यह जीवनी अपने कथ्य में बहुत संतुलित है, लेकिन पूरी निर्ममता से सत्य लिखते हुए. किताब में इंदिरा के जीवन के उतार-चढ़ावों और उनकी कमियों-ख़ूबियों को पूरी ईमानदारी से उतारा गया है. इसे पढ़ते हुए हम इंदिरा के व्यक्तित्व को, उनके जीवन में आई परिस्थितियों की रौशनी में समझ पाते हैं. इस किताब के गद्य को पढ़ते-पढ़ते कई बार मन कवितामय हो जाता है और हौले से विमर्श के लिए विषय भी मिल जाते हैं. इसे लिखने के लिए किया गया लेखिका का शोध न सिर्फ़ बेहद प्रभावित करता है, बल्कि स्पष्ट नज़र आता है.
पुस्तक: एक थी इंदिरा
विधा: जीवनी
लेखिका: उपमा ‘ऋचा’
प्रकाशक: संवाद प्रकाशन
मूल्य: रु. 250
उपलब्ध:
रेटिंग: 4.5/5
‘जिस तरह का इन दिनों का राजनैतिक माहौल है, हर चिंतन-पठन करने वाले को चाहिए कि वह इतिहास में झांके, पुराने ऐतिहासिक लोगों, राजनेताओं की जीवनियों को पढ़ कर ज़रूर देखे कि क्या वे वाक़ई वैसे हैं, जैसा कि उन्हें बताया जा रहा है? और उसके बाद ही उनपर अपना कोई मत प्रगट करे.’ यह वह व्यक्तिगत विचार था, जिसके चलते मैंने कुछ किताबों को पढ़ना और उनके ज़रिए कुछ लोगों के व्यक्तित्व को जानना शुरू किया. इसी क्रम में संवाद प्रकाशन की किताब ‘एक थीं इंदिरा’ भी एक किताब थी, जिसकी लेखिका हैं उपमा ‘ऋचा’.
यह उपमा की लिखी, पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की जीवनी है, जिसकी शुरुआत उन्होंने इस परिवार की चार पीढ़ी पहले के लोगों को साथ लेते हुए कश्मीर से की है. इस किताब में कुल 21 अध्याय हैं, जिनमें स्व. इंदिरा गांधी के जीवन को उकेरा तो ज़ाहिरतौर पर गद्य रूप में गया है, लेकिन इसे पढ़ते-पढ़ते कई बार मन कवितामय हो जाता है. कई बार लगता है कि क्या लेखिका ने इंदिरा के साथ वक़्त गुज़ारा था या उनके बारे में इतना पढ़ा और मनन किया कि वे बिल्कुल उनकी तरह सोच सकीं या फिर मानव मन शायद एक जैसे होते हैं, जिनकी थाह पाने में लेखिका को महारत हासिल है.
यह जीवनी अपने कथ्य में बहुत संतुलित है, लेकिन पूरी निर्ममता से सत्य लिखते हुए. इस किताब में इंदिरा के जीवन के उतार-चढ़ावों और उनकी कमियों-ख़ूबियों को ईमानदारी से जस का तस उतारने का बहुत सफल प्रयास किया गया है. इसे पढ़ते हुए हम इंदिरा के व्यक्तित्व को, उनके जीवन में आई परिस्थितियों की रौशनी में समझ पाते हैं. इस किताब को लिखने के लिए किया गया लेखिका का शोध न केवल बेहद प्रभावित करता है, बल्कि स्पष्ट दिखाई देता है. पढ़ते हुए आप कई बार इस बात पर भी ग़ौर करने लगते हैं कि सार्वजनिक जीवन में रहने वालों का निजी जीवन किस तरह उनका अपना नहीं रह जाता. वहीं किसी पद पर बने रहने के दौरान उनके द्वारा लिए गए निर्णयों में से कुछ के ग़लत हो जाने का ख़तरा हमेशा बना रहता है, वे सबको ख़ुश नहीं रख सकते, कठोर निर्णय भी लेने पड़ते हैं और कभी-कभी पद का लोभ या गुमान उनसे वो करवा ले जाता है, जिसके बारे में वे भी जानते हैं कि यह सही नहीं है, लेकिन बावजूद इसके उसे करते चले जाते हैं.
‘गूंगी गुड़िया’ से लेकर इंदिरा के ‘दुर्गा’ के स्वरूप तक; बचपन, किशोरावस्था, यौवन से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक; शिक्षा, विवाह, बच्चों के जन्म और पालन-पोषण तक; अपने पति फ़िरोज़ गांधी और अपने पिता जवाहरलाल नेहरू को खोने तक और फिर ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद उनके अंगरक्षकों द्वारा उनकी हत्या तक आप इस किताब के ज़रिए इंदु, इंदिरा और इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व के हर पहलू से ऐसे रूबरू होते हैं, जैसे कि सबकुछ आपके सामने घटित हो रहा हो. प्रूफ़िंग की कुछ ग़लतियां हैं, लेकिन किताब की लय इतनी अच्छी है कि आप उन पर ध्यान दिए बिना, उन पर अटके बिना ही आगे पढ़ते चले जाते हैं.
काव्य की सी मिठास वाली; विमर्श के लिए हौले से, गहरे विषय देने वाली; इंदिरा के जीवन को पूरी गहराई में उतर कर हमसे साझा करने वाली; पूरी संवेदनशीलता के साथ लिखी गई इस बेहतरीन जीवनी के लिए लेखिका उपमा ‘ऋचा’ को बधाई. साथ ही, इस तरह की किताबों को पाठकों तक पहुंचाने के लिए संवाद प्रकाशन का आभार और शुभकामनाएं.