टमाटर की बढ़ी क़ीमतों पर इन दिनों चारों ओर हल्ला है. जब टमाटर या प्याज़ या अदरक की क़ीमत खुदरा बाज़ारा में बढ़ती है तो हम अपनी जेब में होने वाले छेद पर चर्चा करते हैं, लेकिन हम उस स्थिति को याद नहीं करते जब सब्ज़ियां और टमाटर जैसी जल्द ख़राब होने वाली चीज़ों को उगाने वाले किसान अपने माल की लागत तक न निकल पाने के कारण इन चीज़ों को सड़क पर फेंकने को बाध्य हो जाते हैं. कमाल की बात यह है कि आज तक भी हम किसानों को इस स्थिति से बचाने का कोई माकूल तरीक़ा नहीं अपना पाएं हैं. यूं तो मेरी डायरी में दर्ज ये क़िस्सा सात साल पुराना है, पर हालात् आज भी जस के तस बने हुए हैं!
तो जनाब! बात आज से छह-सात बरस पहले की है. जून महीने की शुरुआत थी. मुंबई से नासिक, त्र्यंबकेश्वर जाना हुआ. जाते समय रास्ते के दोनों ओर ढेरों टमाटर और ढेरों प्याज़ पड़ा हुआ था. इनसे लदे कई ट्रक भी खड़े थे. लौटते समय भी जब वही दृश्य दिखाई दिया तो हमने पतिदेव से कहा, ‘यहां से टमाटर ले लेते हैं. सस्ते मिल जाएंगे.’
ड्राइवर ने कैब रोकी और हमारे नीचे उतरते ही दो-तीन लोग आ गए. ‘मुझसे लीजिए, मुझसे लीजिए’ की आवाज़ें आने लगीं. हम एक किसान की ओर मुख़ातिब हुए तो उसने कहा, ‘मैडम कम से कम 50 रुपए के टमाटर लेने होंगे आपको.’ तब मुंबई में 20 रुपए किलो टमाटर मिला करते थे. हमने बिल्कुल शहरी अंदाज़ में कहा, ‘हां-हां बिल्कुल.’ बंदे ने कहा, ‘ये क्रेट देख लीजिए, इसी में से टमाटर गाड़ी में रखवाता हूं.’
कच्चे-पक्के टमाटर थे, जो देखने में ही एकदम ताज़े लग रहे थे. मैंने कहा, ‘ठीक है.’ वह बोला, ‘आप गाड़ी में बैठिए मैं डिक्की में रखवा देता हूं.’ पतिदेव और सुपुत्र गाड़ी में बैठ गए. मैं उत्सुकतावश डिक्की के पास ही खड़ी हो गई, यह सोचते हुए कि कितने रुपए किलो देगा ये तो पूछा ही नहीं. जब वह टमाटर रखने के लिए डिक्की के पास आया तो मैं अचरज में थी, ‘मैंने कहा इतने सारे? मुझे सिर्फ़ पचास रुपए के चाहिए.’ वह बोला, ‘पचास रुपए के ही दे रहा हूं मैडम.’
उसने 50 रुपए में मुझे 15 किलो टमाटर दिए. कहां तो मैं यह सोच कर ख़ुश थी कि थोड़े सस्ते टमाटर मिलेंगे, लेकिन 50 रुपए के इतने टमाटर लेकर अब कहां मैं रुआंसी हो आई थी. सस्ते टमाटरों की ख़ुशी काफ़ूर हो गई थी. मैं पूरे रास्ते दुखी थी, जो टमाटर हमें 20 रुपए किलो मिलता है, उसे उगाने वाले को अपनी मेहनत के लिए केवल प्रति किलो तीन या साढ़े तीन रुपए मिलते हैं? बस!!!
रास्तेभर मैं अपने पति से बात करती आई कि आज़ादी के इतने साल बाद भी हम किसानों को उनके हक़ के पैसे नहीं दे पाए? जल्दी ख़राब होने वाली सब्ज़ी जैसी चीज़ों (पेरिशेबल आइटम्स) के लिए सस्ते कोल्ड स्टोरेज क्यों उपलब्ध नहीं करवा पाए? जिस तरह फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया के गोदाम हैं, जहां गेहूं, चावल वगैरह स्टोर किए जाते हैं. क्यों उन्हें अपनी मेहतन इस तरह सड़कों पर बिखेरनी पड़ती है? मेहनती लोगों को इतना कम पैसा और बीच के लोग जो सिर्फ़ माल को बाज़ार तक लाते हैं, उन्हें इतना मुनाफ़ा क्यों मिलता है? बिचौलिए सात-आठ गुना ज़्यादा कमाते हैं. फिर किसान ऐसी सब्ज़ियां क्यों उगाएं, जिनकी उन्हें लागत ही न मिले? भाव बढ़ें तो बढ़ते रहें!
हमने और हमारे पड़ोसियों व दोस्तों ने 50 रुपए के वो टमाटर सप्ताह भर तक खाए और यक़ीन मानिए कि हर दिन मेरा मन दुखी, बहुत दुखी ही रहा.
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट, eater.com