कूड़ा बीनते बच्चों को देखकर किसका मन द्रवित नहीं होता होगा! कूड़ा बीनते बच्चों को देखकर कोई भी संवेदनशील मन दो काम करता होगा, पहला-शर्म से अपना सिर झुका लेता होगा और दूसरा-उन बच्चों की ज़िंदगी के बारे में सोचता होगा. कवयित्री अनामिका कूड़ा बीनते बच्चों की अभावों वाली ज़िंदगी का चित्र खींच रही हैं.
उन्हें हमेशा जल्दी रहती है
उनके पेट में चूहे कूदते हैं
और ख़ून में दौड़ती है गिलहरी!
बड़े-बड़े डग भरते
चलते हैं वे तो
उनका ढीला-ढाला कुर्ता
तन जाता है फूलकर उनके पीछे
जैसे कि हो पाल कश्ती का!
बोरियों में टनन-टनन गाती हुई
रम की बोतलें
उनकी झुकी पीठ की रीढ़ से
कभी-कभी कहती हैं
‘कैसी हो,’ ‘कैसा है मंडी का हाल?’
बढ़ते-बढ़ते
चले जाते हैं वे
पाताल तक
और वहां लग्गी लगाकर
बैंगन तोड़ने वाले
बौनों के वास्ते
बना देते हैं
माचिस के ख़ाली डिब्बों के
छोटे-छोटे कई घर
ख़ुद तो वे कहीं नहीं रहते,
पर उन्हें पता है घर का मतलब!
वे देखते हैं कि अकसर
चींटे भी कूड़े के ठोंगों से पेड़ा खुरचकर
ले जाते हैं अपने घर!
ईश्वर अपना चश्मा पोंछता है
सिगरेट की पन्नी उनसे ही लेकर
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