) पहले तुर्कों के साथ भारत चली आई. कहा जाता है कि वहां इसे रमजान के वक़्त ग़रीबों में बांटने के लिए बनाया जाता था. ईरान में जलोबिया नाम था इसका. भारत आई तो जलेबी हो गई. अब आप कहेंगे हमारी है, पर हमारी नहीं इसका क्या मतलब? तो बात ये है की भारत में जो जलेबी खाई जाती है वो उस जलोबिया से काफ़ी अलग है. यहां आकर इसने धीरे-धीरे अपना रूप काफ़ी बदल लिया और इसके स्वाद में भी काफ़ी फ़र्क़ आ गया है.
तेरहवीं शताब्दी में मुहम्मद बिन हसन अल बग़दादी ने एक किताब लिखी थी किताब अल तबीख इस किताब में पहली बार जौलबिया का ज़िक्र मिलता है. चौदह सौ पचास ईस्वी में जैन शोधार्थी जैनासुर द्वारा लिखी किताब प्रियंकर्णपकथा में उल्लेख मिलता है कि रईसों की दावतों में जलेबी परोसी जाती थी. शिवाजी काल में भी कुछ ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है .
संस्कृत में इसे कुंडलिका कहा गया है और रसभरी होने के कारण कहीं-कहीं जल-वल्लिका नाम भी पढ़ने को मिलता है.
होबसन जोबसन डिक्शनरी में भी उल्लेख मिलता है की जलेबी अरब की जलोबिया से प्रेरित है. दसवीं शताब्दी में एक अरबी लेखक ने खलीफ़ाओं को परोसे जाने वाले व्यंजनों के बारे में लिखा है, जिसमें जलोबिया का उल्लेख भी है.
आपको जानकार आश्चर्य होगा कि यह मिठाई अब ईरान से ज़्यादा अफ्रीका में खाई जाती है और भारत में तो इसके जलवे ही अलग हैं.

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जलेबी तेरे रूप अनेक
भारत में जलेबी के कई रूप देखने को मिलते हैं-मावा वाली जलेबी, गुड़ वाली जलेबी, घेवर जलेबी ,दूध मिलाकर बनाई जाने वाली जलेबी और हमारी पसंदीदा मैदा वाली जलेबी तो है ही…
इसे अलग अलग जगहों पर लोग अलग ढंग से खाते है-इंदौर में पोहा-जलेबी, बनारस में कचौरी-जलेबी, उत्तरप्रदेश के कई हिस्सों में दही-जलेबी और मध्यप्रदेश की कई जगहों पर दूध-जलेबी, गुजरात में फाफड़ा-जलेबी. हरियाणा में दही-जलेबी और दूध-जलेबी दोनों प्रचलित हैं. यहां का एक गांव सिर्फ़ जलेबियों के कारण प्रसिद्ध है. यहां की एक दुकान की 250 ग्राम की जलेबी की प्रसिद्धि दूर-दूर तक है. जितने प्रदेश उतने कॉम्बिनेशन. पर स्वाद वही लाजवाब.

हेल्थ की लिए अच्छी है जलेबी
मिठाइयों के बारे में ये सुनने कम ही मिलता है पर आयुर्वेद के अनुसार जलेबी स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छी है (अगर सही ढंग से खाई जाए तो). जलेबी को माइग्रेन, मानसिक परेशानी और वात, पित्त, कफ़ के लिए अच्छा बताया गया है. बाक़ी जीभ के स्वाद के लिए तो ये हमेशा अच्छी है ही!
जलेबियों से जुड़ा एक अनुभव कभी नहीं भूल सकती. मेरे नानाजी को जलेबियां बहुत पसंद थीं. उनका जन्मदिन हुआ करता था 26 जनवरी को. हम स्कूल से आकर उन्हें जन्मदिन की बधाई का फ़ोन लगाते, वो हमें आशीर्वाद देते और कहते मेरी तरफ़ से समोसे-जलेबी खा लेना. बरसों तक हमारे घर में उस दिन समोसे-जलेबी आते रहे. पापा ऑफ़िस के झंडावंदन से लौटते हुए पहले ही समोसे-जलेबी ले आते ये कहकर कि नानाजी के जन्मदिन की पार्टी तो देनी होगी न! नानाजी के जाने बाद भी उनके हर जन्मदिन पर मैं उनके साथ-साथ जलेबियों को भी याद करती हूं.
सच ही तो है खाना बस पेट भरने से नहीं जुड़ा होता, उससे जुड़ी होती हैं हमारी कितनी ही यादें. आपकी भी तो जलेबी से जुड़ी कुछ यादें होंगी न? मुझे उनके बारे में ज़रूर बताइए नीचे कॉमेंट में या फिर इस ईमेल आईडी पर: [email protected]

Tags: कनुप्रिया गुप्ताजलेबीजलेबी का इतिहाससाप्ताहिक कॉलम
कनुप्रिया गुप्ता

कनुप्रिया गुप्ता

ऐड्वर्टाइज़िंग में मास्टर्स और बैंकिंग में पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा लेने वाली कनुप्रिया बतौर पीआर मैनेजर, मार्केटिंग और डिजिटल मीडिया (सोशल मीडिया मैनेजमेंट) काम कर चुकी हैं. उन्होंने विज्ञापन एजेंसी में कॉपी राइटिंग भी की है और बैंकिंग सेक्टर में भी काम कर चुकी हैं. उनके कई आर्टिकल्स व कविताएं कई नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं. फ़िलहाल वे एक होमस्कूलर बेटे की मां हैं और पैरेंटिंग पर लिखती हैं. इन दिनों खानपान पर लिखी उनकी फ़ेसबुक पोस्ट्स बहुत पसंद की जा रही हैं. Email: [email protected]

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