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अ जोक: कहानी एक छोटे से मज़ाक की (लेखक: अन्तोन चेखव)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 6, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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अ जोक: कहानी एक छोटे से मज़ाक की (लेखक: अन्तोन चेखव)
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कभी-कभी छोटा-सा हानिरहित मज़ाक किसी के लिए जीवनभर की मधुर याद बन जाता है. स्लेज से फिसलने से डरनेवाली नाद्या इसी मज़ाक के चलते बार-बार स्लेज से फिसलना चाहती थी.

सर्दियों की ख़ूबसूरत दोपहर… सर्दी बहुत तेज़ है. नाद्या ने मेरी बांह पकड़ रखी है. उसके घुंघराले बालों में बर्फ़ इस तरह जम गई है कि वे चांदनी की तरह झलकने लगे हैं. होंठों के ऊपर भी बर्फ़ की एक लकीर-सी दिखाई देने लगी है. हम एक पहाड़ी पर खड़े हुए हैं. हमारे पैरों के नीचे मैदान पर एक ढलान पसरी हुई है जिसमें सूरज की रौशनी ऐसे चमक रही है जैसे उसकी परछाई शीशे में पड़ रही हो. हमारे पैरों के पास ही एक स्लेज पड़ी हुई है जिसकी गद्दी पर लाल कपड़ा लगा हुआ है.
‘चलो नाद्या, एक बार फिसलें!’ मैंने नाद्या से कहा,‘सिर्फ़ एक बार! घबराओ नहीं, हमें कुछ नहीं होगा, हम ठीक-ठाक नीचे पहुंच जाएंगे.’
लेकिन नाद्या डर रही है. यहां से, पहाड़ी के कगार से, नीचे मैदान तक का रास्ता उसे बेहद लम्बा लग रहा है. वह भय से पीली पड़ गई है. जब वह ऊपर से नीचे की ओर झांकती है और जब मैं उससे स्लेज पर बैठने को कहता हूं तो जैसे उसका दम निकल जाता है. मैं सोचता हूं, लेकिन तब क्या होगा, जब वह नीचे फिसलने का ख़तरा उठा लेगी! वह तो भय से मर ही जाएगी या पागल ही हो जाएगी.
‘मेरी बात मान लो!,’ मैंने उससे कहा,‘नहीं-नहीं, डरो नहीं, तुममें हिम्मत की कमी है क्या?’
आख़िरकार वह मान जाती है. और मैं उसके चेहरे के भावों को पढ़ता हूं. ऐसा लगता है जैसे मौत का ख़तरा मोल लेकर ही उसने मेरी यह बात मानी है. वह भय से सफ़ेद पड़ चुकी है और कांप रही है. मैं उसे स्लेज पर बैठाकर, उसके कंधों पर अपना हाथ रखकर उसके पीछे बैठ जाता हूं. हम उस अथाह गहराई की ओर फिसलने लगते हैं. स्लेज गोली की तरह बड़ी तेज़ी से नीचे जा रही है. बेहद ठंडी हवा हमारे चेहरों पर चोट कर रही है. हवा ऐसे चिंघाड़ रही है कि लगता है, मानों कोई तेज़ सीटी बजा रहा हो. हवा जैसे ग़ुस्से से हमारे बदनों को चीर रही है, वह हमारे सिर उतार लेना चाहती है. हवा इतनी तेज़ है कि सांस लेना भी मुश्क़िल है. लगता है, मानों शैतान हमें अपने पंजों में जकड़कर गरजते हुए नरक की ओर खींच रहा है. आसपास की सारी चीज़ें जैसे एक तेज़ी से भागती हुई लकीर में बदल गई हैं. ऐसा महसूस होता है कि आनेवाले पल में ही हम मर जाएंगे.
‘मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या!,’ मैं धीमे से कहता हूं.
स्लेज की गति धीरे-धीरे कम हो जाती है. हवा का गरजना और स्लेज का गूंजना अब इतना भयानक नहीं लगता. हमारे दम में दम आता है और आख़िरकार हम नीचे पहुंच जाते हैं. नाद्या अधमरी-सी हो रही है. वह सफ़ेद पड़ गई है. उसकी सांसें बहुत धीमी-धीमी चल रही हैं… मैं उसकी स्लेज से उठने में मदद करता हूं.
‘अब चाहे जो भी हो जाए मैं कभी नहीं फिसलूंगी, हरगिज़ नहीं! आज तो मैं मरते-मरते बची हूं.’ मेरी ओर देखते हुए उसने कहा. उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में ख़ौफ़ का साया दिखाई दे रहा है. पर थोड़ी ही देर बाद वह सहज हो गई और मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखने लगी. क्या उसने सचमुच वे शब्द सुने थे या उसे ऐसा बस महसूस हुआ था, सिर्फ़ हवा की गरज थी वह? मैं नाद्या के पास ही खड़ा हूं, मैं सिगरेट पी रहा हूं और अपने दस्ताने को ध्यान से देख रहा हूं.
नाद्या मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेती है और हम देर तक पहाड़ी के आसपास घूमते रहते हैं. यह पहेली उसको परेशान कर रही है. वे शब्द जो उसने पहाड़ी से नीचे फिसलते हुए सुने थे, सच में कहे गए थे या नहीं? यह बात वास्तव में हुई या नहीं. यह सच है या झूठ? अब यह सवाल उसके लिए स्वाभिमान का सवाल हो गया है. उसकी इज़्ज़त का सवाल हो गया है. जैसे उसकी ज़िन्दगी और उसके जीवन की ख़ुशी इस बात पर निर्भर करती है. यह बात उसके लिए महत्त्वपूर्ण है, दुनिया में शायद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण. नाद्या मुझे अपनी अधीरता भरी उदास नज़रों से ताकती है, मानों मेरे अन्दर की बात भांपना चाहती हो. मेरे सवालों का वह कोई असंगत-सा उत्तर देती है. वह इस इन्तज़ार में है कि मैं उससे फिर वही बात शुरू करूं. मैं उसके चेहरे को ध्यान से देखता हूं, अरे, उसके प्यारे चेहरे पर ये कैसे भाव हैं? मैं देखता हूं कि वह अपने आप से लड़ रही है, उसे मुझ से कुछ कहना है, वह कुछ पूछना चाहती है. लेकिन वह अपने ख़यालों को, अपनी भावनाओं को शब्दों के रूप में प्रकट नहीं कर पाती. वह झेंप रही है, वह डर रही है, उसकी अपनी ही ख़ुशी उसे तंग कर रही है.
‘सुनिए!’ मुझ से मुंह चुराते हुए वह कहती है.
‘क्या?’ मैं पूछता हूं.
‘चलिए, एक बार फिर फिसलें.’
हम फिर से पहाड़ी के ऊपर चढ़ जाते हैं. मैं फिर से भय से सफ़ेद पड़ चुकी और कांपती हुई नाद्या को स्लेज पर बैठाता हूं. हम फिर से भयानक गहराई की ओर फिसलते हैं. फिर से हवा की गरज और स्लेज की गूंज हमारे कानों को फाड़ती है और फिर जब शोर सबसे अधिक था मैं धीमी आवाज़ में कहता हूं,‘मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या.’
नीचे पहुंचकर जब स्लेज रुक जाती है तो नाद्या एक नज़र पहले ऊपर की तरफ़ ढलान को देखती है जिससे हम अभी-अभी नीचे फिसले हैं, फिर दूसरी नज़र मेरे चेहरे पर डालती है. वह ध्यान से मेरी बेपरवाह और भावहीन आवाज़ को सुनती है. उसके चेहरे पर हैरानी है. न सिर्फ़ चेहरे पर बल्कि उसके सारे हाव-भाव से हैरानी झलकती है. वह चकित है और जैसे उसके चेहरे पर यह लिखा है-क्या बात है? वे शब्द किसने कहे थे? शायद इसी ने? या हो सकता है मुझे बस ऐसा लगा हो, बस ऐसे ही वे शब्द सुनाई दिए हों?
उसकी परेशानी बढ़ जाती है कि वह इस सच्चाई से अनभिज्ञ है. यह अनभिज्ञता उसकी अधीरता को बढ़ाती है. मुझे उस पर तरस आ रहा है. बेचारी लड़की! वह मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं देती और नाक-भौंह चढ़ा लेती है. लगता है वह रोने ही वाली है.
‘घर चलें?’ मैं पूछता हूं.
‘लेकिन मुझे… मुझे तो यहां फिसलने में ख़ूब मज़ा आ रहा है.’ वह शर्म से लाल होकर कहती है और फिर मुझ से अनुरोध करती है,‘और क्यों न हम एक बार फिर फिसलें?’
हुम… तो उसे यह फिसलना अच्छा लगता है. पर स्लेज पर बैठते हुए तो वह पहले की तरह ही भय से सफ़ेद दिखाई दे रही है और कांप रही है. उसे सांस लेना भी मुश्क़िल हो रहा है. लेकिन मैं अपने होंठों को रुमाल से पोंछकर धीरे से खांसता हूं और जब फिर से नीचे फिसलते हुए हम आधे रास्ते में पहुंच जाते हैं तो मैं एक बार फिर कहता हूं,‘मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या!’
और यह पहेली पहेली ही रह जाती है. नाद्या चुप रहती है, वह कुछ सोचती है… मैं उसे उसके घर तक छोड़ने जाता हूं. वह धीमे-धीमे क़दमों से चल रही है और इन्तज़ार कर रही है कि शायद मैं उससे कुछ कहूंगा. मैं यह नोट करता हूं कि उसका दिल कैसे तड़प रहा है. लेकिन वह चुप रहने की कोशिश कर रही है और अपने मन की बात को अपने दिल में ही रखे हुए है. शायद वह सोच रही है.
दूसरे दिन मुझे उसका एक रुक्का मिलता है.
आज जब आप पहाड़ी पर फिसलने के लिए जाएं तो मुझे अपने साथ ले लें.
-नाद्या.
उस दिन से हम दोनों रोज़ फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाते हैं और स्लेज पर नीचे फिसलते हुए हर बार मैं धीमी आवाज़ में वे ही शब्द कहता हूं,‘मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या!’
जल्दी ही नाद्या को इन शब्दों का नशा-सा हो जाता है, वैसा ही नशा जैसा शराब या मार्फ़ीन का नशा होता है. वह अब इन शब्दों की ख़ुमारी में रहने लगी है. हालांकि उसे पहाड़ी से नीचे फिसलने में पहले की तरह डर लगता है लेकिन अब भय और ख़तरा मोहब्बत से भरे उन शब्दों में एक नया स्वाद पैदा करते हैं जो पहले की तरह उसके लिए एक पहेली बने हुए हैं और उसके दिल को तड़पाते हैं. उसका शक हम दो ही लोगों पर है-मुझ पर और हवा पर. हम दोनों में से कौन उसके सामने अपनी भावना का इज़हार करता है, उसे पता नहीं. पर अब उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. शराब चाहे किसी भी बर्तन से क्यों न पी जाए-नशा तो वह उतना ही देती है. अचानक एक दिन दोपहर के समय मैं अकेला ही उस पहाड़ी पर जा पहुंचा. भीड़ के पीछे से मैंने देखा कि नाद्या उस ढलान के पास खड़ी है, उसकी आंखें मुझे ही तलाश रही हैं. फिर वह धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगती है. अकेले फिसलने में हालांकि उसे डर लगता है, बहुत ज़्यादा डर! वह बर्फ़ की तरह सफ़ेद पड़ चुकी है, वह कांप रही है, जैसे उसे फ़ांसी पर चढ़ाया जा रहा हो. पर वह आगे ही आगे बढ़ती जा रही है, बिना झिझके, बिना रुके. शायद आख़िर उसने फ़ैसला कर ही लिया कि वह इस बार अकेली नीचे फिसल कर देखेगी कि जब मैं अकेली होऊंगी तो क्या मुझे वे मीठे शब्द सुनाई देंगे या नहीं? मैं देखता हूं कि वह बेहद घबराई हुई भय से मुंह खोलकर स्लेज पर बैठ जाती है. वह अपनी आंखें बंद कर लेती है और जैसे जीवन से विदा लेकर नीचे की ओर फिसल पड़ती है… स्लेज के फिसलने की गूंज सुनाई पड़ रही है. नाद्या को वे शब्द सुनाई दिए या नहीं-मुझे नहीं मालूम… मैं बस यह देखता हूं कि वह बेहद थकी हुई और कमज़ोर-सी स्लेज से उठती है. मैं उसके चेहरे पर यह पढ़ सकता हूं कि वह ख़ुद नहीं जानती कि उसे कुछ सुनाई दिया या नहीं. नीचे फिसलते हुए उसे इतना डर लगा कि उसके लिए कुछ भी सुनना या समझना मुश्क़िल था.
फिर कुछ ही समय बाद वसन्त का मौसम आ गया. मार्च का महीना है… सूरज की किरणें पहले से अधिक गरम हो गई हैं. हमारी बर्फ़ से ढकी वह सफ़ेद पहाड़ी भी काली पड़ गई है, उसकी चमक ख़त्म हो गई है. धीरे-धीरे सारी बर्फ़ पिघल जाती है. हमारा फिसलना बंद हो गया है और अब नाद्या उन शब्दों को नहीं सुन पाएगी. उससे वे शब्द कहने वाला भी अब कोई नहीं है: हवा ख़ामोश हो गई है और मैं यह शहर छोड़कर पिटर्सबर्ग जाने वाला हूं-हो सकता है कि मैं हमेशा के लिए वहां चला जाऊंगा.
मेरे पिटर्सबर्ग रवाना होने से शायद दो दिन पहले की बात है. संध्या समय मैं बगीचे में बैठा था. जिस मकान में नाद्या रहती है यह बगीचा उससे जुड़ा हुआ था और एक ऊंची बाड़ ही नाद्या के मकान को उस बगीचे से अलग करती थी. अभी भी मौसम में काफ़ी ठंड है, कहीं-कहीं बर्फ़ पड़ी दिखाई देती है, हरियाली अभी नहीं है लेकिन वसन्त की सुगन्ध महसूस होने लगी है. शाम को पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी है. मैं बाड़ के पास आ जाता हूं और एक दरार में से नाद्या के घर की तरफ़ देखता हूं. नाद्या बरामदे में खड़ी है और उदास नज़रों से आसमान की ओर ताक रही है. बसन्ती हवा उसके उदास फीके चेहरे को सहला रही है. यह हवा उसे उस हवा की याद दिलाती है जो तब पहाड़ी पर गरजा करती थी जब उसने वे शब्द सुने थे. उसका चेहरा और उदास हो जाता है, गाल पर आंसू ढुलकने लगते हैं… और बेचारी लड़की अपने हाथ इस तरह से आगे बढ़ाती है मानो वह उस हवा से यह प्रार्थना कर रही हो कि वह एक बार फिर से उसके लिए वे शब्द दोहराए. और जब हवा का एक झोंका आता है तो मैं फिर धीमी आवाज़ में कहता हूं,‘मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या!’
अचानक न जाने नाद्या को क्या हुआ! वह चौंककर मुस्कराने लगती है और हवा की ओर हाथ बढ़ाती है. वह बेहद ख़ुश है, बेहद सुखी, बेहद सुन्दर.
और मैं अपना सामान बांधने के लिए घर लौट आता हूं….
यह बहुत पहले की बात है. अब नाद्या की शादी हो चुकी है. उसने ख़ुद शादी का फ़ैसला किया या नहीं-इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. उसका पति एक बड़ा अफ़सर है और उनके तीन बच्चे हैं. वह उस समय को आज भी नहीं भूल पाई है, जब हम फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाया करते थे. हवा के वे शब्द उसे आज भी याद हैं, यह उसके जीवन की सबसे सुखद, हृदयस्पर्शी और ख़ूबसूरत याद है.
और अब, जब मैं प्रौढ़ हो चुका हूं, मैं यह नहीं समझ पाता हूं कि मैंने उससे वे शब्द क्यों कहे थे, किसलिए मैंने उसके साथ ऐसा मज़ाक किया था!

Illustration: Pinterest

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