प्रेम के रूमानी मौसम में पढ़िए यह ख़ूबसूरत प्रेम कहानी, जिसमें आपको प्यार की वह गंध मिलेगी, जिससे आपने कभी न कभी, किसी न किसी को रूबरू होते देखा होगा. या फिर ख़ुद महसूस किया होगा.
समुद्र के किनारे बैठी ऋचा, आने जाने वाली लहरों को घूर रही थी. चांदी-सी सफ़ेदी लिए सूर्य की किरणों ने धीरे-धीरे, रक्तिम रूप लेना शुरू कर दिया था. समुद्र की लहरों में तेज़ी बढ़ गई थी. बलखाती, उफनती लहरें किनारों पर आकर, अपना सारा प्रेम उड़ेल जातीं.
“ना जाने कहां से इतना प्यार, इतना धीरज बांध लातीं हैं कि हर बार किनारे को, बिना किसी शिकायत सिर्फ़ देती हैं.” सूरज की लालिमा भी अब उन लहरों को भेद रही थी. ऊपर से नीचे तक, गहराई में समाकर रक्तिम किरणें अपना वर्चस्व दिखाने को तत्पर थीं.
“मैडम, मूंगफली ले लो ना!” सामने एक आठ-दस साल का लड़का खड़ा था.
“मूंगफली ही बेचना है क्या ज़िंदगीभर, स्कूल क्यों नहीं जाते?” उसके बिखरे बालों को घूरते हुए ऋचा ने पूछा.
“जाता हूं ना. चौथी कक्षा में हूं. स्कूल के बाद मूंगफली बेचता हूं. वो देखो, मेरे पिताजी ठेले पर मूंगफली भूंज रहे हैं. मैं काग़ज़की पुड़ियों में बांधकर, समुद्र के किनारे घूमने वालों के पास जाकर बेचता हूं.” उसकी आंखों में अनोखी चमक थी.
ऋचा ने उससे मूंगफली खरीद कर पर्स में भर लिया और उसे हाथ हिलाकर विदा किया.
सामने एक नवविवाहित जोड़ा बैठा था. दुनिया से दूर जैसे कल्पनाओं की एक अलग ही दुनिया बसा रहे थे वो. भीड़भाड़ का कोई असर उनकी उस दुनिया पर नहीं था.
उफनती लहरों में वैसी ही ताज़गी और उत्साह था जैसे कॉलेज के दिनों में ऋचा अनुभूत करती थी. जब से प्रशांत उसके जीवन में आया, दुनिया को देखने का नज़रिया बदल गया था ऋचा का. शांत, अंतर्मुखी ऋचा, अब खुल कर हंसने खिलखिलाने लगी थी.
“तुम्हारी हंसी बेहद ख़ूबसूरत है, गुलाबी होंठों से झिरती हंसी की खनखनाहट दिल में समा जाती है,” जादू था प्रशांत के हर एक शब्द में.
कॉलेज का अंतिम वर्ष, एक-दूसरे के निकट आने, समझने और समझाने में मानो पंख लगाकर उड़ गया. फ़ेयरवेल पार्टी के दिन एहसास हुआ कि अब कोई किसी से नहीं मिल पाएगा.
ऋचा को एक कंपनी से जॉब ऑफ़र मिल गया था, जो उसके और परिवार के लिए बहुत ज़रूरी था. मां और छोटी बहन नौकरी मिल जाने से बहुत ही ख़ुश थे. ऋचा भी खुश थी परंतु प्रशांत से अब मिलना नहीं होगा क्योंकि वह अपने परिवार की परंपरा के अनुसार,आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जा रहा था.
“दो साल यूं ही निकल जाएंगे, बस एक बार तुम्हारा परिचय घरवालों से करवा दूंगा, तुम्हें देखते ही सब फौरन राजी हो जाएंगे,” उसने हाथों में हाथ लेकर कहा था.
ऋचा ने भी अपनी मां को प्रशांत के बारे में बताया.
“बेटी, प्यार, कॉलेज की ज़िंदगी और जीवन की सच्चाई एकदम अलग है. मुझे तुम्हारी पसंद पर कोई एतराज़ नहीं है,” जीवन के उतार-चढ़ाव को महसूस की एक स्त्री दूसरी को कह रही थी.
प्रशांत को घर बुलाया था, मां ने बहुत सारी चीज़ें बनाईं और छोटी शुभा ने जीभर अपने होने वाले जीजाजी से बातें की. प्रशांत का स्वभाव, व्यवहार भा गया था सभी को.
“ओह!” शाम को मतवाली होती लहरों ने ऋचा के पैरों को भिगो दिया. खड़ी होकर अपने कपड़ों और चप्पल पर से रेत झटकती ऋचा, सागर किनारे किनारे नंगें पैर चलने लगी. हाथों में चप्पल, कन्धे पर पर्स लटकाए वो किनारे के साथ चलने का होड़ लगाने लगी.सलवार को घुटनों तक खींच लिया जिससे और ना भीगे. आसपास नज़र दौड़ाई, किसी को फ़ुर्सत नहीं कि दूसरे पर कोई ध्यान रखे. इस बड़े शहर की यह बात कभी कभी बहुत अच्छी लगती है कि अपने में व्यस्त लोगों को, दूसरों की ज़िंदगी में हस्तक्षेप करने का कोई शौक़ नहीं रहता. यही कारण है कि लोग अपनी ज़िंदगी जीभर जी लेते हैं. छोटे शहरों में, ऐसा नहीं होता. वहां तो लोग एक दूसरे की सांसों की भी गिनती रखतें हैं.
प्रशांत के घर आने की बात आस-पड़ोस में फैल गई और मां ने ऋचा पर दबाव बनाना शुरू किया.
“एक बार प्रशांत के घरवालों से बात की जानी चाहिए. ऐसे मिलने-जुलने से बदनामी होती है. बात पक्की कर के फिर वो आगे पढ़ने जाए तो कम से कम लोगों के मुंह बंद रहेंगे,” मां ने कहा था.
“प्रशांत ने अभी अपने घर में नहीं बताया है मां!” ऋचा ने धीमे स्वर में कहा.
“अरे! अगले महीने जाएगा, कब बताएगा अपने परिवार से?” मां का चिंतित होना स्वाभाविक था.
ख़ैर, ऋचा के कहने पर एक बार फिर प्रशांत घर आया और मां को सांत्वना देते हुए रविवार को अपने घर आने का आमंत्रण दे दिया.
दो-तीन दिनों तक प्रशांत ना ही मिलने आया ना ही कोई फ़ोन किया. रविवार की सुबह उसका फ़ोन आया और उसने बताया कि वह आज रात ही अमेरिका के लिए निकल रहा है. कुछ ज़रूरी काम के चलते वो मिल भी नहीं पाया.
उस एक फ़ोन ने परिवार को शून्य में खड़ा कर दिया. मां, शुभा और वह स्वयं, एक ही घर में रहकर अलग हो गए थे. एक चुप्पी फैल गई थी, जिसे समय के साथ धीरे धीरे शुभा ने कम किया.
“दीदी, आप इतने बड़े शहर में बड़ी कंपनी में काम करोगी, कितना अच्छा लगेगा. मैंने अपनी सभी सहेलियों को बता दिया है कि मेरी दीदी मुझे भी ले जाएगी समुद्र भी तो देखना है ना मुझे, है ना मां!” शुभा की प्यारी बातें घर के माहौल को सामान्य बना रहीं थीं.
अगले महीने से ही कंपनी जॉइन कर ली थी ऋचा ने और अपने काम में मन लगाने लगी. महीने दो महीने में घर जाती और एक बार मां और शुभा को भी साथ ले आई थी.
बड़े शहर की चकाचौंध से शुभा इतनी प्रभावित हुई कि कहने लगी, “दीदी, आगे की पढ़ाई इसी शहर में करूं क्या?”
“क्यों, एक साल ही बचा है ग्रेजुएशन में तेरे, तेरे कॉलेज में क्या बुराई है?” ऋचा ने समझाया.
“ऋचा, तेरे रिश्ते की बात करनी है अब. तू देख कि कैसा लड़का तलाश करना है. आजकल तो इश्तहारों, कंम्पयूटर से देखते हैं. देखती रहना, कोई अच्छा रिश्ता हो तो बात आगे बढ़ेगी,” मां ने इस बड़े शहर में रहती अपनी जवान बेटी को समझाया.
ऋचा ने हौले से सिर हिलाया.
क्या कहती कि दूध से जला तो छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है. आजकल ऋचा का स्वभाव बहुत कठोर होता जा रहा था. एक बार फिर वह अपने दायरों में सिमट कर रहना पसंद करने लगी थी.
ऑफ़िस में काम करते वक्त भी बहुत कम लोगों से हंसती बोलती थी. ऑफ़िस में निधि उसकी एक अच्छी दोस्त बन गई थी. ऋचा उससे कुछ घुल-मिल गई थी.
दीपक, हां यही नाम था जिसने उसे प्रभावित किया था. काम से काम रखना और हमेशा दूसरों के सम्मान का ध्यान रखकर बोलना, विशेषकर महिलाओं से. एक सुलझा हुआ, समझदार और ज़िम्मेदार व्यक्ति लगता था.
“दीपक ने बहुत कठिनाइयों में से रास्ता बनाया है ऋचा. हमारे गांव के पास का ही है. पिता की असमय मृत्यु के बाद, मां दूसरे के खेतों में काम करती थी. दीपक भी स्कूल के बाद जाता था. उसने खेती, सामान ढोने जैसे कई काम किए और बोर्ड परीक्षा में, स्कूल का सबसे अधिक अंक लाने वाला विद्यार्थी रहा,” निधि ने दीपक के परिवार, उसकी मेहनत का सारा ब्यौरा प्रस्तुत किया था.
ना जाने क्यों, एक सहानुभूति, एक लगाव महसूस करने लगी थी ऋचा. दीपक भी कई बार उसे देखता था. ऋचा का दिल एक बार फिर कल्पनाओं की उड़ान भरने को तैयार हो रहा था. निधि ने शायद ऋचा की पारिवारिक स्थिति और ज़िम्मेदारियों का ज़िक्र दीपक से भी किया था, ऐसा ऋचा महसूस करने लगी थी.
हाथ में पकड़ी चप्पल ऋचा ने पैरों में पहन ली. चप्पलों में बची-खुची रेत, पैरों को अब हल्की चुभन दे रही थी. सूर्य अब अपनी लाल गठरी समेटे, सुबह तक के लिए विदा मांग रहा था. आज शनिवार की छुट्टी थी इसलिए शाम का समय ऋचा ने समुद्र के किनारे बिताने का सोचा था. जाते हुए कुछ खा कर चली जाएगी, किनारे पर लगने वाले चाट, पावभाजी और गोल-गप्पे इसलिए तो लगाए जाते हैं कि घर जाकर रोज़ की तरह खाना ना बनाना पड़े.
पिछले कुछ महीनों में, दीपक और ऋचा के बीच एक मौन संवाद चल रहा था. आंखों ही आंखों में एक-दूसरे को सराहते हुए कई बार सबके बीच एक दूसरे के कामों को सपोर्ट करने लगे थे. चाय के समय, सबके साथ जाना, बातचीत करना अब दोनों को अच्छा लगने लगा था.
“मां तो पूछती हैं, पर दीपक ने कभी कोई पहल नहीं की, कैसे कुछ बोल सकती हूं मैं मां से.” अपने पहले अनुभव की परछाई से दूर नहीं जा पाती थी ऋचा.
“दीपक का परिवार, उसकी मेहनत की बातें निधि ने जो बताया है उससे तो वह एक अच्छा लड़का जान पड़ता है. ऑफ़िस में भी बहुत संयमित रहता है.” ऋचा का मन बार-बार दीपक के इर्द-गिर्द घूमने लगा. एक बार हृदय में जो गांठ पड़ चुकी थी उसे खोलकर प्रेम का अनुभव करना ऋचा के लिए मुश्क़िल हो रहा था.
चाट के ठेले पर पहुंचकर ऋचा ने ठेलेवाले से एक चाट और गोल-गप्पे का आर्डर किया.
“ऋचा, चाट तो फिर भी एक में चला लेंगे परंतु गोल-गप्पे तो दो ही मंगवा लो.” सामने दीपक खड़ा था. सफ़ेद टी-शर्ट और नीले रंग की जींस पहने, मुस्कुराता हुआ चेहरा, जिसे अभी-अभी ऋचा ने अपनी कल्पनाओं में बुना था.
“अरे आप! आप कब आए?” हड़बड़ी में बोल पड़ी ऋचा.
“आप नहीं, ‘तुम’ कह सकती हो.” दीपक ने अपनेपन से कहा.
“ऋचा, मेरी मां, मेरा छोटा भाई और बहन है. सभी को तुम पसंद हो. तुम्हारी ज़िम्मेदारी, तुम्हारी मां और बहन के प्रति तुम्हारे कर्त्तव्य में कभी कोई मुश्क़िल नहीं आएगी,” दीपक ने बिना कोई भूमिका बांधे, सादे लहजे में जीवन खोलकर रख दिया.
ऋचा के हृदय में लगीं गांठें अचानक खुल गईं और प्रेम का संचार होने लगा.
मन कहने लगा, यही है जिसके साथ तुम सुखी रह सकती हो. कुछ कहने के लिए उसने होंठ खोले तो नज़रों ने साथ नहीं दिया. उसकी झिलमिलाती आंखों को अपने रुमाल से पोंछते दीपक ने कहा,”ज़िंदगी आगे बढ़ने का नाम है ऋचा. जो हुआ उसे भूलकर हम साथ साथ आगे चलेंगे.”
हाथों में हाथ थामें दोनों डूबते सूरज की अंतिम छटा को निहारने लगे. इस डूबते सूरज के बाद कल की नई सुबह का सूरज, दीपक और ऋचा की आंखों में चमक रहा था.
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट