एक औरत को मरने की भी फ़ुर्सत नहीं होती, ख़ासकर जब वह मां होती है. लोकप्रिय कवयित्री अनामिका की कविता ‘मरने की फ़ुर्सत’ का यही भाव है.
ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक धर्म
ग्यारह बरस की उमर से
उनको ठिठकाए ही रखता
देवालय के बाहर!
वेथलेहम और यरूजलम के बीच
कठिन सफ़र में उनके
हो जाते कई तो बलात्कार
और उनके दुधमुंहे बच्चे
चालीस दिन और चालीस रातें
जब काटते सड़क पर,
भूख से बिलबिलाकर मरते
एक-एक कर
ईसा को फ़ुर्सत नहीं मिलती
सूली पर चढ़ जाने की भी
मरने की फ़ुर्सत भी
कहां मिली सीता को
लव-कुश के
तीरों के
लक्ष्य भेद तक?
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