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संबल ज़िंदगी के: पूनम अहमद की लघु कथा

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
May 30, 2022
in नई कहानियां, बुक क्लब
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संबल ज़िंदगी के: पूनम अहमद की लघु कथा
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जब ज़िंदगी हमारे सामने अचानक कोई ऐसी कमी पैदा कर देती है, जिसकी भरपाई संभव न हो तो क्या बड़े और क्या बच्चे, सभी जीवन को जीने के लिए एक संबल तलाशते हैं. ताकि ज़िंदगी में दोबार उठ खड़े होने की इच्छा को पोषित कर सकें. यह लघुकथा एक छोटी बच्ची के अपने पिता को खो देने के बाद अपने तरीक़े से ज़िंदगी के संबल ढूंढ़ने की भावपूर्ण दास्तां है.

शोभा स्कूल से आई तो देखा फिर मीनू घर पर नहीं थी, उसे बहुत तेज़ ग़ुस्सा आया.
‘इस लड़की ने हद्द कर रखी है! आज आ जाए घर! ख़ूब डांटूंगी!’
शोभा मन ही मन ग़ुस्से में सोचते हुए अपने हाथ भी चलाती जा रही थी, ताकि काम निपटा सके.

कुछ ही दिन पहले शोभा के पति विपिन की डेथ हुई थी. दस साल की बेटी मीनू आजकल जब देखो, सामने वाले घर में रहने वाली अपनी सहेली आरती के घर बार बार भागती है. पहले-पहल तो शोभा ने कुछ नहीं कहा. सोचा, ‘जाने दो, मन नहीं लगता होगा, ज़्यादातर अकेली ही तो रहती है!’

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वह ख़ुद एक स्कूल में टीचर है. उसे तो स्कूल से आते आते दो बज ही जाते हैं. पर यह क्या बात हुई, जब देखो, आरती के घर? ज़माना इतना ख़राब है और मैं अपनी नौकरी करूं या घर में बैठ कर मीनू की देखभाल करूं? कितनी बार समझा चुकी हूं कि ऐसे किसी के घर इतना नहीं जाते!

फिर विपिन के बारे में सोचते हुए शोभा आंखें भर आईं. ऐसे अचानक कौन जाता है?

तभी गेट पर आवाज़ हुई, देखा, मीनू थी. आते ही मां के गले में झूल गई, “मम्मी, आप आ गईं? अब खाना लगा लें? बड़ी भूख लगी है!”
शोभा का कलेजा कुछ मोम-सा हुआ. जब तक शोभा स्कूल से नहीं आ जाती है, मीनू खाना नहीं खाती. उसका इंतज़ार करती है. छोटी सी बच्ची है, घबरा जाती होगी. पर समझाना भी तो ज़रूरी है! शोभा ने मीनू के साथ खाना लगा कर बैठते हुए कहा, “मीनू, कहां थीं?”
“मम्मी, बस आरती के घर ही तो जाती हूं!”
“इतनी बार नहीं जाते किसी के घर. अच्छा नहीं लगता. जबसे तुम्हारे पापा गए हैं, तभी से तुम उसके घर कुछ ज़्यादा ही जाने लगी हो. क्यों? अपने पापा के सामने तो उसके पास इतना नहीं जाती थीं.”
मीनू का चेहरा उतर गया, डरते डरते, धीरे धीरे बोली, “मम्मी, आरती से मिलने नहीं जाती हूं. मैं उसके पापा को देखने जाती हूं!”
शोभा चौंकी, “मतलब?”
“घर में अब अच्छा नहीं लगता, मम्मी. पापा याद आते रहते हैं, जब पापा की ज़्यादा याद आती है, आरती के घर भाग जाती हूं. अंकल घर पर होते हैं तो मेरे सर पर हाथ रखते हैं, मेरी पढ़ाई के बारे में पूछते हैं. आरती के और मेरे साथ भी खेलते हैं. मुझे उन्हें देखना, उनसे बातें करना अच्छा लगता है. अंकल ने कहा है कि मैं भी आरती की तरह उनकी बेटी हूं. अंकल भी पापा की तरह किताबों से कहानी पढ़ कर सुनाते हैं, पहेलियां पूछते हैं, कैरम खेलते हैं. आरती के साथ उन्हें देख कर मुझे पापा याद आते रहते हैं और मुझे लगता है जैसे पापा भी मेरे आसपास ही हैं!बस, जब भी पापा याद आते हैं न, अंकल को देखने भाग जाती हूं, मम्मी!”

शोभा की आंखों से अनवरत आंसुओं की धारा बह निकली. उसने मीनू को अपने सीने से लगा लिया और रो पड़ी, ‘‘मेरी बच्ची!’’
शोभा सोच रही थी,‘मीनू कैसे अपना दुःख भूलने की, अपने अकेलेपन से निपटने की अपनी तरह से कोशिश कर रही है. अकेली ही ज़िंदगी के संबल तलाश रही है. मुझसे अपने मन का अकेलापन कहा भी नहीं कभी, क्योंकि शायद जानती है कि मैं पहले से ही दुखी हूं.’
शोभा को रोते देख मीनू ने रुआंसी हो कर कहा, “मम्मी, आप मत रो, सॉरी! मैं नहीं जाऊंगी अब आरती के घर!”
“नहीं, मेरी बच्ची, उसके घर जाकर अच्छा लगता है तो चली जाना. अब तो हम दोनों को इस दुःख से निपटने के रास्ते ढूंढ़ने ही हैं. यह आसान नहीं है, पर जीना तो है ही!अपने दुःख को भुलाने के तुम्हारे इस रास्ते को मैं अभी ही जान पाई हूं,” शोभा का दुख में भीगा आत्मीय स्वर आया.

दोनों मां-बेटी एक दूसरे को भीगी आंखों से देख ही रही थीं कि इतने में आरती आ गई.
‘‘हेलो आंटी!’’ कहते हुए मीनू को एक किताब देते हुए बोली, “पापा ये एक किताब मेरे लिए लाए हैं और एक तेरे लिए. तुझे भी ये कॉमिक अच्छा लगता है न?” मीनू की आंखों की चमक देख शोभा के दिल को एक सुकून सा मिला.

शोभा सोच रही थी कि पिता जैसा पुरुष अपने आसपास देख मीनू को ख़ुशी मिलती है. उसका अकेलापन कम होता है तो ठीक है. उसने अपने दुःख को कम करने का यह रास्ता चुना है, इसमें कोई बुराई नहीं. छोटा हो या बड़ा हर किसी के दुःख से निपटने के अपने अलग तरीक़े हैं, ज़िंदगी जीने का संबल पाने के अलग ढंग हैं. और मीनू का तरीक़ा तो बहुत ही अलग है. शोभा ने अचानक अपनी बेटी को अपनी बाहों में भर कर उसका माथा चूम लिया.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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