मन्नू भंडारी कहानी की एक विधा ‘नई कहानी’ की एक प्रसिद्ध रचनाकार हैं, जिनकी रचनाएं उनके समकालीन रचनाकारों की तुलना में संख्या में बहुत कम बहुत कम होते हुए भी अपनी ख़ास पहचान रखती हैं. साहित्य में उनका योगदान उनकी मार्मिक तथा उद्देश्यपूर्ण कहानियों के कारण अतुलनीय माना जाता है. प्रस्तुत है लेखिका के साथ उनके साउथ एक्स, दिल्ली के निवास स्थान पर तब शोध छात्रा (वर्ष 1989) और अब लेखिका भावना प्रकाश की एक अनौपचारिक बातचीत के अंशों का दूसरा भाग
कहानी तो सबके लिए साहित्य की सबसे रुचिकर विधा है. मेरी कुछ ज़्यादा ही रही होगी, इसीलिए स्नातकोत्तर में हिंदी साहित्य लेने पर ये जानकर कि एक पूरा प्रश्न-पत्र ‘फ़िक्शन’ का है, उत्साह में पूरा पुस्त्कालय खंगाल डाला और पाठ्यक्रम की सभी कहानियां जमाकर पढ़ने बैठ गई. लेकिन ये क्या? मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ के अलावा और कोई कहानी एक अनुच्छेद से ज़्यादा पढ़ी न जा सकी. लेकिन इसके सबसे रुचिकर विषय में बदलने का सप्ताह बड़ा दिलचस्प है. हम कुमायूं विश्वविद्यालय, नैनीताल में थे और ‘फ़िक्शन’ के सर थे डॉक्टर लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’. जिन्होंने दिलचस्पी को ध्यान में रखकर मनोरंजन के उद्देश्य से लिखी जाने वाली ‘कथा’ और नामचीन साहित्यकारों द्वारा समाज में जागरूकता लाने या हमें सोचने के लिए विवश करने को लिखी गईं ‘नई कहानी’ नाम की विधा का अंतर समझाते हुए आरंभ का एक सप्ताह केवल इनमें हमारी रुचि विकसित करने को दिया. ‘बिटविन द लाइंस’ को पहचानना सिखाया तो सर की बातों के प्रमाण मिलते गए, ‘कहानी वही सार्थक है जो बौद्धिक विकास करे और सोच को परिपक्व बनाए.’
फिर तो जैसे-जैसे पढ़ती गई, डूबती गई. वो जूझ, वो संघर्ष, जीवन के उतार-चढ़ाव दर्शाती कहानियां; समाज की, मानव मनोविज्ञान की अनछुई सच्चाइयां उकेरती, सोच को झकझोरती, विचारों को व्यापकता और चेतना को नए आयाम देती कहानियां इतनी भाईं कि शोध का विषय ‘नई कहानी की परिवेशगत भूमिका’ सोच लिया. लघु शोध संक्षिप्त होता है. किसी एक साहित्यकार को ही ले सकते हैं तो ज़ाहिर है, जो कथाकार सबसे ज़्यादा पसंद आया था उसे ही लेना था.
सर को जब पता चला कि दिल्ली में मेरे भाई रहते हैं, जहां हम जाड़े की छुट्टियों में जा रहे हैं, तो उन्होंने तुरंत मन्नू भंडारी जी का पता और फ़ोन नम्बर देते हुए कहा कि हो सके तो उनसे ज़रूर मिलना. बहुत अच्छा व्यक्तित्व है उनका. तुम्हें ख़ुशी भी होगी और ये अनुभव तुम्हारे ज्ञान को ही समृद्ध नहीं करेगा, बल्कि तुम्हारे शोध को भी पूर्णता देगा.
फिर क्या था, मैं भैया के साथ स्कूटर पर निकल पड़ी. रास्ते में बहुत नर्वस थी. कैसे होते होंगे नामचीन साहित्यकार. किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से मिलने का ये मेरा पहला मौक़ा था. जब उनके घर पहुंची तो भैया ने पूछा, “मेरा स्कूटर ठीक जगह खड़ा है? कोई दिक़्क़त तो नहीं?’’ तो वो ठीक वही बोलीं जिस पर रास्ते में लग ही रहा था लौटकर मम्मी से डांट खानी ही है,“तुम लोग स्कूटर से आए हो? वो भी स्वैटर पहने बिना? ठंड नहीं लगती? अच्छा चलो, बैठो, पहले कॉफ़ी मंगाती हूं.’’
मुझे लगा ‘अरे, ये तो बिल्कुल मम्मी की तरह हैं’ मेरी सारी नर्वसनेस दूर हो गई और बातचीत का प्रवाह बह निकला…
आपका प्रसिद्ध उपन्यास ‘आपका बंटी’ तलाक़ के बाद सफलता पूर्वक जीवन में आगे बढ़ने और अपनी भावनात्मक समस्याओं पर जीत हासिल करने वाली नारी की कहानी भी है और माता-पिता के अलगाव के कारण टूटन झेलते बच्चे की भी. त्रिशंकु कहानी संग्रह की भूमिका में कवि अजित कुमार से आपकी बातचीत पढ़ी, जिसमें आपने कहा है कि ‘आपका बंटी’ तलाक़ विरोधी उपन्यास नहीं है. आपने नायिका ‘शकुन’ को तलाक़ को लेकर कहीं दोषी नहीं ठहराया, जबकि ‘आपका बंटी’ की भूमिका में कहा है– ‘जीते जागते बंटी का तिल-तिल करके समाज की बेनाम इकाई बनते जाना यदि पाठक को केवल अश्रु-विगलित ही करता है तो मैं समझूंगी कि ये पत्र सही पते पर नहीं पहुंचा. तो यदि बंटी तलाक़ विरोधी उपन्यास नहीं है तो बंटी के पाठक को अश्रु-विगलित करने के अतिरिक्त और क्या करने के उद्देश्य से आपने ये चरित्र गढ़ा?
तलाक़ हमारे समाज की बढ़ती हुई समस्या है. स्त्री स्वतंत्र और शिक्षित हो रही है. विशेषकर मध्यवर्गीय परिवारों में, जहां शिक्षा से औरतों में आत्मविश्वास आया है, वहां जब पुरुष सामंती दृष्टिकोण से मुक्त होगा तभी परिवार टिकेगा अन्यथा बंटी की समस्या सामने आएगी. तो मेरा उद्देश्य इस समस्या के प्रति आगाह करना है. जैसे-जैसे स्त्री में आत्मविश्वास आएगा, तलाक़ बढ़ेंगे. मैं इस बात का सपोर्ट नहीं करती, पर परिवार को बचाकर रखने की कोई नैतिकता थोपना भी उचित नहीं समझती. इस पत्र के द्वारा उस आनेवाली समस्या के प्रति सचेत करना चाहती हूं. चाहती हूं कि यह पत्र पाठक को वैचारिक स्तर पर झकझोरे, सोचने के लिए मजबूर करे कि बंटी का क्या होगा? यह स्पष्ट करना चाहा है कि तलाक में मां-बाप दोनों ही गलत हो सकते हैं, किंतु उनमें सबसे ज़्यादा बेगुनाह बच्चा ही सफ़र करता है. व्यक्ति के लिए यह एक भावनात्मक आवश्यकता है कि हम किसी के हैं, कोई हमारा है. बंटी के लिए भी यही है; किंतु मां-बाप दोनों से उपेक्षित होने पर उसका ये भावनात्मक संबल टूट जाता है, इसीलिए उपन्यास की अंतिम पंक्ति है: “पापा का चेहरा भी उन्हीं में मिल गया और फिर धीर-धीरे सारे चेहरे एक दूसरे चेहरे में गड्ड-मड्ड हो गए.“ अंसुआई आंखों से देखा कि बाप का चेहरा भी भीड़ में मिल गया, क्योंकि उसके लिए संबंध का अंतिम सूत्र समाप्त हो गया था.
मेरा कथन– सचमुच, झकझोरता तो है आपका ये उपन्यास. मैंने कई बार पढ़ा. हर बार रोई हूं.
मन्नू भंडारी (भावुक हो गईं)– एक बार तो लिखते हुए मैं भी फूट-फूटकर रो पड़ी थी.
तो रोकर क्या आपने समाधान ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की? बल्कि अनुरोध है कि इसके माध्यम से ‘नई कहानी’ में जो समस्या के चरम पर पहुंचकर सूत्र को उलझा छोड़ देने की प्रवृत्ति है, उसके बारे में एक ‘नई कहानी’ का कथाकार होने के नाते कुछ कहिए.
आपका ये प्रश्न मुझे बहुत अच्छा लगा. ‘नई कहानी’ ज़िंदगी की कहानी है और ज़िंदगी चलती रहती है. मेरा मानना है कि समाधान अगर लेखक देगा तो वो आरोपित होंगे और समाधान आरोपित नहीं किए जा सकते. वो तो परिस्थितियों के दबाव से स्वयं निकलेंगे. ‘नई कहानी’ का लेखक यही करता है और मैंने इसीलिए ‘आपका बंटी’ में पाठकों को झकझोर कर छोड़ने की कोशिश की है कि वो समाधान ढूंढ़ें. मेरा स्पष्ट मानना है कि ख़ुद के ढूंढ़े समाधानों का ही सफल लागूकरण हो सकता है.
‘आपका बंटी’ कीं ‘शकुन’आर्थिक रूप से स्वतंत्र, सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित होते हुए भी कहीं कमज़ोर लगती है. वह डॉक्टर जोशी व बंटी दोनो ही के प्रति अपराध बोध से ग्रसित है. जबकि उसके पति ‘अजय’ के मन में ऐसा कोई अपराध बोध नहीं है. इससे आप शकुन के चरित्र की दुर्बलता व्यक्त करना चाहती हैं- एक नारी, एक मां होने के कारण? या मानव मन की या स्त्री मन की स्वाभाविक मनोवृत्ति दर्शाना चाहती हैं?
अजय को तो मैंने साइड में रखा है. केंद्र में बंटी के बाद शकुन ही है. मातृत्व को मैं औरत की कमज़ोरी नहीं मानती, बल्कि यह तो एक गरिमा है. हां, शकुन का चरित्र उसके भीतर की मां और औरत के मध्य द्वंद्व से ग्रस्त एक स्त्री का चरित्र है. उसके भीतर की एक आम औरत कभी प्रबल होती है कभी उसके भीतर की मां. उसे भी अधिकार है एक स्त्री की तरह जीने का, तभी वह सोचती है कि यदि बंटी को दरार ही बनना है तो अजय व मीरा के मध्य बने. यह बिल्कुल ही औरताना फ़ीलिंग है. और जब मां प्रबल होती है तब वह बंटी के प्रति गिल्ट फ़ील करती है.
आपकी नज़रों में नारी स्वातंत्र्य आंदोलन- कितने सार्थक कितने निरर्थक?
विमेन लिबरेशन में मैं विश्वास नहीं रखती. एक तो हमारे यहां हर काम पश्चिमी देशों के अनुकरण से होता है. उन्होंने ‘विमेन लिब’ स्टार्ट किया, हमने भी कर दिया. जबकि पाश्चात्य और भारतीय स्थितियों में इतना अंतर है कि जो कार्य वहां संभव है, वो यहां भी हो सके, इसकी संभावनाएं बहुत कम हैं.
आपकी दृष्टि में आधुनिकता की क्या परिभाषा है?
मैं आधुनिक उन्हीं लोगों को समझती हूं, जो यंगर जनरेशन को केवल गाइड करें. आधुनिकता वह दृष्टि है, जो आपको एक खुलापन दे. दूसरों की बात यदि मानिए नहीं भी, तो सुनिए, समझिए अवश्य.
‘छत बनाने वाले’ के ताऊजी इसीलिए पुरातनपंथी हैं. सुरक्षा के नाम पर वह बच्चों का व्यक्तित्व कुंठित कर देते हैं.
बल्कि ‘त्रिशंकु’ की ‘तनु की मां’ मैं समझती हूं कि फिर भी आधुनिक हैं. जो उसकी बेटी कहती है न कि मम्मी एक पल नाना, एक पल मम्मी बनकर जीती हैं. और इस द्वंद्व से गुज़रकर वह फिर बेटी की बात समझने का प्रयास करती है. यही मेरी निगाह में आधुनिकता है.
प्रायः कहा जाता है कि कृति में रचनाकार का व्यक्तित्व झलकता है. यदि ऐसा है तो रचनाओं में इतना वैविध्य कैसे संभव होता है?
व्यक्तित्व का अभिप्राय यह है कि उसकी धारणाएं, मान्यताएं, स्वभाव जैसे मुझसे लोग कहते हैं कि जैसा सहज आपका स्वभाव, व्यवहार है वैसी ही सहज आपकी कहानियां; बाक़ी वैविध्य तो होगा ही. क्योंकि यथार्थ की पृष्ठभूमि से विभिन्न पात्र रचनाकार चुनता है. मैंने भी विविध रूप लिए हैं. अब जैसे नारी के विविध रूपों की ही बात है तो उसके कई रूप यथार्थ में मिल सकते हैं, जो मैंने लिए हैं. वह नशा की आनंदी भी है, वह ‘दीपा-यही सच है’ भी है, वह ‘मुरली-जीती बाज़ी की हार’ भी है, वह ‘शिवानी-ऊंचाई’ भी हो सकती है. वो ‘सोमा बुआ-अकेली’ भी है.
मेरा कथन– सच! अकेली की सोमा बुआ पलकें भिगो देती है. वो सबका ख़्यालल रखती हैं, पर सब उसे कैसे उपेक्षित करते रहते हैं. उसकी त्रासदी झिंझोड़ती है.
मन्नू भंडारी– लोगों को झकझोरना ही उद्देश्य है मेरी अधिकतर कहानियों की तरह इस कहानी का भी. वह सबके साथ जुड़ी है, लेकिन कोई उसके साथ नहीं जुड़ा इसीलिए वह अकेली है. समाज में अकेले पड़ गए लोगों की भावनात्मक आवश्यकताएं समझना भी तो समाज का ही दायित्व है.
मैंने आपकी सभी कहानियां पढ़ीं. मुझे वो आज के युग के संघर्ष की, संक्रांति काल के द्वंद्व की कहानियां लगीं. उस द्वंद्व को जीती स्त्री के परिवेश को रेखांकित करती हुई लगने के कारण मैंने अपने लघु शोध का नाम ‘मन्नू भंडारी के नारी पात्रों की परिवेशगत भूमिका’ रखा. मेरा मानना है कि हर रचनाकार के पास बिना किसी प्रश्न की सीमा में बंधे ख़ुद से अपनी रचनाओं पर जो कहने को होता है वो सबसे अनमोल होता है. क्या आप ख़ुद से कुछ कहकर मेरे शोध को समृद्ध करना चाहेंगी?
(हंसकर) ऐसे तो मुझे जो कहना होता है, अपनी कहानियों के माध्यम से कहती ही हूं पर हां, आपका सवाल करने का ढंग अच्छा है. मेरी कुछ रचनाओं के नाम लीजिए, जिनकी समीक्षा आपको करनी हो तो, बात से बात निकालने का प्रयत्न करूं.
ऐखाने आकाश नाईं जिसमें नायिका संघर्षपूर्ण जीवन जी रही है. लाखों समस्याओं के साथ बिगड़ता स्वास्थ्य भी एक समस्या है. पति की सलाह पर महानगर से स्वास्थ्य लाभ से अपने गांव जाती है और वहां जाकर तालाब कई पानी की सड़ांध से परेशान होकर लौटने का मन बना लेती है. अपनी ननद की समस्या का समाधान भी नहीं कर पाती.
हमारे दिमाग़ में ग्राम्य जीवन को लेकर जो एक रूमानी आइडिया है, वह गलत है. ग्राम्य जीवन की मिथ को इस कहानी के माध्यम से तोड़ा है. सड़े हुए पानी से भरा तालाब प्रतीक है गांव के रुद्ध जीवन का. शहर का जीवन संघर्षपूर्ण होते हुए भी जीवंत है, क्योंकि वहां परिवर्तन है, जूझ है, गति है, समस्याएं हैं तो समाधान भी हैं.
‘बंद दराज़ों का साथ’ जो एक हर प्रकार से आत्मनिर्भर स्त्री के पहले पति की गलत बात को न सहन करते हुए उससे तलाक़ लेकर पूरे आत्मविश्वास के साथ दूसरी शादी करती है. फिर उसे महसूस होता है कि इन सब ने उसे भावनात्मक स्तर पर तोड़ा भी है. ये कहानी मुझे बड़ी मार्मिक लगी.
हां, पति-पत्नी के रिश्ते में जहां पूर्ण समर्पण अपेक्षित है, व्यक्तिगत कोने दरार डालते हैं, जीवन को खंडित कर देते हैं.
(थोड़ा सोचते हुए) कुछ और कहानियों पर मैं प्रकाश डाल सकती हूं, जैसे कि आपने अनुरोध किया; स्त्री की समस्याओं पर लिखी गई ‘एक बार और’ एक प्रारंभिक कहानी है, जिसकी त्रासदी मैरिड आदमी के कारण है, जिसने आश्वासन पर दोनों को ठगा है जबकि ‘स्त्री सुबोधिनी’ में व्यंग्य है और उन सब बातों पर हंसने की प्रवृत्ति है. मेरी कथा यात्रा में ‘तीसरा हिस्सा’ से एक परिवर्तन आता है.
‘शायद’ कहानी में यह दिखाया है कि वैसे उस परिवार में पारिवारिक संबंधों की धुरी केवल आर्थिक है. वह आदमी अपने परिवार से कैसे कट गया है. उसकी पत्नी भी विवश है. जो लोग उसकी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं वह उन्हीं से जुड़ी है. यह एक स्वाभाविक वृत्ति है कि मनुष्य है तो सामाजिक प्राणी ही. ये भी हमारे समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की त्रासद सच्चाई है.
‘जीती बाज़ी की हार’ की मुरली के माध्यम से दिखाया गया है कि मातृत्व औरत की एक स्वाभाविक वृत्ति है.
मेरा कथन– हां, बड़ी अलग कहानी है. तीन सहेलियां गृहस्थी के बंधन में बंधे बिना जीने का संकल्प लेकर जीवन शुरू करती हैं. दो का संकल्प टूट जाता है. वो अपनी गृहस्थी में ख़ुश हैं पर तीसरी जो शर्त जीत गई है, उसके ही पुरुस्कार स्वरूप अपनी सहेली की बेटी मांग लेने के साथ कहानी खतम!
मन्नू भंडारी– हां, क्योंकि उद्देश्य पूरा हो गया. स्वाभाविक वृत्तियों को जीतने का दावा करने वाली लड़की ने अपनी स्वाभाविक वृत्ति दर्शा दी. इसीलिए वो ‘जीती बाज़ी हार’ गई.
ऐसे ही ‘ईसा के घर इनसान’ में शीर्षक में ही उद्देश्य निहित है. ईसा के घर में रहकर भी इनसान इनसान ही है. जैसे नारी के लिए नारीत्व वैसे ही पुरुष के लिए पुरुषत्व. अस्वाभाविक ढंग से यदि कोई इच्छाओं को कुचले तो ‘ऐबनार्मल’ हो जाता है. कैसे फ़ादर करप्ट हो जाते हैं. मतलब ईसा के घर रहकर भी मनुष्य मनुष्य ही है. इसे मैं उसकी दुर्बलता भी नहीं मानती. मनुष्य के भीतर की स्वाभाविक इच्छाओं को झुठलाया नहीं जा सकता.
मेरा कथन– आपके पति राजेंद्र यादव भी लेखक हैं. और बहुत से लेखक मित्रों के समूह में विमर्श होते रहते हैं आपके. आपकी कहानी गढ़ने की प्रक्रिया में औरों के साथ क्या समानताएं और भिन्नताएं लगती हैं आपको?
मन्नू भंडारी– मैं भी हर लेखक की तरह पहले रफ़ स्केच बनाती हूं किसी भी कहानी का. फिर उसमें कुतूहल गूंथती हूं. अलग में यह कि मुझे कहानी घर के बीचों-बीच लिखना पसंद है. लोग, जैसे राजेंद्र भी कहते हैं उनका ध्यान एकांत में केंद्रित होता है. मेरे साथ ऐसा नहीं है. मैं संवाद, किरदार, उद्देश्य सब समाज से चुनती हूं और समाज के साथ ही उसे गढ़ती हूं.
महाभोज की पृष्ठभूमि आपकी शेष रचनाओं से बिल्कुल भिन्न है. किस तरह राजनीतिक पार्टियों को केवल अपने स्वार्थ से मतलब रहता है. राजनीति में फैला प्रदूषण अपने पूरे विभत्स रूप में पूरी सच्चाई और बारीक़ी के साथ व्यक्त हुआ है. यह आपकी अकेली विशुद्ध राजनैतिक व सफल व्यंग्य रचना है. इस भिन्न कथ्य का ख़्याल कैसे आया? क्या इसके पीछे कोई घटना है?
वैसे तो दिल्ली में रहने वाला व्यक्ति राजनीति की इस सीधी चुभन से अछूता नहीं रह सकता तो मैंने महसूस किया व लिखा, पर मुझे लगता है कि ‘महाभोज’ ‘बंटी’ से कहीं जुड़ा अवश्य है. एक पारिवारिक स्तर पर देखो तो पति-पत्नी के मध्य अपना महत्त्व प्रतिपादित करने की लड़ाई में वह बेगुनाह बच्चा ही सबसे अधिक सफ़र करता है जिसके प्रति दोनों ही बहुत चिंतित हैं. दोनों की ही उसमें बेहद रुचि है. दोनों ही उसे बेहद ‘कंसर्न’ कर रहे हैं. उसी को यदि पूरे देश के स्तर पर फैला दिया जाए तो लगता है कि दो पार्टियों की आपसी लड़ाई में जनता पर अपना-अपना महत्त्व प्रतिपादित करने की चेष्टा में सबसे अधिक सफ़र करती है वही बेगुनाह जनता, जिसके प्रति दोनों ही पार्टियां अपना सारोकार यदि रखती नहीं हैं तो दिखा तो रही ही हैं. दोनों ही पार्टियां जिसके प्रति चिंतित होने का अभिनय कर रही हैं. तो कहीं न कहीं एक लिंक तो है ही.
मेरा कथन– मुझे आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी भी हुई और आपके विचार न केवल मेरे शोध में सहायक होंगे, बल्कि आपका स्निग्ध व्यक्तित्व और ये यादगार बातें हमेशा सुंदर अनुभूति बनकर मेरे साथ रहेंगी.
मन्नू भंडारी– वो सब तो ठीक है बेटा, पर ये बताओ तुमने स्वैटर क्यों नहीं पहना है? जाड़ा बहुत है. अब मेरा शॉल लेकर जाओ. और कसकर कान से लपेटकर बैठना, ठीक है!
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