डर का अपना मनोविज्ञान होता है और उसका फ़ायदा उठाकर छोटे और बेहद कम शक्तिशाली समूह, बेहद बड़े और शक्तिशाली समूहों को आतंकित करते हैं. पहले जहां अलकायदा और आईएसआईएस ने मनोविज्ञान की इसी दुखती नब्ज़ को पकड़ा, अब कोरोना ने दुनिया को आतंकित कर रखा है. क्या यह डर के नए युग की शुरुआत है?
9/11 के बाद दुनिया में डर का एक युग शुरू हुआ था. अलकायदा से जुड़े आतंकियों ने 11 सितंबर को अमेरिका के वर्ड ट्रेड सेंटर को उड़ा दिया था. उसके वीडियो फ़ुटेज ने दुनिया में बेचैनी पैदा की. अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा कि,‘या तो आप अमेरिका के साथ हैं या फिर इस्लामिक आतंकवाद के साथ.’ दुनिया दो हिस्सों में बंट गई. एक तुच्छ और शक्तिहीन अलकायदा ने दुनिया को डर से भर दिया. उसके बाद आईएसआईएस का उदय हुआ. वो भी आतंक का पर्याय बना और उसने कई लोगों को क़त्ल किया और कई को बंदी बनाया तथा पूरे विश्व को आतंकित किया.

क्या है डर का मनोविज्ञान?
छोटे और बेहद कम शक्तिशाली समूहों को लगता है कि वे बड़े और बेहद शक्तिशाली समूह को केवल आतंकित करके और उनकी बदले की बड़ी प्रतिक्रिया से ही टक्कर दे सकते हैं. वे बर्फ़ से ढकी पहाड़ियों पर एक चट्टान लुढ़काकर हिमस्खलन करके तांडव लाने का सपना देखते हैं. या फिर भीड़ भरे किसी बाज़ार में शांत खड़े हुए हाथी के कान में चींटी की तरह घुसकर उसके ज़रिए अफरा तफरी मचा देना चाहते हैं. या किसी बाज़ार में मधुमक्खी के छत्ते पर कंकड़ फेंक कर किसी टोकरे के नीचे छुपकर भगदड़ का आनंद लेते हैं. वे प्रतिक्रियाओं को ही विजय मानते हैं. लेकिन यह दुःखद सत्य है कि वे पूरी दुनिया को आतंकित करने में क़ामयाब रहे हैं. हर किसी एयरपोर्ट या रेलवे स्टेशनों पर लगे मेटल डिटेक्टर या एक्स-रे स्कैनर उनकी ही कुसफलता के प्रतीक हैं. लगभग हर देश की सरकारों की नीतियों में उनके आतंक के बारे में ज़रूर विमर्श और योजना होती है, बजट का एक बड़ा हिस्सा उसपर ख़र्च किया जाता है.
इस आतंक के कारण हमारे मस्तिष्क में एक डर हमेशा बना रहता है. शायद आपको लगता हो कि ‘नहीं मैं तो नहीं डरता’ तो, आप कभी किसी ट्रेन में बहुत देर से लावारिस पड़े किसी बैग को बिना डरे छू कर बताइएगा. आतंकी सालभर में कुछ छुटपुट घटना करते हैं लेकिन आतंक को सब जगह लंबे वक़्त के लिए फैला देते हैं.

कोरोना ने शुरू किया आतंक का दूसरा अध्याय
2019 के 11/17 को डर का एक नया युग या अध्याय शुरू हो गया है. यह एक अनिश्चितता से भरे डर का युग है. इसकी शुरुआत न्यूयॉर्क के वर्ड ट्रेड सेंटर जैसे किसी प्रतिष्ठित स्थान की जगह विश्व की अधिकांश आबादी के लिए अपरिचित चीन के एक शहर वुहान से हुई है. और इस आतंक के अध्याय का नाम है-कोरोना.
अनिश्चितता और डर से भरे इस युग में लगभग हर धर्म, नस्ल, जाति और देश के लोग शामिल हैं. इस बार यह आतंकी एक धर्मनिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष और राष्ट्रनिरपेक्ष है. अभी तो इसने पूरी दुनिया को ठप्प कर रखा है. विश्व की अधिकांश जनता अपने ही घरों में लॉक डाउन को सज़ा काट रही हैं. सभी डरे हुए हैं. सभी धर्मों के पूजास्थल भी पहली बार हमारी पीढ़ी ने बन्द और मानव विहीन देखे हैं और शायद अन्य पीढ़ियों को भी यह देखने का दुर्भाग्य नहीं मिला होगा.
जैसे किसी लावारिस पड़े बैग को देखकर हम डर जाते थे, किसी भीड़ भरी जगह पर कोई तेज़ आवाज़ होने से डर जाते थे उससे ज़्यादा डर अब हमें किसी के छींक या खांस देने से लगेगा, किसी पब्लिक टॉयलेट या ट्रेन के टॉयलेट के नल और हैंडल को छूने से लगेगा, सिनेमा हॉल में अपनी चेयर के हत्थे को पकड़ने पर होगा, किसी होटल के बेड पर सोने पर लगेगा, किसी भीड़ भरे आयोजन में लगेगा, किसी मित्र के हाथ मिलाने के बाद लगेगा, किसी अंजान व्यक्ति से मिलने पर लगेगा… दुनिया अब पहले जैसी नहीं रह जाएगी. अब डर और अनिश्चितता साथ साथ चलने वाले बुरे साथी होंगे. अब आपको अपनी भविष्य की योजनाओं में इस डर और अनिश्चितता को भी ध्यान में रखना होगा. कब कहां लॉकडाउन हो जाए, कब कौन क्वारंटाइन हो जाए कुछ भी नहीं कहा जा सकेगा. विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे कई वायरस भविष्य की बाट जोह रहे हैं. यह अदृश्य आतंकी हमें बहुत परेशान करने वाले हैं. पहले के आतंकियों से आपको बचाने का ज़िम्मा पुलिस, आर्मी और सिक्योरिटी एजेंसियों के पास था लेकिन इन अदृश्य आतंकियों से मुक़ाबला करने का ज़िम्मा डॉक्टरों, हेल्थ वर्कर्स और वैज्ञानिकों के पास होगा.
समाधान में बस प्रकृति को सहेजने के अलावा हमारे पास कुछ नहीं है. हमने जंगलों को उजाड़ा और ईकोसिस्टम को ध्वस्त किया है. सज़ा हमें मिलना शुरू हो गई है. शायद इतना हल्का वायरस भेजकर प्रकृति हमें प्रेमपूर्वक आगाह करना चाहती है. यदि वह क्रूर वायरस भेज देती तो हम क्या कर लेते सिवाय मरने के?
Cover Photo: pexels.com