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हरिचरण: कहानी एक अनाथ बच्चे की (लेखक: शरतचंद्र)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
March 13, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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हरिचरण: कहानी एक अनाथ बच्चे की (लेखक: शरतचंद्र)
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कई बार अच्छे लोगों से भी परिस्थितिवश बुरा काम हो जाता है. और वे सारी ज़िंदगी उस एक बुरे काम के पाप के नीचे दबे रहने को अभिशप्त हो जाते हैं. ऐसा ही कुछ होता है दुर्गादास बाबू के साथ.

बहुत पहले की बात है. लगभग दस-बारह वर्ष हो गए होंगे. दुर्गादास बाबू तब तक वक़ील नहीं बने थे. दुर्गादास बंद्योपाध्याय को शायद तुम ठीक से पहचानते नहीं हो, मैं जानता हूं उन्हें. आइए, उनसे परिचय करा देता हूं.
बचपन में कहीं से एक अनाथ कायस्थ बालक ने रामदास बाबू के घर में आश्रय लिया था. सब कहते, लड़का बड़ा होनहार है, सुंदर बुद्धिमान नौकर. दुर्गादास बाबू के पिता का स्नेही भृत्य.
वह सारा काम निपटा दिया करता. गाय को चारा देने से लेकर बाबू की तेल-मालिश तक, सब वह स्वयं ही करना चाहता. हमेशा व्यस्त रहने में ही उसे ख़ुशी मिलती.
लड़के का नाम हरिचरण था. घर की मालकिन अकसर उसे देखकर चकित होती. कभी-कभार टोक भी देती,‘हरि, दूसरे नौकर भी हैं. तुम बच्चे हो, इतना काम क्यों करते हो?’
हरि में एक और कमी कह सकते हैं. वह हंसना बहुत पसंद करता था. हंसकर उत्तर देता,‘मां, हम ग़रीब हैं. हमेशा काम करना पड़ेगा और वैसे भी बैठकर क्या होगा?’
इस तरह काम करते हुए स्नेह की गोद में पलता हरिचरण का एक वर्ष व्यतीत हुआ.
सुरो रामदास की छोटी बेटी है. उम्र अभी लगभग पांच-छह वर्ष. हरिचरण के साथ उसकी बड़ी आत्मीयता है. जब उसे दूध पिलाना होता तो उसकी मां को हमेशा बड़ी परेशानी होती. अथक प्रयत्न के बाद भी जब वह अपनी बेटी को दूध पीने के लिए नहीं मना पाती तो हरिचरण की बातों का ही उस पर असर होता. अब छोड़ो, यह सब. बेकार की बातें बहुत हुईं. असल मुद्दे पर आता हूं. सुनो! शायद सूरो के हृदय में हरिचरण के प्रति प्रेम का अंकुर फूटने लगा था.
दुर्गादास बाबू की उम्र जब बीस वर्ष की थी, तब की घटना सुनाता हूं. वह उन दिनों कलकत्ते में पढ़ा करता था. घर आने के लिए स्टीमर पर दक्षिण की ओर जाना पड़ता था. उसके बाद भी लगभग दस-बारह कोस पैदल चलना होता. राह इतनी सुगम्य नहीं थी. इस कारण दुर्गादास बाबू घर बहुत कम आते.
इन दिनों वह बी.ए. पास होकर घर लौटे हैं. मां अत्यंत व्यस्त थी. उन्हें अच्छी तरह खिलाना-पिलाना, देखभाल करना जैसे पूरे घर में उमड़ पड़ा था. दुर्गादास ने पूछा,‘मां, यह लड़का कौन है?’
‘यह एक कायस्थ का बेटा है. मां-बाप नहीं है इसलिए तुम्हारे पिता ने उसे रखा है. नौकर का सारा काम कर लेता है और निहायत ही शांत-प्रकृति का है. किसी बात पर भी क्रोधित नहीं होता. आह! मां-बाप हैं नहीं, उस पर छोटा-सा बालक. मैं उससे बहुत स्नेह करती हूं.’ दुर्गादास बाबू को हरिचरण का यही परिचय मिला.
जो भी हो, आजकल हरिचरण का काम बहुत बढ़ गया है, पर इससे वह तनिक भी असंतुष्ट नहीं है. छोटे बाबू (दुर्गादास) को स्नान कराना, आवश्यकतानुसार घड़े में जल भरकर लाना, ठीक समय पर पान उपलब्ध कराना, उपयुक्त अवसरानुसार हुक्के का प्रबंध इत्यादि में वह अत्यंत पटु था. दुर्गादास बाबू भी अकसर सोचते, लड़का निहायत ही ‘इंटेलिजेंट’ है. अतः कपड़े धोना, तंबाकू सजाना जैसे काम हरिचरण के न करने पर और किसी का काम उन्हें पसंद नहीं आता.
कुछ समझ नहीं पाता हूं. कहां का पानी कहां जाकर खड़ा होता है. ये सब बातें सबके लिए समझ पाना संभव नहीं, आवश्यकता भी नहीं और मेरा भी फ़िलासफ़ी लेकर डील करने का उद्देश्य नहीं है. फिर भी आपसे दो बातें कहने में हानि क्या है?
आज दुर्गादास बाबू को एक भव्य रात्रिभोज का निमंत्रण है. घर में नहीं खाएंगे, संभवतः देर रात से लौटेंगे. सो, हरिचरण से कह गए कि सब काम निपटाने के बाद उसका बिस्तर व्यवस्थित कर रखे.
अब हरिचरण की सुनें. दुर्गादास बाबू बाहर के बैठक में रात को सोते हैं. इसका कारण कोई नहीं जानता. मुझे लगता है कि पत्नी के मायके में रहने के कारण ही उन्हें बाहर के कमरे में सोना अच्छा लगता है. रात को सोते समय हरिचरण उनके पांव दबाता है और जब वे गहरी नींद में चले जाते हैं तो वह साथ के कमरे में सोने चला जाता है.
उस दिन शाम को हरिचरण के सिर में दर्द शुरू हुआ. उसने जान लिया कि अब बुख़ार आने में देर नहीं. पहले भी बीच-बीच में उसे बुख़ार होता रहता है. अतः वह इसके लक्षणों से परिचित है. वह अधिक देर तक न बैठ सका और अपने कमरे में जाकर सो गया. छोटे बाबू का बिस्तर नहीं लग पाया है, इसका भान भी न रहा. रात को सबने भोजन किया पर हरिचरण भोजन के लिए नहीं आया. मालकिन देखने आई. वह सो रहा था. उसके शरीर पर हाथ रखा तो वह बहुत गर्म था. वह समझ गई कि उसे बुख़ार हुआ है. अतः उसे विरक्त किए बिना वहां से चली आई.
रात का दूसरा पहर था. भोज खाकर जब दुर्गादास बाबू घर लौटे तो देखा कि उसका बिस्तर तैयार नहीं है. एक तो नींद सता रही थी, उस पर सारी राह यह सोचते आए थे कि घर पहुंचते ही चित्त हो जाऊंगा और हरिचरण उसके पांव दबाकर सारी थकान मिटा देगा. इसी सुखानुभूति की अल्पतंद्रा में सुबह हो जाएगी. हताश होकर वे चिल्ला उठे,‘हरिचरण, ओ हरि, हरे’ इत्यादि कहते हुए शोर मचाने लगे. पर कहां था हरि? वह ज्वरपीड़ित संज्ञाहीन पड़ा हुआ था. तब दुर्गादास बाबू को ख़्याल आया, कम्बख्त सो गया होगा. कमरे में जाकर देखा तो सचमुच.
अधिक सहन नहीं कर पाए. जोर से उसे बालों से पकड़कर खींचते हुए बिठाने की कोशिश की पर वह फिर से निढाल होकर बिस्तर पर गिर पड़ा. तब क्रोधाग्नि में झुलसे दुर्गादास को हित-अहित का ज्ञान न रहा और हरि की पीठ पर जूता पहने ही आघात किया. उस भीषण चोट से हरिचरण की चेतना लौटी और वह उठकर बैठ गया. दुर्गादास बाबू ने कहा,‘तो जनाब, मजे से सो रहे हैं. बिस्तर क्या मैं स्वयं लगाऊंगा?’ कहते हुए उनका क्रोध और भड़का, हाथ में थामे बेंत से उसकी पीठ पर दो-तीन जड़ दिए.
उस रात जब हरि उसके पांव दबा रहा था, तब शायद एक बूंद आंसू दुर्गादास बाबू के पांव पर गिरा था. फिर तो सारी रात दुर्गादास बाबू सो नहीं पाए. वह एक बूंद आंसू बहुत गर्म महसूस हुआ था. दुर्गादास बाबू हरिचरण को बहुत प्यार करते थे. उसकी नम्रता के लिए वे ही क्यों, वह सबका प्रिय पात्र था. विशेषकर इस महीने भर की घनिष्टता में वह उनका और भी अधिक प्रिय हो उठा था.
रात में कई बार दुर्गादास बाबू को लगा कि एक बार देख आएं, कितनी चोट लगी है, कितनी सूजन हुई है? पर वह एक नौकर है, अच्छा नहीं लगेगा. कई बार मन में आया कि एक बार पूछकर आएं,‘बुख़ार कम हुआ क्या?’ पर उससे लज्जा महसूस होती. सुबह हरिचरण मुंह धोकर पानी ले आया, तंबाकू सजाया. दुर्गादास बाबू काश तब भी अगर कह पाते, आहा! वह तो बालक है, अब भी तेरह वर्ष का नहीं हुआ. बालक समझकर भी अपने पास खींचकर देखते, बेंत के आघात से कितना रक्त जमा है, जूते से कितना सूजा है? बालक ही तो है, लज्जा की क्या बात है?
नौ बजे के लगभग कहीं से एक तार आया. उससे दुर्गादास बाबू का मन विचलित हो उठा. खोलकर देखा, पत्नी बीमार है. उनका हृदय बैठ गया. उसी दिन कलकत्ता लौटना पड़ा. गाड़ी में बैठते हुए सोचा-भगवान. समझूंगा प्रायश्चित हुआ.
प्रायः महीना हो गया. दुर्गादास बाबू का चेहरा आज प्रफुल्ल है. उनकी पत्नी बच गई.
घर से आज एक पत्र आया. उनके छोटे भाई का था. नीचे पुनश्चः करके लिखा हुआ था,‘बड़े दुःख की बात है. कल सुबह दस दिन ज्वर से भुगतते हुए हमारे हरिचरण की मृत्यु हो गई. मरने से पहले उसने कई बार आपको देखना चाहा था.
आह! बिना मां-बाप का अनाथ.
धीरे-धीरे दुर्गादास बाबू ने उस पत्र को चिंदी-चिंदी कर फेंक दिया.

Illustration: Amol Shede @Pinterest

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