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कवि और कविता: प्रेम और त्याग की अनूठी कहानी (लेखक: रबिंद्रनाथ टैगोर)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
May 3, 2021
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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कवि और कविता: प्रेम और त्याग की अनूठी कहानी (लेखक: रबिंद्रनाथ टैगोर)
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गुरुदेव रबिंद्रनाथ टैगोर की यह कहानी प्रेम के सर्वोच्च शिखर यानी त्याग को बयां करती है. राजकवि अनंगशेखर को राजकुमारी से प्रेम था. पर राजकुमारी के दिल में कोई और बसता था. पढ़ें, जब अनंगशेखर को राजकुमारी मिली तो उसने क्या किया?

राजमहल के सामने भीड़ लगी हुई थी. एक नवयुवक संन्यासी बीन पर प्रेम-राग अलाप रहा था. उसका मधुर स्वर गूंज रहा था. उसके मुख पर दया और सहृदता के भाव प्रकट हो रहे थे. स्वर के उतार-चढ़ाव और बीन की झंकार दोनों ने मिलकर बहुत ही आनन्दप्रद स्थिति उत्पन्न कर रखी थी. दर्शक झूम-झूमकर आनन्द प्राप्त कर रहे थे.
गाना समाप्त हुआ, दर्शक चौंक उठे. रुपये-पैसे की वर्षा होने लगी. एक-एक करके भीड़ छटने लगी. नवयुवक संन्यासी ने सामने पड़े हुए रुपये-पैसों को बड़े ध्यान से देखा और आप-ही-आप मुस्करा दिया. उसने बिखरी हुई दौलत को एकत्रित किया और फिर उसे ठोकर मारकर बिखरा दिया. इसके पश्चात् बीन उठाकर एक ओर चल दिया.
***
राजकुमारी माया ने भी उस नवयुवक संन्यासी का गाना सुना था. दर्शक प्रतिदिन वहां आते और संन्यासी को न पाकर निराश हो वापस चले जाते थे. राजकुमारी माया भी प्रतिदिन राजमहल के सामने देखती और घंटों देखती रहती. जब रात्रि का अन्धकार सर्वत्र अपना आधिपत्य जमा लेता तो राजकुमारी खिड़की में से उठती. उठने से पहले वह सर्वदा एक निराशाजनक करुणामय आह खींचा करती थी.
इसी प्रकार दिन, हफ़्ते और महीने बीत गए. वर्ष समाप्त हो गया, परन्तु युवक संन्यासी फिर दिखाई न दिया. जो व्यक्ति उसकी खोज में आया करते थे, धीरे-धीरे उन्होंने वहां आना छोड़ दिया. वे उस घटना को भूल गये, किन्तु राजकुमारी माया…
राजकुमारी माया उस युवक संन्यासी को हृदय से न भुला सकी. उसकी आंखों में हर समय उसका चित्र फिरता. होते-होते उसने भी गाने का अभ्यास किया. वह प्रतिदिन अपने उद्यान में जाती और गाने का अभ्यास करती. जिस समय रात्रि की नीरवता में सोहनी की लय गूंजती तो सुनने वाले ज्ञान-शून्य हो जाते.
***
राजकवि अनंगशेखर युवक था. उसकी कविता प्रभावशाली और ज़ोरदार होती थी. जिस समय वह दरबार में अपनी कविता गायन के साथ पढ़कर सुनाता तो सुनने वालों पर मादकता की लहर दौड़ जाती, शून्यता का राज्य हर ओर होता. राजकुमारी माया को कविता से प्रेम था. सम्भवत: वह भी अनंगशेखर की कविता सुनने के लिए विशेषत: दरबार में आ जाती थी.
राजकुमारी की उपस्थिति में अनंगशेखर की ज़ुबान लड़खड़ा जाती. वह ज्ञान-शून्य-सा खोया-खोया हो जाता, किन्तु इसके साथ ही उसकी भावनाएं जागृत हो जातीं. वह झूम-झूमकर और उदाहरणों को सम्मुख रखता. सुनने वाले अनुरक्त हो जाते. राजकुमारी के हृदय में भी प्रेम की नदी तरंगें लेने लगतीं. उसको अनंगशेखर से कुछ प्रेम अनुभव होता, किन्तु तुरन्त ही उसकी आंखें खुल जातीं और युवक संन्यासी का चित्र उसके सामने फिरने लगता. ऐसे मौक़े पर उसकी आंखों से आंसू छलकने लगते. अनंगशेखर आंसू-भरे नेत्रों पर दृष्टि डालता तो स्वयं भी आंसुओं के प्रवाह में बहने लगता. उस समय वह शस्त्र डाल देता और अपनी ज़ुबान से आप ही कहता,‘मैं अपनी पराजय मान चुका.’
कवि अपनी धुन में मस्त था. चहुंओर प्रसन्नता और आनन्द दृष्टिगोचर होता था. वह अपने विचारों में इतना मग्न था जैसे प्रकृति के आंचल में रंगरेलियां मना रहा हो.
सहसा वह चौंक पड़ा. उसने आंखें फाड़-फाड़कर अपने चहुंओर दृष्टि डाली और फिर एक उसांस ली. सामने एक काग़ज़ पड़ा था. उस पर कुछ पंक्तियां लिखी हुई थीं. रात्रि का अन्धकार फैलता जा रहा था. वह वापस हुआ.
राजमहल समीप था और उससे मिला हुआ उद्यान था. अनंगशेखर बेकाबू हो गया. राजकुमारी की खोज उसको बरबस उद्यान के अन्दर ले गई.
चन्द्रमा की किरणें जलस्रोत की लहरों से अठखेलियां कर रही थीं, प्रत्येक दिशा में जूही और मालती की गन्ध प्रसारित थी, कवि आनन्दप्रद दृश्य को देखने में तल्लीन हो गया. भय और शंका ने उसे आ दबाया. वह आगे क़दम न उठा सका. समीप ही एक घना वृक्ष था. उसकी छाया में खड़े होकर वह उद्यान के बाहर का आनन्द प्राप्त करने लगा. इसी बीच में वायु का एक मधुर झोंका आया. उसने अपने शरीर में एक कम्पन अनुभव किया. इसके बाद उद्यान से एक मधुर स्वर गूंजा, कोई गा रहा था. वह अपने-आपे में न था, कुछ खो-सा गया. मालूम नहीं इस स्थिति में वह कितनी देर खड़ा रहा? जिस समय वह होश में आया, तो देखा कोई पास खड़ा है. वह चौंक उठा, उसके सामने राजकुमारी माया खड़ी थी.
अनंगशेखर का सिर नीचा हो गया. राजकुमारी ने मुस्कराते हुए होंठों से पूछा,‘‘अनंगशेखर, तुम यहां क्यों आए?’’
कवि ने सिर उठाया, फिर कुछ लजाते हुए राजकुमारी की ओर देखा, फिर से मुख से कुछ न कहा.
राजकुमारी ने फिर पूछा,‘‘तुम यहां क्यों आए?’’
इस बार कवि ने साहस से काम लिया. हाथ में जो पत्र था वह राजकुमारी को दे दिया. राजकुमारी ने कविता पढ़ी. उस कविता को अपने पास रखना चाहा; किन्तु वह छूटकर हाथ से गिर गई. राजकुमारी तीर की भांति वहां से चली गई. अब कवि से सहन न हो सका, वह ज्ञान-शून्य होकर चिल्ला उठा,‘‘माया, माया!’’
परन्तु अब माया कहां थी.
****
राजदरबार में एक युवक आया, दरबारी चिल्ला उठे,‘‘अरे, यह तो वही संन्यासी है जो उस दिन राजमहल के सामने गा रहा था.’’
राजा ने मालूम किया,‘‘यह युवक कौन है?’’
युवक ने उत्तर दिया,‘‘महाशय, मैं कवि हूं.’’
राजकुमारी उस युवक को देखकर चौंक उठी.
राजकवि ने भी उस युवक पर दृष्टि डाली, मुख फक हो गया. पास ही एक व्यक्ति बैठा हुआ था, उसने कहा,‘‘वाह! यह तो एक भिक्षुक है.’’
राजकवि बोल उठा,‘‘नहीं, उसका अपमान न करो, वह कवि है.’’
चहुंओर सन्नाटा छा गया. महाराज ने उस युवक से कहा,‘‘कोई अपनी कविता सुनाओ.’’
युवक आगे बढ़ा, उसने राजकुमारी को और राजकुमारी ने उसको देखा. स्वाभिमान अनुभव करते हुए उसने क़दम आगे बढ़ाए.
राजकवि ने भी यह स्थिति देखी तो उसके मुख पर हवाइयां उड़ने लगीं.
युवक ने अपनी कविता सुनानी आरम्भ की. प्रत्येक चरण पर ‘वाह-वाह’ की ध्वनियां गूंजने लगीं, किसी ने ऐसी कविता आज तक न सुनी थी.
युवक का मुख स्वाभिमान और प्रसन्नता से दमक उठा. वह मस्त हाथी की भांति झूमता हुआ आया और अपने स्थान पर बैठ गया. उसने एक बार फिर राजकुमारी की ओर देखा और इसके पश्चात् राजकवि की ओर.
महाराज ने राजकवि से कहा,‘‘तुम भी अपनी कविता सुनाओ.’’
अनंगशेखर चेतना-शून्य-सा बैठा था. उसके मुख पर निराशा और असफलता की झलक प्रकट हो रही थी.
महाराज फिर बोले,‘‘अनंगशेखर! किस चिन्ता में निमग्न हो? क्या इस युवक-कवि का उत्तर तुमसे नहीं बन पड़ेगा?’’
यह अपमान कवि के लिए असहनीय था! उसकी आंखें रक्तिम हो गईं, वह अपने स्थान से उठा और आगे बढ़ा. उस समय उसके क़दम डगमगा रहे थे.
आगे पहुंचकर वह रुका, हृदय खोलकर उसने अपनी काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन किया. चहुंओर शून्यता और ज्ञान-शून्यता छा गई, श्रोता मूर्ति-से बनकर रह गये.
राजकवि मौन हो गया. एक बार उसने चहुंओर दृष्टिपात किया. उस समय राजकुमारी का मुख पीला था. उस युवक का घमण्ड टूट चुका था. धीरे-धीरे सब दरबारी नींद से चौंके, चहुंओर से ‘धन्य है, धन्य है’ की ध्वनि गूंजी. महाराज ने राजसिंहासन से उठकर कवि को अपने हृदय से लगा लिया. कवि की यह अन्तिम विजय थी.
महाराज ने निवेदन किया,‘‘अनंग! मांगो क्या मांगते हो? जो मांगोगे दूंगा.’’
राजकवि कुछ देर तक सोचता रहा. इसके बाद उसने कहा,‘‘महाराज मुझे और कुछ नहीं चाहिए! मैं केवल राजकुमारी का इच्छुक हूं.’’
यह सुनते ही राजकुमारी को गश आ गया. कवि ने फिर कहा,‘‘महाराज, आपके कथनानुसार राजकुमारी मेरी हो चुकी, अब जो चाहूं कर सकता हूं.’’
यह कहकर उसने युवक-कवि को अपने समीप बुलाया और कहा,‘‘मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य यह था कि राजकुमारी का प्रेम प्राप्त करूं. तुम नहीं जानते कि राजकुमारी की प्रसन्नता और सुख के लिए मैं अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार हूं. हां, युवक! तुम इनमें से किसी बात से परिचित नहीं हो; किन्तु थोड़ी देर के पश्चात् तुमको ज्ञात हो जाएगा कि मैं ठीक कहता था या नहीं.’’
कवि की ज़ुबान रुक गई, उसका स्वर भारी हो गया, सिलसिला जारी रखते हुए उसने कहा,‘‘क्या तुम जानते हो कि मैंने क्या देखा? नहीं. और इसका न जानना ही तुम्हारे लिए अच्छा है. सोचता था, जीवन सुख से व्यतीत होगा, परन्तु यह आशा भ्रमित सिद्ध हुई. जिससे मुझे प्रेम है वह अपना हृदय किसी और को भेंट कर चुकी है. जानते हो अब राजकुमारी को मैं पाकर भी प्रसन्न न हो सकूंगा; क्योंकि राजकुमारी प्रसन्न न हो सकेगी. आओ, युवक आगे आओ! तुम्हें मुझसे घृणा हो तो, बेशक हुआ करे, आओ आज मैं अपनी सम्पूर्ण संपत्ति तुम्हें सौंपता हूं.’’
राजकवि मौन हो गया. किन्तु उसका मौन क्षणिक था. सहसा उसने महाराज से कहा,‘‘महाराज, एक विनती है और वह यह कि मेरे स्थान पर इस युवक को राजकवि बनाया जाए.’’
राजकवि के क़दम लड़खड़ाने लगे. देखते-देखते वह पृथ्वी पर आ रहा. अन्तिम बार पथराई हुई दृष्टि से उसने राजकुमारी की ओर देखा, यह दृष्टि अर्थमयी थी. वह राजकुमारी से कह रहा था,‘‘मेरी प्रसन्नता यही है कि तुम प्रसन्न रहो. विदा.’’
इसके पश्चात् कवि ने अपनी आंख बन्द कर लीं और ऐसी बन्द कीं कि फिर न खुलीं.

Illustration: Pinterest

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