चंद्रयान-3 को आज इसके लंबे सफ़र पर रवाना कर देने की तैयारियां पूरी कर ली गई हैं. लक्ष्य इसमें मौजूद लैंडर को 23 अगस्त के दिन चंद्रमा पर उतारने का है. चंद्रयान-3 किस तरह चंद्रमा तक पहुंचेगा, इसमें चंद्रयान-2 की तुलना में किस तरह के बदलाव किए गए हैं और आख़िर यह किस मक़सद को पूरा करेगा इसके बारे में तफ़सील से बता रहे हैं जानेमाने पत्रकार, लेखक व कवि चंद्र भूषण.
चंद्रयान-3 को आज इसके लंबे सफ़र पर रवाना कर देने की तैयारियां पूरी कर ली गई हैं. लक्ष्य इसमें मौजूद लैंडर को 23 अगस्त के दिन चंद्रमा पर उतारने का है, ताकि चांद की सतह पर चहलक़दमी करने वाला रोवर वहां 14 दिन लंबे एक चंद्र-दिन की रोशनी का भरपूर फायदा उठा सके.
चंद्रमा तक पहुंचने का इसका रास्ता ठीक वैसा ही होगा जैसा चंद्रयान-2 का था. प्रक्षेपण के बाद धीरे-धीरे अपना दायरा बढ़ाते हुए पृथ्वी की एक तीखी इलिप्टिकल कक्षा में पहुंचना, इस प्रक्रिया में पलायन वेग (एस्केप वेलॉसिटी) हासिल करके अपने सफ़र का मुख्य भाग सूरज के इर्दगिर्द पृथ्वी की कक्षा में तय करना, फिर चंद्रमा की एक बड़ी गोलाकार कक्षा में प्रवेश लेना और अंत में छोटी होती स्थिर कक्षा में पहुंच कर लैंडर को चंद्रमा पर उतारने की प्रक्रिया शुरू कर देना.
चंद्रयान-2 का एक काम चंद्रमा की कक्षा में ऑर्बिटर की स्थापना का भी था, जो इस बार नहीं करना है. वर्ष 2019 में वहां स्थापित किया हुआ ऑर्बिटर आज भी चाक-चौबंद है. चंद्रयान-3 की सफलता में उसकी एक अहम भूमिका होगी. जितनी उत्सुकता चंद्रयान-3 को लेकर अभी भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में देखी जा रही है, वह अब तक विरले ही अंतरिक्ष अभियानों के हिस्से आई है. कारण यह कि चंद्रयान-2 मंजिल के बहुत क़रीब पहुंचकर पूर्ण सफलता से चूक गया था.
सबके मन में यह सवाल है कि इसरो अपनी उस नाकामी से क्या इतनी सीख ले पाया है कि चार साल के अंदर ही उसे कामयाबी में बदलकर दिखा दे? ऐसा हो गया तो यह एक असाधारण काम को किसी तुक्के में नहीं, बल्कि डंके की चोट पर पूरा कर लेने जैसा होगा. बिल्कुल संभव है कि इस सफलता के बाद इसरो को चंद्र अभियानों के मामले में भी उतनी ही कुशल और भरोसेमंद संस्था माना जाने लगे, जितना अभी छोटे उपग्रहों की स्थापना के मामले में समझा जाता है. चंद्रमा को लेकर जैसी आपाधापी इधर पूरी दुनिया में देखी जा रही है, उसमें इस बात के कुछ अलग मायने होंगे.
आधी सदी का फ़ासला और चीन
आगे बढ़ने से पहले एक बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि देश-विदेश में चंद्र अभियानों को लेकर मौजूद तमाम जानकारियों में भारी कन्फ़्यूज़न है. एक तल्ख़ हक़ीक़त को सूचनाओं के इस अंबार में सचेत ढंग से छिपाया जाता रहा है. यह बात सुनने में बड़ी प्यारी लगती है कि चंद्रमा पर सॉफ़्ट लैंडिंग यानी सुरक्षित रूप में यान उतारने की उपलब्धि अभी तक सिर्फ़ अमेरिका, रूस और चीन ने हासिल की है. चंद्रयान-3 की सॉफ़्टलैंडिंग कराकर भारत इस सूची में चौथा देश बन सकता है.
इससे ऐसा लगता है कि कम से कम तीन देशों के लिए तो चंद्रमा पर यान उतारना अब एक सामान्य बात हो गई होगी. सचाई यह है कि मानवजाति चंद्रमा पर सॉफ़्ट लैंडिंग की तकनीक एक बार ईजाद करके जैसे भूल ही गई है. इससे यह षड्यंत्र सिद्धांत चल निकला कि चंद्रमा पर अपोलो कभी उतरा ही नहीं. तथ्यों पर जाएं तो चंद्रमा पर सुरक्षित तरीक़े से अपना अंतिम यान अमेरिका ने वर्ष 1972 में उतारा था, जबकि रूस, या यूं कहें कि सोवियत संघ ने यह काम अंतिम बार वर्ष 1976 में किया था. तब से लेकर अब तक गुज़री आधी सदी में ये दोनों देश टेलिस्कोप से या किसी खोजी उपग्रह की आंखों से ही चंद्रमा को निहारते आ रहे हैं.
गहरे प्रेक्षण के लिए आम चलन किसी चीज़ को पूरे वेग से चंद्रमा की सतह पर गिराने का रहा है, जैसा चंद्रयान-1 के साथ हुआ था. इससे जो धूल और भाप उड़ती है, उसकी स्पेक्ट्रोग्राफ़ी से चांद की बनावट को लेकर नतीजे निकाले जाते हैं. पृथ्वी के इस अकेले उपग्रह पर सॉफ़्टलैंडिंग में अकेली महारत फिलहाल चीन को हासिल है, जिसने वर्ष 2013 से वर्ष 2020 के बीच यह काम तीन बार फ़ुलप्रूफ़ ढंग से किया है.
अमेरिका, रूस, चीन और भारत के अलावा चंद्रमा पर यान उतारने की कोशिश इज़राइल ने भी की है, लेकिन वर्ष 2019 में उसके यान बेरेशीट के लिए नतीजा अच्छा नहीं रहा. सतह पर पहुंचने से दो किलोमीटर पहले कमांड सेंटर से उसका संवाद टूट गया और लैंडर का कुछ पता नहीं चला.
फ़ेल्यर बेस्ड मॉडल
इसरो का कहना है कि चंद्रयान-3 को लेकर उसकी तैयारी चंद्रयान-2 के उलट तरीक़े से की गई है. इसे फ़ेल्यर बेस्ड मॉडल कहा जा रहा है. यानी किन-किन स्थितियों में क्या-क्या गड़बड़ हो सकती है, इस आशंका को सामने रखते हुए सारी तैयारियां की गई हैं. इसके अलावा लैंडिंग के लिए इलाक़ा भी पहले से ज़्यादा बड़ा, लगभग पचास गुना चुना गया है.
चंद्रयान-2 द्वारा स्थापित ऑर्बिटर ने लैंडिंग के लिए निर्धारित इलाक़े की काफ़ी ब्यौरेवार तस्वीरें पिछले चार साल में इसरो को मुहैया कराई हैं. अभी इन तस्वीरों के आधार पर लैंडिंग वाली जगह पर 28 सेंटीमीटर तक की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई वाली चीज़ों का ब्यौरेवार खाका इसरो ने तैयार कर रखा है. लैंडर की बनावट ऐसी है कि उसका एक पाया दो मीटर ऊंची चट्टान पर पड़ जाए तो भी वह असंतुलित होकर ढह नहीं जाएगा. फिर भी उतराई के दौरान रफ़्तार नियंत्रित रहे तो लैंडिंग के लिए जमीन जितनी समतल मिलेगी, लैंडर और रोवर की सुरक्षा के लिए उतना ही अच्छा रहेगा.
याद रहे, चंद्रमा पर हवा बिल्कुल ही नहीं है, लिहाजा न पैराशूट काम करते हैं, न गुब्बारे, न ही ग्लाइडर नुमा कोई ढांचा. नीचे आने की रफ़्तार और दिशा रॉकेटों से ही नियंत्रित करनी होती है. चंद्रयान-2 के लैंडर में इस काम के लिए पांच रॉकेट लगाए गए थे. चार कोनों पर और पांचवां बीच में. चंद्रयान-3 के लैंडर में ईंधन बढ़ाया गया है, लेकिन बीच वाला रॉकेट हटा दिया गया है. चार रिवर्स रॉकेटों से ही इसकी रफ़्तार को पांच हज़ार मील प्रति घंटा की रफ़्तार से घटाकर लगभग शून्य गति से खटोले की तरह सतह पर उतार देना है.
क्या मक़सद सधेगा?
चंद्रयान-3 मिशन के पीछे इसरो का पहला मक़सद तो चंद्रमा पर सॉफ़्टलैंडिंग और उसपर अपनी खोजी गाड़ी चलाने की क्षमता प्रदर्शित करना ही है, लेकिन इसके साथ भेजे जा रहे यंत्र आगे के महत्वाकांक्षी अभियानों के लिए कुछ बहुत ज़रूरी प्रेक्षण भी लेंगे. लैंडर को चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास, 70 डिग्री अक्षांश और 32 डिग्री देशांतर में उतारने का सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि यहां बर्फ़ मिलने की संभावना तुलनात्मक रूप से ज़्यादा है.
अमेरिका, रूस और चीन ने अपने यान चंद्रमा की भूमध्य रेखा के पास उतारे हैं, जो कम्युनिकेशन की दृष्टि से अच्छी जगह है. चंद्रयान-2 के क्षेपण से पहले चीनी अंतरिक्ष विज्ञानियों ने चिंता जताई थी कि 70 डिग्री दक्षिण में रोशनी कम रहती है और संवाद भी कठिन हो जाता है. लेकिन चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास के इलाके संसाधनों की दृष्टि से काफ़ी बेहतर हैं. हमेशा छाया में रहने वाली जगहें उधर ज़्यादा हैं तो गैसीय संसाधनों की संभावना भी ज़्यादा होगी.
चंद्रयान-3 की कोशिश चंद्रधूल का तात्विक अध्ययन करने के अलावा वहां मौजूद पत्थरों की क्रिस्टलीय संरचना समझने की रहेगी. सतह के पास वायुमंडल जैसा, या धूल-भाप और आवेशित कणों के घोल जैसा कुछ है या नहीं, यह जानने का प्रयास भी वह करेगा. इसके लिए ज़रूरी यंत्र लैंडर और रोवर में लगे हैं. इसके अलावा सूक्ष्म भूकंपीय तरंगों का प्रेक्षण लेना भी इस मिशन का एक मक़सद है, जिनके अध्ययन से चंद्रमा की भीतरी सतहों और उसके केंद्र के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां मिल सकती हैं.
वैज्ञानिक प्रेक्षण
एक ज़रूरी प्रेक्षण चंद्रमा की ताप चालकता को लेकर लिया जाना है, यानी सूरज की भीषण गर्मी वहां कितनी जल्दी कितनी गहराई तक पहुंच पाती है. चंद्रमा पर भविष्य में बनने वाली वैज्ञानिक बस्तियों का स्वरूप काफ़ी कुछ इसी पर निर्भर करेगा. इस प्रेक्षण के लिए एक कील को चंद्रमा की सतह पर दस सेंटीमीटर गाड़ दिया जाएगा और सवा सौ डिग्री सेंटीग्रेड से भी ज़्यादा तापमान वाले, चौदह दिन लंबे तीखे चंद्र-दिन में कील के हर हिस्से के तापमान का प्रेक्षण लेते हुए चंद्रमा की ताप चालकता, गर्मी भीतर पहुंचने के गुण को लेकर पहली बार कुछ नतीजे निकाले जाएंगे.
यहां चंद्रमा के दिन-रात को लेकर कुछ ज़रूरी बातों का जिक्र भी ज़रूरी है. यह आकाशीय पिंड अपनी धुरी पर घूमता ही नहीं. लिहाजा जैसे धरती के दिन-रात इसके अपनी धुरी पर घूमने पर निर्भर करते हैं, वैसा कुछ चंद्रमा के साथ नहीं है. जो हिस्सा सूरज के सामने पड़े वहां दिन और जो पीछे पड़े वहां रात. चंद्रमा पर रात के समय थर्मामीटर में पारा जीरो से बहुत नीचे, माइनस 173 डिग्री सेंटीग्रेड- कभी थोड़ा कम, कभी ज़्यादा- तापमान दिखाता है. फिर रात बीतने पर धरती के चौदह दिनों जितना ही लंबा एक दिन वहां उगता है तो पारा धीरे-धीरे नहीं, बल्कि अचानक ही चढ़कर 127 डिग्री सेंटीग्रेड तक चला जाता है- सीधे 300 डिग्री सेंटीग्रेड की उछाल!
टेंपरेचर की यह रेंज इतनी बड़ी है कि कामकाजी दायरे में आने वाली धरती की ज़्यादातर चीजें सिर्फ़ इसके सर्द-गर्म के असर में आकर बिल्कुल नाकारा और जब-तब भुरभुरी होकर रह जाती हैं. इससे भी बड़ी समस्या रेडिएशन की है. सौर ज्वालाओं के साथ आने वाले जानलेवा रेडिएशन से बचाने के लिए ओज़ोन लेयर जैसी कोई चीज़ तो वहां है ही नहीं, ऐसी कोई आड़ भी खोजना मुश्क़िल है, जहां छिपाकर मशीनों के सर्किट बचाए जा सकें.
आर्टेमिस में इसरो
अभी जब वर्ष 1930 के दशक में प्रायोगिक तौर पर थोड़े-थोड़े समय के लिए वैज्ञानिकों को चांद पर रखने की बात अमेरिका और चीन में चल रही है, तब पहला सवाल सबके सामने यही है कि वहां ये रहेंगे कहां और उनके उपकरण काम कैसे करेंगे? चंद्रयान-3 चंद्रमा की जमीन पर ऐसे सवालों को हल करने की शुरुआत करेगा और इस मामले में वह चीन के अलावा यक़ीनन बाक़ी पूरी दुनिया से आगे रहेगा.
उसकी जुटाई हुई सूचनाओं का महत्व भारत के बाद किसी के लिए सबसे ज़्यादा होगा तो वह है अमेरिका, जिसके नेतृत्व में चल रहा आर्टेमिस अभियान तकनीक और निवेश में काफ़ी आगे होते हुए भी ज़मीनी नतीजों के मामले में बहुत पीछे है. थोड़ा ही पहले, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के समय इसरो को आर्टेमिस अभियान से जोड़ने को लेकर एक समझौता हुआ है. दुनिया की कई अंतरिक्ष एजेंसियां पहले से ही इस अभियान का हिस्सा हैं, लेकिन इसरो जैसी उपलब्धियां इनमें किसी के पास नहीं हैं.
चंद्रयान-1 की कोशिशों से ही पहली बार चंद्रमा को संसाधनों की नज़र से देखा गया, वरना अमेरिकियों ने तो उसे पत्थर और धूल का ढेर मानकर छोड़कर दिया था. इसरो की प्रतिष्ठा आर्टेमिस से जुड़ने के बाद और बढ़े, जुड़ाव की इस प्रक्रिया में मिलने वाली सूचनाएं और संसाधन अमेरिका के ही न मान लिए जाएं, भारत का भी इनपर बराबरी का अधिकार रहे, यह सुनिश्चित करना राजनीतिक नेतृत्व का काम है.